संघ की शक्ति का रहस्य: डॉ. हेडगेवार वैचारिक आंदोलन और संघ का अपरिवर्तनीय पथ
डा. हेडगेवार की प्रसिद्धी नागपुर तक सीमीत थी। संसाधन से वे शून्य थे। डा. हेडगेवार ने असमान्य कार्य कर दिखाया। दुनिया में इतिहास रचने वाले ऐसे ही लोग होते हैं। एक सामान्य शिक्षक ने यूरोप के इसाईयत के प्रभावी पाखंड को 1517 में अपने नाइन्टीफाइव थेसीस के द्वारा चुनौती दी और बदलाव का कारण बना। वे थे मार्टिन लूथर।
राकेश सिन्हा। इतिहास में बदलाव सत्ता, विचार, समाज या व्यवस्था बदलाव से कही बड़ा होता है। बाकी सभी परिवर्तन इतिहास में खींची गई रेखा के प्रभाव में स्वतः हो जाते हैं। संघ ने इसी को अपना लक्ष्य माना है। अतः इसका कार्य कभी खत्म नहीं होता है, न यह अपने ही कार्यों से संतुष्ट होता है। संघ का सौंवा वर्ष कुछ ऐसी ही तस्वीर लेकर उपस्थित है।
दूसरों की नजर में संघ बड़े परिवर्तन का कारण है। इसमें सत्ता परिवर्तन, हिंदुत्व की विचार धारा को उपेक्षित स्थान से विमर्श के केंद्र में ले आना और संस्कृति के राष्ट्रीय जीवन में महत्व को पुनर्जीवित करना आदि प्रमुख हैं। पर संघ इससे आगे की चुनौतियों को देख रहा है। उक्त परिवर्तन इसके विस्तार और इसके द्वारा सौ वर्ष से किया जा रहा वैचारिक साक्षरता का स्वाभाविक परिणाम है। वैचारिक साक्षरता का तात्पर्य लोगों को अपनी संस्कृति, विरासत, समरसता और राष्ट्रवाद का बोध कराना। यह आसान कार्य नहीं है। भाषणों या पुस्तकों से संभव नही होता है। इसके लिए निरंतर सूक्ष्म स्तरों पर संवाद की आवश्यकता होती है।
इसने उस विचार को विस्थापित कर दिया जिसके पास अनंत पुस्तकीय सृजन और लोकप्रिय विचारक थे। उस विचार पर औपनिवेशिक, नेहरूवादी और मार्क्सवादी तीनों का प्रभाव था और यूरोप केंद्रित बौद्धिकता से प्रमाणित होता था। पर मौलिकता में स्थापित विचारों, परंपराओं, व्यवस्थाओं को झकझोर देने की अपूर्व क्षमता होती है। वैचारिक साक्षरता में भारत की वास्तविकता, विरासत और विचार तीनों था।
हिंदुत्व, साम्यवाद, समाजवाद, गांधीवाद, जैसे विचारों से जुड़े प्रभावी संगठनों और देश-विदेश में प्रसिद्धी संपन्न नेताओं, यथा महात्मा गांधी, डा. बाबा साहेब अम्बेडकर, विनायक दामोदर सावरकर, मानवेन्द्र नाथ राय, जवाहरलाल नेहरू आदि के बावजूद डा. हेडगेवार का संघ क्यों बढ़ता गया?
डा. हेडगेवार की प्रसिद्धी नागपुर तक सीमीत थी। संसाधन से वे शून्य थे। डा. हेडगेवार ने असमान्य कार्य कर दिखाया। दुनिया में इतिहास रचने वाले ऐसे ही लोग होते हैं। एक सामान्य शिक्षक ने यूरोप के इसाईयत के प्रभावी पाखंड को 1517 में अपने 'नाइन्टीफाइव थेसीस' के द्वारा चुनौती दी और बदलाव का कारण बना। वे थे मार्टिन लूथर।
डा. हेडगेवार एक मानक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में थे। 1916 में कांग्रेस द्वारा प्रकाशित होने वाली संकल्प पत्रिका का ग्राहक बनाने का कार्य उन्हें सौंपा गया। वे गांव-गांव गए। इसी बीच तब कांग्रेस के प्रांतीय नेता डा. बालकृष्ण मूंजे को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था, ‘लोग सार्वजनिक कार्य स्वयं नही दूसरों से करवाने की मंशा रखते हैं।’
आद्य शंकराचार्य की जयंती में मई 1936 को नासिक के शंकराचार्य डा. कुर्तकोटी ने डा. हेडगेवार को उनकी अनुपस्थिति में उन्हें ‘राष्ट्र सेनापति' को उपाधी दी। लोग खुश थे पर डा. हेडगेवार की प्रतिक्रिया एकदम भिन्न थी। उन्होने लिखा, ‘डा. कुर्तकोटी के द्वारा दी गई उपाधी हमलोगों के लिए असंगत है। कोई भी इसका प्रचार या उपयोग नहीं करे।’
डा. हेडगेवार ने सार्वजनिक जीवन और संगठनों में ‘लोक नैतिकता’ की कमी महसूस की और इसे ही उन्होने संघ का मेरुदंड बना दिया। लोक नैतिकता का अर्थ समाज के मानक के अनुकूल आचरण होता है। इस आचरण में गिरावट ही किसी संगठन के क्षरण का कारण बन जाता है। डा. हेडगेवार उसी पात्रता जो जीवनपर्यंत बनाते रहे।
श्री राम गोस्वामी एक प्रसिद्ध विचारक और शिक्षाविद थे। वे संघ के विचार को बखूबी से रखते थे। नवंबर 1935 में डा. हेडगेवार को पत्र लिखकर अपने द्वारा संघ पर दिए गए भाषणों के संकलन की प्रस्तावना लिखने का अनुरोध किया। डा. हेडगेवार ने उसे अस्वीकार करते हुए लिखा था कि ‘संगठन शास्त्र में आत्म स्तुति, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा का कोई स्थान नहीं है। व्यक्तित्व के टट्टू को जबदस्ती आगे बढ़ाने से संगठन खड़ा नहीं हो सकेगा।’ प्रसिद्ध लेखक दामोदर पंत द्वारा उनका जीवन चरित्र लिखने का अनुरोध आया जिसे उन्होंने यह कहकर मना कर दिया, ‘मेरे जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है कि जीवन चरित्र लिखा जाए। ऐसा नहीं कर आप मेरा सहयोग करेंगें।’
साधारणतया सार्वजनिक संगठनों में लक्ष्य से अधिक महत्वपूर्ण उसको अंजाम देने वाले लोग हो जाते हैं पर उस संस्कृति को संघ ने प्रवेश करने नहीं दिया। भारत के लोकमानस को सतत आदर्श आचरण सभी युगों में आकर्षित करता रहा है। इसीलिए बड़े, व्यापक और प्रसिद्ध नेताओं वाले संगठनों के बीच संघ तेजी से फलने फूलने लगा।
डा. हेडगेवार ने वैचारिक आंदोलन की नई संस्कृति को गढ़ने का काम किया। संगठनात्मक अहंकार त्यागकर ही विचारों को साझा किया जा सकता है। डा. हेडगेवार मजदूर नेता रुईकर से लेकर सावरकर तक समानधर्मिता खोजते थे। संघ ने समानधर्मिता की खोज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में आंच आने नहीं दी। तभी तो डा. मोहन भागवत सरलता से सीमित प्रभाव वाले विविध विचारों के लोगों से बेहिचक मिलते हैं।
विचार साझेदारी की संघ परंपरा भारतीय मनोविज्ञान के अनुकूल है। यह अतिरेक को स्वीकार नहीं करता है। न ही बंद दरवाजे को उचित मानता है। परस्पर संवाद, सहयोग और सीखने की प्रवृति इस मनोविज्ञान का हिस्सा रहा है। दूसरे संगठनों के लिए मतभिन्नता अपाच्य है। कांग्रेस ने अपने भीतर कांग्रेस शोसलिस्ट को बर्दाश्त नहीं किया, सोशलिस्ट धारा में जार्ज फर्नांडिस मधुलिमये को नहीं पचे तो कम्युनिस्ट पार्टियों में वैचारिक प्रश्नों पर अर्थहीन बिखराव होता रहा। हिंदू महासभा में पद की प्रतिस्पर्धा लगातार चलती रही। लेकिन वैकल्पिक विचार संस्कृति का प्रतीक बन गया। लोग समानधर्मिता को संघ के आईने में देखने लगे। उसका एक अच्छा उदाहरण के.एम.मुंशी के निजी जीवन से जुड़े पत्रों में मिलता है।
उनके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को देखकर राज किशोर मेदिरत्ता ने 6 सितम्बर 1941 को उन्हें पत्र लिखकर कहा, ‘राष्ट्र एवं संस्कृति की रक्षा करने के लिए हिंदुओं को आप जैसे नेता की जरूरत है। आप संघ को अवश्य जानते होंगे क्योंकि आपने एक भाषण में इसका उल्लेख किया था। क्या मैं सलाह दे सकता हूं कि आप संघ में शामिल हो जाएं?’ इस पर मुंशी ने 13 सितम्बर 1941 को जवाब दिया, ‘मैं संघ के नेताओं को अच्छी तरह से जानता हूं परंतु मैं संघ में शामिल नहीं हुआ हूं।’
इसलिए जो बात पुणे से प्रकाशित मराठा अखवार ने 28 जून 1940 को डा. हेडगेवार के निधन के बाद लिखी थी वह आज भी उतनी ही उपयुक्त है।
डा. हेडगेवार के तौर-तरीके ने इस धारणा को धाराशयी कर दिया कि किसी चीज को हासिल करने के लिए बड़े-बड़े दावों और सुंदर सजावटी मुहावरों से बनाया गया महत्वाकांक्षी प्रस्ताव जरूरी होता है। ...आलोचकों और सिद्धांतकारों द्वारा इस बात पर बहस होती रही है कि हिंदू राष्ट्र वैज्ञानिक और उचित है या नहीं, उधर देशभर में हिंदू राष्ट्र के संकल्प और आदर्श की प्रतिज्ञा लेने वाले एक लाख अनुशासित और प्रशिक्षित युवक तैयार हो गए।’ डा. हेडगेवार की लोकनैतिकता और विचारों की साझेदारी ही संघ का अपरिवर्तनीय पथ है।
(लेखक राज्य सभा के पूर्व सदस्य हैं)
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