डा. ऋतु सारस्वत: बीते दिनों खबर आई कि जापान में उत्तराधिकारी के अभाव में 6.30 लाख उद्यमों के बंद होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। ये सभी उद्यम मुनाफे में चल रहे हैं। इनके बंद होने से जापान को भारी आर्थिक क्षति होगी और करीब 65 लाख नौकरियां चली जाएंगी। इन कारोबारियों के समक्ष सबसे बड़ा संकट यही है कि अधिकांश का कोई वारिस नहीं। यह एक गंभीर मुद्दा है। भविष्य में दुनिया के कई देशों में ऐसी ही समस्याएं उत्पन्न होंगी। बस उनके रूप-स्वरूप अलग हो सकते हैं। इन समस्याओं का मूलभूत कारण तेजी से बदलती सामाजिक व्यवस्थाएं होंगी। विश्व आर्थिक मंच की जून 2022 में आई रिपोर्ट बताती है कि बीते 70 वर्षों के दौरान विश्व की प्रजनन दर में 50 प्रतिशत की गिरावट आई है। समय के साथ इससे वृद्ध आबादी में बढ़ोतरी होगी और कामकाजी युवा आबादी घटती जाएगी। वृद्ध आबादी के कई आर्थिक जोखिम होते हैं।

महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ऐसी परिस्थितियां क्यों उत्पन्न हो रही हैं? क्या भविष्य में भारत को भी इससे दो-चार होना पड़ सकता है? वैश्विक रुझानों को देखें तो दक्षिण कोरिया, चीन, अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी में विवाहित जोड़ों की संख्या में निरंतर कमी आ रही है। युवा विवाह नहीं करना चाहते, क्योंकि उन्होंने सुखानुभूति और विशेषकर दैहिक सुख की पूर्ति के मार्ग घर से बाहर ढूंढ़ लिए हैं। सहजीवन (लिव-इन) की ओर बढ़ती भारत की युवा पीढ़ी को भी विवाह बोझ प्रतीत होने लगा है। 2020 में हुए एक सर्वे के अनुसार 26 से 40 वर्ष की आयु के 42 प्रतिशत भारतीय युवा विवाह नहीं करना चाहते।

एस्टेवन आर्टिज ओस्मिना तथा मैक्स रोजर द्वारा विश्लेषित ‘मैरिजेस एंड डाइवोर्सेज’ के आंकड़ों के अनुसार विश्व में विवाह दर निरंतर घटने पर है। सहजीवन के मामले बढ़ रहे हैं। सहजीवन संबंधों में बढ़ोतरी के साक्ष्य ओईसीडी देशों के वे आंकड़े हैं, जो बताते हैं कि पिछली सदी के आठवें दशक में 10 प्रतिशत बच्चे ही ऐसे थे, जो विवाहित संबंधों से बाहर पैदा हुए। वहीं 2014 में अधिकांश देशों में यह बढ़ोतरी 20 प्रतिशत से अधिक हो गई और कुछ देशों में इसमें 50 प्रतिशत से अधिक देखी गई। यह प्रवृत्ति अमीर देशों तक ही सीमित नहीं है। मेक्सिको और कोस्टारिका जैसे देश भी इस श्रेणी में हैं।

स्वतंत्रता और आधुनिकता के नाम पर ‘सहजीवन क्रांति’ ने सामाजिक व्यवस्था को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने के साथ ही युवा पीढ़ी को ऐसे मार्ग पर धकेल दिया है जो समर्पण, त्याग और दायित्व जैसे शब्दों से जीवन भर अपरिचित रहेगी। ‘कोहेबिटेशन एंड चाइल्ड वेलबींग’ शीर्षक से 2018 में प्रकाशित शोध के अनुसार सहजीवन से जन्मी संतानें गरीबी, असंतोष, भय एवं असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहती हैं। सहजीवन को आधुनिक सामाजिक क्रांति का आवरण पहनाकर एक नए यौन अधिनायकवाद की मुहिम विवाह और परिवार के अर्थ को नष्ट कर रही है। 19वीं शताब्दी में समान अधिकारों के लिए महिलाओं की न्यायसंगत लड़ाई एक कट्टरपंथी नारीवाद में बदल गई, जिसका उद्देश्य सामाजिक लैंगिक विभेद को खत्म करने से बढ़कर पुरुष और महिला की यौन पहचान (हेट्रोसेक्सुअल) को तोड़ना था, जो उनकी दृष्टि में पुरातन संस्कृति का प्रतीक है।

स्वतंत्रता के नाम पर स्वतंत्रता को नष्ट करने वाले एक नए अधिनायकवाद के विरुद्ध गैब्रिकल कुबी की पुस्तक ‘द ग्लोबल सेक्सुअल रिवोल्यूशन: डिस्ट्रक्शन आफ फ्रीडम इन द नेम आफ फ्रीडम’ में उन चेहरों को उजागर किया गया है, जो सुनियोजित तरीके से परिवार और विवाह को समाप्त कर यौन साम्यवाद स्थापित करना चाहते हैं। यौन साम्यवाद को मानव प्रजाति की वास्तविक स्वतंत्रता मानने वाले इस तथ्य से परिचित नहीं हैं कि यौन-मुक्ति का रास्ता अंततोगत्वा सभ्यताओं के अंत पर जाकर समाप्त होता है।

मानवविज्ञानी जेडी अनविन की पुस्तक ‘सेक्स एंड कल्चर’ में पांच हजार वर्षों के इतिहास में 80 आदिम जनजातियों और छह सभ्यताओं का गहन अध्ययन है। अनविन ने लोगों की सांस्कृतिक उपलब्धि और यौन संयम के बीच एक सकारात्मक संबंध पाया है। अनविन ने कई विस्तृत विवरणों के साथ यह रेखांकित किया है कि जैसे-जैसे राष्ट्र समृद्ध होते हैं, वैसे-वैसे यौन नैतिकता के संबंध में तेजी से उदार हो जाते हैं। परिणामस्वरूप यौन स्वच्छंदता में लिप्तता जीवन-ऊर्जा को क्षीण करने लगती है। यौन वर्जनाओं और संस्कृति की स्थिति के बीच संबंधों का यह दस्तावेजीकरण बताता है कि जब भी समाज ने यौन अवसरों को कम किया है तो वह खूब फला-फूला है। परिवार से बाहर यौन संबंध बनाने के अवसर और सभ्यता के पतन के बीच अरविन ने शत-प्रतिशत सहसंबंध पाए हैं।

क्या मातृत्व दायित्व और विवाह बंधन से मुक्ति और मुक्त-यौन संबंधों की प्राप्ति ही कट्टर नारीवादियों के अनुरूप लैंगिक समानता स्थापित कर सकती है? क्या वाकई ऐसा है? अगर ऐसा होता तो अमेरिका सहित कई अन्य देशों ने लैंगिक समानता शत-प्रतिशत प्राप्त कर ली होती। नैसर्गिक मानवीय भावनाओं की मुक्ति से, पितृसत्तात्मकता की मुक्ति की प्राप्ति मिथ्या सोच के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। स्त्री शोषण-संघर्ष का आवरण सुनियोजित प्रतीत होता है, क्योंकि प्रजनन प्रौद्योगिकियां तेजी से वर्चस्व बना रही हैं। ‘वर्क, मेट, मैरिज, लव: हाउ मशींस शेप अवर ह्यूमन डेस्टिनी’ किताब की लेखिका देबोराह स्पार कहती हैं कि आधुनिक तकनीक ने बच्चों के पालन-पोषण और परिवार की पारंपरिक संरचना को उखाड़ दिया है, जिसके भविष्य में घातक परिणाम सामने आएंगे। यह एक गंभीर प्रश्न है जिस पर समय रहते विचार नहीं किया गया तो भविष्य में भारतीय समाज के ध्वस्त होने की आशंका बलवती होती जाएगी।

(लेखिका समाजशास्त्र की प्राध्यापिका हैं)