राहुल वर्मा : बिहार सरकार ने सात जनवरी से राज्य में जातीय गणना शुरू कर दी है। उसके इस फैसले ने पूरे देश में एक नई बहस छेड़ी है। यह पहल कई नए राजनीतिक समीकरणों की ओर भी संकेत कर रही है। इसका कारण है कि पिछले कुछ समय से देश के विभिन्न कोनों से जातीय गणना की मांग जोर पकड़ती रही है। आर्थिक आधार पर आरक्षण वाली व्यवस्था यानी ईडब्ल्यूएस कोटे के अस्तित्व में आने के बाद आरक्षण को लेकर खींची गई सुप्रीम कोर्ट की लक्ष्मण रेखा लांघे जाने के बाद जातिगत आधार पर अधिकारों की मांग खासी तेज हुई है।

वास्तव में, मोदी सरकार ने 2019 में ईडब्ल्यूएस कोटे में जो 10 प्रतिशत आरक्षण दिया, उससे कई राज्यों में आरक्षण की सीमा निर्धारित 50 प्रतिशत के दायरे के पार चली गई है। इसके चलते कई वर्षों से जातिगत आधार पर विभिन्न अधिकारों की मांग कर रहे वर्ग नए सिरे से मुखर हुए हैं। वहीं अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के मसले पर गठित जस्टिस रोहिणी आयोग को लगातार मिलता विस्तार भी कहीं न कहीं यही संकेत करता है कि उसके निष्कर्ष अभी तक किसी परिणति पर नहीं पहुंचे हैं। ऐसे में बिहार सरकार की इस कवायद को कई कड़ियों से जोड़कर देखा जा रहा है। जैसे कि मोदी सरकार द्वारा जनगणना को संभवतः इस कारण टालना कि कहीं उस संदर्भ में जातीय गणना की मांग और तेज न हो जाए।

इस साल कई राज्यों में चुनाव होने हैं और उनकी राजनीति पर इस मुद्दे की छाप दिखाई पड़ेगी। राजनीतिक दलों ने इसकी गंभीरता को समझना भी शुरू कर दिया है। उदाहरण के रूप में कर्नाटक को ही लें, जहां इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं। कर्नाटक सरकार ने गत नवंबर में एक विधेयक पेश किया, जिसके माध्यम से अनुसूचित जातियों (एससी) के आरक्षण की सीमा 15 प्रतिशत से बढ़ाकर 17 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए तीन प्रतिशत से बढ़ाकर सात प्रतिशत करने का प्रविधान था। छत्तीसगढ़ में भी एसटी के लिए आरक्षण की सीमा 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 32 प्रतिशत और ओबीसी आरक्षण 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने की तैयारी है। झारखंड तो इस मामले में सबसे आगे निकलता दिख रहा है, जहां एसटी आरक्षण 26 से बढ़ाकर 28 प्रतिशत, ओबीसी आरक्षण 14 से बढ़ाकर 27 प्रतिशत और एससी आरक्षण 10 से बढ़ाकर 12 प्रतिशत करने की योजना है, जो फिलहाल राज्य सरकार, राज्यपाल और अदालती पेच में फंसी हुई है।

एससी, एसटी और ओबीसी जैसे वर्गों के लिए आरक्षण की सीमा में फेरबदल के बीच जाट, गुर्जर, मराठा और पाटीदार जैसे तमाम वर्गों को भी उनकी मांगों के अनुरूप समायोजित करने का दबाव बना रहेगा। जाहिर है कि जातीय गणना के बाद कुछ वर्ग अपनी मांग को लेकर दबाव बनाएंगे और उस स्थिति में 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा पर भी नए सिरे से विचार करना होगा।

ऐसा न समझा जाए कि जातीय गणना को लेकर नीतीश कुमार का हृदय सत्ता में साझेदार बदलने के साथ एकाएक परिवर्तित हुआ। जब वह भाजपा के साथ मिलकर सरकार चला रहे थे तो उस समय नेता-प्रतिपक्ष रहे तेजस्वी यादव के साथ वह इस मुद्दे पर एक प्रतिनिधिमंडल लेकर प्रधानमंत्री मोदी से मिले भी थे। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी या उनकी सरकार की ओर से इस विषय में कोई आधिकारिक टिप्पणी नहीं आई थी, लेकिन तब नीतीश कुमार ने कहा था कि उन्हें प्रधानमंत्री से जातीय गणना को लेकर सकारात्मक संकेत मिले हैं।

जातीय गणना का मुद्दा पूरी तरह बेमानी नहीं है। देश में 1931 के बाद से जातीय गणना नहीं हुई है और यदि अब होती है तो उससे तमाम वास्तविकताओं का पता चलेगा, क्योंकि वस्तुनिष्ठ आंकड़ों की अपनी उपयोगिता होती है। इससे यह भी पता चलेगा कि अभी तक चले आ रहे जातिगत आरक्षण के लाभ कहां तक पहुंचे हैं? प्रायः यह कहा जाता है कि एससी और ओबीसी आरक्षण का लाभ मुख्य रूप से इन वर्गों की कुछ जातियों तक ही सिमटकर रह गया है और तमाम अन्य जातियों को इसका अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया है। जातिगत गणना से सामने आनी वाली वास्तविकता से इन विसंगतियों को दूर करने में मदद मिल सकेगी। इससे कोटे के भीतर उसके पुनर्गठन की मांग भी जोर पकड़ सकती है। इसका एक दूसरा पहलू भी है और वह यह कि चूंकि सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों से लेकर सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में अवसर सीमित होते जा रहे हैं तो जातीय गणना के बाद निजी क्षेत्र की कंपनियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की गाहे-बगाहे उठने वाली मांग को भी नई धार मिल सकती है।

अभी यह कह पाना मुश्किल है कि जातीय गणना के राजनीतिक निहितार्थ क्या होंगे और इससे किसे लाभ होगा और कौन नुकसान में रहेगा। अभी तक भाजपा ने इस पर एक तरह से मौन साधकर संतुलित रुख ही अपनाया है। वहीं विपक्षी दलों की दृष्टि से देखें तो उन्होंने जातीय गणना के आधार पर एक नया विमर्श खड़ा करने में सफलता हासिल की है, जिससे भाजपा कुछ रक्षात्मक नजर आ रही है। असल में पिछले कुछ वर्षों के दौरान भाजपा ने एससी और ओबीसी की छोटी-छोटी जातियों को लामबंद किया है और सरकार की तमाम कल्याणकारी योजनाओं से ये जातियां प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से लाभान्वित भी हुई हैं। इसके साथ ही पिछले कुछ वर्षों के दौरान ओबीसी वर्गों में ही कुर्मियों, निषाद और राजभर आदि जातियों की प्रतिनिधि पार्टियां भी उभरी हैं और बड़े राजनीतिक दलों ने उनके हिसाब से समीकरण बिठाने शुरू भी कर दिए हैं। ऐसे में जातीय गणना के राजनीतिक प्रभावों का कोई स्पष्ट आकलन करना जल्दबाजी होगा।

स्मरण रहे कि भारत ने विकसित राष्ट्र बनने का जो स्वप्न देखा है, वह वंचित वर्गों के सशक्तीकरण के बिना साकार नहीं हो सकता है। जाति अभी भी हमारे सामाजिक-आर्थिक ढांचे की एक अहम कड़ी है। समय के साथ जातियों के तानेबाने भी बदले हैं। उन्हें पर्याप्त रूप से समझे बिना हम उस सामाजिक अनुबंध की आधारशिला रखकर उसे पर्याप्त रूप से सशक्त नहीं बना पाएंगे, जो भारत को विकसित बनाने के लिए आवश्यक है।

(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)