हर्षवर्धन त्रिपाठी। देश की राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में हो रहे नागरिकता संशोधन कानून के विरोध ने सरकार के साथ सुरक्षा एजेंसियों के कान भी खड़े कर रखे हैं। हालांकि यहां धरने पर बैठी महिलाओं को तथाकथित उदारवादियों ने प्राइम टाइम बहस का हिस्सा भी बनाया है। लेकिन पहले यहां के प्रदर्शन में 500 से 700 रुपये देकर प्रतिदिन के लिए प्रदर्शनकारियों को लाने वाला वीडियो आया और उसके बाद एक बेहद खतरनाक वीडियो आया जिसमें एक बच्चे को नागरिकता कानून के जरिये मुसलमानों को कैंपों में ठूंस दिया जाएगा और खाना सिर्फ एक समय खाने को मिलेगा जैसी बातें कहते देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के लिए अपशब्द कहते सुना जा सकता है। इस आंदोलन का चेहरा महिलाओं को बनाया गया है और बुजुर्ग मुस्लिम महिलाओं को टीवी की प्राइम टाइम बहस का हिस्सा बनाने से हुई शुरुआत को छोटे-छोटे प्रदर्शनकारी बच्चों तक पहुंचाया गया। शाहीन बाग से यह आवाज मजबूत करने की कोशिश की जा रही है कि देश में फासीवाद आ गया है।

तथाकथित उदारवादी मुस्लिम महिलाओं को आगे करके इस आंदोलन को देश का रचनात्मक आंदोलन बता रहे हैं, लेकिन इसी रचनात्मकता की आड़ जब खत्म होती है तो इस प्रदर्शन का असली वीभत्स चेहरा सामने आने लगता है। बच्चों के जहरीले वीडियो वायरल हो गए हैं, लेकिन उसकी विश्वसनीयता साबित होने तक उसे छोड़ भी दें तो पाकिस्तान के लाहौर में मोदी और शाह के बीच मतभेद की खबर देकर आए कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर का बयान उदारवादियों का चेहरा बेनकाब कर देता है। दरअसल तथाकथित उदारवादी खेमे की तरफ से राममंदिर बनने और अनुच्छेद 370 हटाने के निर्णय पर ऐसे ही बयान लगातार आ रहे थे और इस भड़काऊ बयानबाजी ने देश के मुसलमानों के दिमाग में जहर भर दिया है।

देश के मुसलमान इतना ज्यादा जहर भरने के बावजूद नागरिकता कानून में बदलाव को स्वीकार करने के लिए मन बना चुका था, क्योंकि इतना तो स्पष्ट है कि रामंदिर निर्माण का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय हो या फिर 370 खत्म करने का केंद्र सरकार का फैसला, दोनों पर ही कोशिश करके भी असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता था। नागरिकता कानून के मामले में भी देश के दोनों सदनों से बाकायदा चर्चा कराकर मतदान कराने के बाद अध्यादेश को मंजूरी मिली और कानून बना। संवैधानिक दायरे में आए निर्णयों की वजह से देश का मुसलमान मन में भले ही दुखी हुआ हो, पर इनमें से किसी फैसले के खिलाफ खड़ा नहीं हुआ।

देश के तथाकथित उदारवादी, प्रगतिशील और जाहिर तौर पर डेढ़ दशक से नरेंद्र मोदी विरोधी और भाजपा विरोधी खेमे को अपनी प्रासंगिकता खत्म होती दिख रही थी। इस खेमे को हमेशा यह गुमान रहा कि भारत में सिर्फ उसी तरह से वैचारिक बहस चल सकती है जैसा उनका खेमा चाहता है। इस कष्टित खेमे ने नई रणनीति निकाली। उसी नई रणनीति के तहत देश के विश्वविद्यालयों के छात्रों को तैयार किया गया। जेएनयू में कब्जा जमाए बैठे वामपंथियों को पूरा भरोसा था कि यहां चल रहे छात्र आंदोलन को देशव्यापी बनाया जा सकेगा। जब उसमें कामयाबी नहीं मिली तो मुस्लिम विश्वविद्यालयों- जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को सरकार के खिलाफ खड़ा किया गया।

यह आसान भी था, मुसलमानों को समझाया गया कि आपके सारे अधिकार छीन लिए जाएंगे। यही कोशिश नदवा कॉलेज लखनऊ में भी की गई थी, लेकिन प्रशासन की चौकसी ने उनकी रणनीति पर पानी फेर दिया। जामिया में यह कोशिश सफल रही और सीएए विरोधी आंदोलन को छात्र आंदोलन में बदला गया। देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में छात्रों के हाथ में विरोधी तख्तियां पकड़ाकर उन्हें सरकार के खिलाफ खड़ा किया गया। परिसरों में ज्यादातर छात्र इस बात के लिए हमेशा तैयार रहते हैं कि सरकारी, पुलिसिया दमन के खिलाफ लड़ना है, इस स्वाभाविक मानसिकता का फायदा उठाकर आंदोलन को छात्र आंदोलन में बदला गया। उधर उत्तर प्रदेश में पीएफआइ और दूसरे कट्टर इस्लामिक संगठनों के साथ हिंसक आंदोलन की रणनीति बनाई गई। काफी हद तक यह रणनीति कामयाब भी रही, लेकिन यूपी में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने वीडियो प्रमाण के आधार पर दंगाइयों पर मामला दर्ज करके उनसे वसूली शुरू की तो खेमे की चुनौती बड़ी हो गई।

अपने विचार के विरुद्ध किसी को भी बर्दाश्त न करने वाले इस खेमे को लग रहा है कि हमने देशव्यापी आंदोलन तैयार कर लिया है। इसमें जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र अपनी उपकुलपति से अभद्रता करने लगे और उनसे सवाल करने लगे कि कक्षाओं में हम तब आएंगे, परीक्षा तब देंगे, जब वह यह बता देंगी कि नागरिकता कानून के विरोध में हैं या नहीं। तथाकथित उदारवादी, प्रगतिशील पूर्णत: फासीवादी खेमे के भरे जहर का प्रभाव है कि जामिया के बच्चे अपने प्रॉक्टर को गालियां देते हैं। जेएनयू के वामपंथी छात्र अपने उपकुलपति के घर को तब घेर लेते हैं जब घर में उपकुलपति नहीं होते हैं, घर में सिर्फ उपकुलपति की पत्नी होती हैं।

वामपंथी और कट्टर इस्लामिक गठजोड़ के जहरीले विचारों का प्रभाव मेरठ में भी दिखा जब अनीस उर्फ खलीफा ने पुलिस पर गोली चला दी और पकड़े जाने पर कहा कि उसके भाई को 1987 के दंगे में पुलिस की गोली लगी थी, उसी का बदला ले रहा था। देश में बरसों से फैलाए जा रहे जहर की साक्षात तस्वीर है शाहीन बाग का आंदोलन। शाहीन बाग से दिल्ली एनसीआर लाखों लोगों का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है, लेकिन मोदी-शाह विरोध में इस आंदोलन की उम्मीद से बैठे लोगों को यह कीमत बहुत छोटी लग रही है। अच्छी बात यह है कि बरसों से निष्पक्ष बुद्धिजीवी का चोला ओढ़े बैठे खेमेबाजों के चेहरे का परदा हट गया है। शाहीन बाग को इसलिए भी ऐतिहासिक माना जाएगा कि देश में जहरीले विचारों के पोषक, जनता के सामने बेनकाब हो गए।

दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में पिछले एक माह से अधिक समय से नागरिकता संशोधन कानून समेत अन्य मामलों पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। कहा जा रहा है कि नागरिकता कानून के विरोध में देश की सबसे बड़ी आवाज शाहीन बाग बन गया है। तथाकथित उदारवादी खेमे की ओर से शाहीन बाग के आंदोलन को देश का सबसे बड़ा आंदोलन बताया जा रहा है, लेकिन यह स्वयं उजागर हो रहा है कि ये तथाकथित उदारवादी इस मामले में किस तरह की राजनीति कर रहे हैं।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैैं )

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