विचार: सुनिश्चित हो संवैधानिक दायित्व की पूर्ति, महत्वपूर्ण याचिकाओं पर निर्णय में इतना विलंब न हो कि सदन का कार्यकाल ही समाप्त हो जाए
बजट और अविश्वास प्रस्ताव जैसे अवसरों पर सदस्यों को दलीय अनुशासन चाहिए। इसके अतिरिक्त उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए। दलबदल के कानूनी प्रविधानों ने सदस्यों की विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित किया है जबकि संविधान सदनों में विचार अभिव्यक्ति की असीम स्वतंत्रता देता है। संसदीय जनतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनिवार्य है।
हृदयनारायण दीक्षित। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने दलबदल की याचिकाओं के निस्तारण पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि विधायी सदनों के अध्यक्षों/सभापतियों के निर्णय में विलंब से चिंताजनक स्थिति निर्मित हुई है। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई के नेतृत्व वाली बेंच ने कहा, ‘हम ऐसी स्थिति की अनुमति नहीं दे सकते जहां आपरेशन सफल हो, लेकिन मरीज ही मर जाए।’ याचिकाओं पर निर्णय में ऐसा विलंब न हो कि सदन का कार्यकाल ही समाप्त हो जाए।
न्यायपीठ ने तेलंगाना विधानसभा में भारत राष्ट्र समिति के 10 विधायकों के दलबदल मामले में सुनवाई के बाद कहा कि संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत दी गई याचिकाओं पर विधानसभा अध्यक्ष तीन महीने के भीतर निर्णय दें। न्यायालय ने पहले भी कहा था कि याचिकाओं के निर्णय में विलंब से 10वीं अनुसूची के उद्देश्य विफल हो सकते हैं। सदन के अध्यक्षों/सभापतियों को ही ऐसी याचिकाओं की सुनवाई का अधिकार है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि उसे सुनवाई की समयसीमा सुनिश्चित करने का अधिकार है। ये बातें मणिपुर विधानसभा सहित कई मामलों में समयसीमा निर्धारित करने की मांग पर कही गई हैं। एक मामले (1992) में सर्वोच्च न्यायापीठ ने कहा था कि आवश्यक कार्यवाही में देरी पर न्यायालय को हस्तक्षेप का अधिकार है। रवि एस. नायक बनाम भारत संघ मामले (1994) में अध्यक्ष की निष्पक्षता पर भी टिप्पणी की गई थी।
निर्वाचित जनप्रतिनिधि ही सरकार में मंत्री और सदन में पीठासीन अधिकारी बनते हैं। राजनीतिक दल उनके निर्वाचन में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। वे चुनाव जीतकर अपने दल के प्रति निष्ठावान रहते हैं, पर तमाम प्रतिनिधि लोभवश दलबदल करते हैं। स्वतंत्रता के कुछ समय बाद ही दलबदल का सिलसिला चल निकला था। 1967 में हरियाणा के एक नेता ने एक दिन में ही तीन बार दलबदल किया था।
कई राज्यों में दलबदलू नेता दल छोड़ते ही मंत्री बने। नैतिक और विधिक दृष्टि से यह अपराध है। मतदाता के प्रति धोखाधड़ी भी है। हमारे यहां राष्ट्र जीवन के सभी क्षेत्रों में उन्नति हुई है, लेकिन हम संवैधानिक नैतिकता वाले राजनीतिक दल नहीं बना पाए। राजनीतिक दल भी अपने सदस्यों में निष्ठा नहीं ला पाते, कुछ दलबदल कराते हैं और कुछ दलबदल करते हैं। ऐसे दल राष्ट्र हितैषी नहीं हो सकते।
कहा जाता है कि राजीव गांधी ने भयवश 52वां संविधान संशोधन पारित करवाया था। तब स्वेच्छा से दल त्याग दंडनीय माना गया, पर एक तिहाई सदस्यों के दल त्याग को विलय कहा गया था। एक तिहाई सदस्य जुटाना मुश्किल नहीं था। कुछ राज्यों में इक्का-दुक्का सदस्य आते रहे और एक तिहाई होते गए। दलबदल के तमाम तरीके ईजाद होते रहे। 1991 में संविधान संशोधन द्वारा एक तिहाई की जगह दो तिहाई सदस्यों का प्रविधान किया गया। इसका भी बहुत लाभ नहीं हुआ। सदस्यता छीन लेने जैसे सख्त कानून के बावजूद दलबदल जारी है।
एक कारण पीठसीनों की ढिलाई भी है। इसलिए हाल के तेलंगाना मामले सहित कई अवसरों पर पीठासीन अधिकारियों पर टिप्पणियां हुई हैं। आरोप लगते रहे हैं कि वे जानबूझकर पक्षपात करते हैं। यचिकाएं ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। चुनाव आयोग ने सुझाव दिया था कि इस गंभीर विषय पर विमर्श के लिए एक आयोग बने।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है कि निष्पक्षता के लिए न्यायपालिका के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में न्यायाधिकरण का गठन किया जाना चाहिए। सदनों के सभापति/अध्यक्ष सम्माननीय संवैधानिक संस्था हैं। 10वीं अनुसूची में संविधान ने इन्हें उत्तरदायी माना है। इन संस्थाओं को अपने संवैधानिक कर्तव्य का सही पालन करना चाहिए, मगर दल त्यागने का रोग इतने भर से दूर नहीं होगा। माननीय विशेष अवसरों के लिए दल त्याग करेंगे। कुछ दंडित होंगे, होते भी हैं और शेष तकनीकी कारणों से बच निकलेंगे। इसलिए इस मुद्दे पर व्यापक विमर्श हो।
जहां स्वेच्छा से दल त्याग दंडनीय है, वहीं किसी व्यक्ति या समूह द्वारा दल त्याग की घोषणा सुविचारित भी हो सकती है। पार्टी का नेतृत्व विचारधारा बदल सकता है। विचारनिष्ठ सदस्यों के लिए यह अस्वीकार्य हो जाता है। वे सदन में अपने नेताओं के विरुद्ध भी बोलते हैं। संविधान में विचार अभिव्यक्ति मौलिक अधिकार है। दलीय अनुशासन का डंडा सदस्यों को अखरता है। दलबदल रोकने से राजनीतिक स्थिरता तो रहती है, किंतु निर्वाचित सदस्यों को विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से वंचित भी नहीं किया जा सकता।
बजट और अविश्वास प्रस्ताव जैसे अवसरों पर सदस्यों को दलीय अनुशासन चाहिए। इसके अतिरिक्त उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए। दलबदल के कानूनी प्रविधानों ने सदस्यों की विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित किया है, जबकि संविधान सदनों में विचार अभिव्यक्ति की असीम स्वतंत्रता देता है। संसदीय जनतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनिवार्य है। इसके बावजूद दलबदल के विरुद्ध अभियान चलाते रहना चाहिए। समाज इसकी निंदा करे। राज्य दंड दे।
आखिर ब्रिटिश संसद ने भारत जैसा दलबदल कानून क्यों नहीं बनाया? ब्रिटेन का दल तंत्र ऐसी समस्याएं स्वयं सुलझा लेता है। ब्रिटेन जैसी संसदीय प्रणाली अपना कर भी, दलबदल कानून के बावजूद भारत क्यों इस समस्या से ग्रस्त बना हुआ है। ब्रिटेन में पार्टी बदलने पर कोई कार्रवाई नहीं होती। अमेरिका में भी दलबदल कानून नहीं है। अमेरिका में दो दल हैं। दलबदल भी होते हैं। एक समय डेमोक्रेटिक पार्टी के 16 प्रतिनिधि रिपब्लिकन पार्टी में शामिल हो गए थे।
पार्टी का अनुशासन अमेरिका में ऐसी समस्याएं सुलझा लेता है। यूरोप के अधिकांश देशों में सख्त कानून है। दल त्याग पर संसद की सदस्यता समाप्त हो जाती है। पड़ोसी बांग्लादेश में भी पार्टी के विरुद्ध सदन में मतदान करने और पार्टी बदलने पर त्यागपत्र लिया जाता है। केन्या, दक्षिण अफ्रीका आदि में दलबदल की छूट नहीं है। भारत का मन बदल रहा है। सारी दुनिया आश्चर्यचकित है। संपूर्ण राजनीतिक दल तंत्र और विधायिका के सभी सदस्यों को संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन के लिए संवेदनशील होना चाहिए। न्यायपीठ का निर्णय स्वागतयोग्य है। इससे विधायिका और न्यायपालिका की गरिमा बढ़ेगी।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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