[ प्रकाश सिंह ]: हमारे देश में पुलिसकर्मी अपने कर्तव्य का पालन करते हुए समय-समय पर वीरगति को प्राप्त होते रहते हैं, परंतु जैसी घटना कानपुर में हुई वैसी सामान्यत: हमें कश्मीर, पूर्वोत्तर से या नक्सल प्रभावित इलाकों से ही सुनने को मिलती रही हैं। कानपुर में आठ पुलिस कर्मियों के बलिदान की घटना पूरे देश को झकझोरने वाली है। कानपुर उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा नगर है और यहां न तो जंगल हैं और न ही आतंकवादियों की पैठ। एक कुख्यात अपराधी द्वारा ऐसी घटना को अंजाम देना प्रदेश की शांति व्यवस्था के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। इस भीषण वारदात को लेकर सबसे पहले प्रश्न यह उठता है कि आखिर यह घटना हुई कैसे? आरोपित विकास दुबे कहां है, इसकी पूरी जानकारी थी।

कानपुर का कुख्यात अपराधी को पकड़ने के लिए तीन थानों की पुलिस तैयारी के साथ में नहीं गयी

तीन थानों की पुलिस उसे पकड़ने जाती है, परंतु उसे लेने के देने पड़ जाते हैं। दुर्भाग्य की बात है कि पुलिस दल तैयारी के साथ नहीं गया। कई पुलिसकर्मियों के पास कोई हथियार नहीं था। न तो किसी के पास बुलेटप्रूफ जैकेट थी और न किसी ने हेलमेट पहन रखा था। फील्ड क्राफ्ट्स और रणनीति के जो नियम होते हैं उन सबकी अवहेलना करते हुए दबिश दी गई।

विकास दुबे को पुलिस की गतिविधियों की पूरी जानकारी थी

दूसरी बड़ी विचित्र बात यह कि पुलिस का अभिसूचना तंत्र लगभग शून्य था, जबकि विकास दुबे को पुलिस की गतिविधियों की पूरी जानकारी थी। स्पष्ट है कि किसी ने तो विकास दुबे के लिए मुखबिरी की। ऐसा प्रतीत होता है कि एक पुलिसकर्मी ने ही उसे आगाह किया था। यह और शर्म की बात हो जाती है। इससे तो घर का भेदी लंका ढाए वाली कहावत चरितार्थ होती है। पुलिस बल को अपनी असावधानी और तैयारी से न जाने का खामियाजा भुगतना पड़ा।

पूरे देश में नेता, सरकारी तंत्र और अपराधियों के बीच साठगांठ की बड़ी समस्या

कानपुर की घटना को और गहराई में भी देखने की जरूरत है। दुर्भाग्यवश उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में आज नेता, सरकारी तंत्र और अपराधियों के बीच साठगांठ की बड़ी भयंकर समस्या है। इस समस्या की जानकारी सभी को है, परंतु उस पर प्रहार के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं हो रहे हैं। नतीजा यह है कि विधानमंडलों और संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों की घुसपैठ बढ़ती जा रही है। वर्ष 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉमर्स यानी एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 143 विधायक यानी कुल संख्या के 36 फीसद विधायकों के खिलाफ कोई न कोई मुकदमा दर्ज था। इनमें 107 यानी 26 प्रतिशत ऐसे थे जिनके विरुद्ध हत्या जैसे गंभीर अपराध दर्ज थे। आखिर जब इतनी बड़ी संख्या में आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति हमारी विधानसभा में होंगे तो उनसे किस रामराज्य की आशा की जा सकती है? इनका न केवल अपराधियों से मेलजोल होगा, बल्कि उनके ऊपर इनका वरदहस्त भी होगा। ऐसी स्थिति में कानपुर जैसी घटना का होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। आप बबूल का बीज डालेंगे तो उसमें कांटे ही निकलेंगे, आम खाने को नहीं मिलेंगे।

विकास दुबे को उत्तर प्रदेश की बड़ी राजनीतिक पार्टियों का संरक्षण प्राप्त होता रहा

कहा जाता है कि विकास दुबे को अलग-अलग समय पर प्रदेश की बड़ी राजनीतिक पार्टियों का संरक्षण प्राप्त होता रहा। नि:संदेह नेताओं की जिम्मेदारी तो है ही, जनता को भी अपना चेहरा शीशे में देखना होगा। आखिर उन्हीं के वोट से तो ये लोग चुने जाते हैं और प्रदेश एवं केंद्र में विधानसभा-लोकसभा को सुशोभित करते हैं। अपने देश में नाजायज असलहा की समस्या भी काफी गंभीर है।

भारत में सात करोड़ हथियार हैं, एक करोड़ हथियारों का लाइसेंस है, छह करोड़ अवैध 

एक आंकड़े के अनुसार भारत में कुल सात करोड़ से अधिक हथियार हैं और यह संख्या दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरे पायदान पर मानी जाती है। इसमें केवल एक करोड़ हथियारों का ही लाइसेंस है। शेष छह करोड़ अवैध हैं। उत्तर प्रदेश में इन अवैध हथियारों का अच्छा-खासा जखीरा होगा। ऐसी जानकारी सामने आ रही है कि कानपुर एनकाउंटर में विकास दुबे के गुर्गों के पास अत्याधुनिक हथियार थे। आखिर ये हथियार उसके पास कहां से आए और पुलिस को इसकी जानकारी कैसे नहीं थी और जानकारी थी तो पुलिस ने कार्रवाई क्यों नहीं की? समाचार पत्रों के अनुसार विकास के गैंग ने पुलिस से एक एके-47 राइफल, एक इनसॉस राइफल और दो पिस्तौल भी छीन ली। यह पुलिस के लिए कोई गर्व की बात नहीं है।

दुर्दांत अपराधियों के विरुद्ध प्रभावी कार्रवाई नहीं हो पाती

समय आ गया है कि हम अपनी आपराधिक न्याय प्रणाली पर भी नए सिरे से दृष्टि डालें। सच्चाई यह है कि दुर्दांत अपराधियों के विरुद्ध प्रभावी कार्रवाई नहीं हो पाती। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में 2018 में कुल 4,14,112 व्यक्ति भारतीय दंड संहिता के तहत विभिन्न अपराधों में पकड़े गए। इनमें केवल 1,44,274 व्यक्तियों को ही सजा हो सकी। यानी केवल 34 प्रतिशत को ही सजा हो पाई।

मुकदमों के निस्तारण में बहुत समय लगता है

अदालतों में मुकदमों के लंबा खिंचने की स्थिति भी अत्यंत शोचनीय है। उत्तर प्रदेश में 2018 में विभिन्न न्यायालयों में कुल 10,27,583 मुकदमे विचाराधीन थे। इसमें केवल 65,130 को ही सजा हो पाई और वर्ष के अंत में लंबित मामलों की संख्या का प्रतिशत 90.8 रहा। कहने का तात्पर्य यह है कि मुकदमों के निस्तारण में बहुत समय लगता है और सजा भी कम ही अपराधियों को होती है। विकास दुबे को ही देखा जाए तो 60 आपराधिक घटनाओं में लिप्त होने के बावजूद वह छुट्टा बाहर घूम रहा था। एक मंत्री की हत्या तक में उसे सजा नहीं हो सकी। यह कैसी न्यायिक व्यवस्था है?

समाज, न्याय व्यवस्था, पुलिस सेवा और राजनीति में दीमक लग गया

समग्र स्थिति पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे समाज, हमारी न्याय व्यवस्था, हमारी सिविल एवं पुलिस सेवा और राजनीति सभी में दीमक लग गया है। समाज जातिगत भावनाओं पर अपराधियों को आगे बढ़ाता है। न्याय व्यवस्था आम आदमी को तो दंड दिला देती है, परंतु जो राजनीतिक या र्आिथक दृष्टि से प्रभावशाली है, उनके विरुद्ध निष्प्रभावी रहती है।

आपराधिक प्रवृत्ति के नेता लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करते जा रहे

देश की प्रतिष्ठित सिविल सेवाओं और पुलिस में कानून के प्रति प्रतिबद्धता गिरती जा रही है। अधिकांश अधिकारी अपने हितों की आर्पूित में ही लगे हैं। राजनीति का स्तर और गिरता जा रहा है। देशद्रोह की बात करने में भी लोग अपनी शान समझने लगे हैं। आपराधिक प्रवृत्ति के नेता लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करते जा रहे हैं।

पुलिस सुधार पर केंद्र और राज्य सरकारों के कान पर जूं भी नहीं रेंगती 

पुलिस सुधार की बात की जाए तो केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के कान पर जूं भी नहीं रेंगती। यदि इन हालात में सुधार नहीं लाया गया तो एक दिन देश से लोकतंत्र का जनाजा उठ जाएगा। आवश्यकता है एक क्रांतिकारी परिवर्तन की-सामाजिक क्षेत्र में, आर्थिक ढांचे में, न्याय व्यवस्था में, सिविल सेवा और पुलिस की कार्यप्रणाली में और सबसे अधिक राजनीतिक परिवेश में।

( लेखक उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे हैं )