प्रकाश सिंह। इन दिनों सुप्रीम कोर्ट में पुलिस हिरासत में मौतों के कुछ मामलों की सुनवाई चल रही है। ये मामले मध्य प्रदेश और राजस्थान के हैं। यह अच्छा है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों का संज्ञान लिया, लेकिन और भी अच्छा होता कि वह पुलिस सुधार संबंधी 2006 के अपने आदेश के अनुपालन की वस्तुस्थिति भी देखे। 1996 में इन पंक्तियों के लेखक ने एक जनहित याचिका द्वारा पुलिस में सुधारों की मांग की।

इसका संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल की बहस के बाद 22 सितंबर, 2006 में तीन संस्थागत परिवर्तन के निर्देश दिए थे। एक, हर राज्य में एक स्टेट सिक्योरिटी कमीशन का गठन हो, जिसका मुख्य उद्देश्य पुलिस को बाहरी दबाव से मुक्त करना हो। दो, एक पुलिस एस्टेब्लिशमेंट बोर्ड बने और इसके अंतर्गत पुलिस अधिकारियों को पोस्टिंग और ट्रांसफर के मामले में अधिकार हो, एक कंप्लेंट अथारिटी की स्थापना की जाए, जो पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध गंभीर शिकायतों की जांच करे एवं महानिदेशक के चयन के लिए ऐसी प्रक्रिया बनाई जाए, जिससे केवल श्रेष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति उच्चतम पद पर हो सके और उनका कार्यकाल कम से कम दो वर्ष का हो। तीन, इन्वेस्टिगेशन और कानून एवं व्यवस्था के कार्य को बड़े शहरों में अलग-अलग किया जाए।

इस फैसले के बाद ऐसी आशा थी कि पुलिस विभाग को एक नई दिशा मिलेगी, पुलिस कर्मी देश के संविधान और कानून के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझेंगे, जनता के प्रति उनका व्यवहार संवेदनशील हो जाएगा, शांति व्यवस्था में सुधार होगा, परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। पुलिस सुधार पर सुप्रीम कोर्ट को अपना फैसला दिए 20 साल हो गए। उसके निर्देशों के अनुपालन में कुछ राज्यों में आदेश निर्गत किए गए और कुछ में एक नया अधिनियम बना दिया गया, परंतु बारीकी से देखा जाए तो पता चलता है कि उक्त आदेश और अधिनियम सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन करते हैं। नतीजा यह है कि जमीनी स्तर पर हालात जस के तस हैं और कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है।

वास्तव में राज्य सरकारों को लगा कि यदि सुप्रीम कोर्ट के आदेश सही ढंग से लागू किए गए तो पुलिस उनके नियंत्रण से बाहर चली जाएगी और वे उसका जैसा उपयोग-दुरुपयोग करती हैं, वैसा नहीं कर पाएंगी। फलस्वरूप नेताओं और नौकरशाहों ने मन बना लिया कि वे इस आदेश का दिखावे के लिए तो पालन कर लेंगे, पर वास्तव में कोई परिवर्तन नहीं होगा और व्यवस्था जस की तस चलती रहेगी। जब देश आजाद हुआ था तो लोगों ने सोचा था कि पुलिस की मानसिकता और काम करने के तौर-तरीके में बदलाव आएगा।

स्वतंत्रता के बाद पुलिस अधिकारियों की जो पौध आई, उसमें एक जज्बा और देशसेवा की भावना थी। इसलिए कुछ वर्षों तक तो पुलिस की गाड़ी ठीक चलती रही, परंतु जैसे-जैसे समय बीतता गया, पुलिस और नेताओं के बीच साठगांठ बढ़ती गई और दोनों एक-दूसरे के फायदे के लिए काम करने लगे। इसका वीभत्स स्वरूप हमें 1975 में इमरजेंसी के दौरान दिखा, जब पुलिस ने बहुत से ऐसे काम किए, जो उसे नहीं करने चाहिए थे। नेताओं के कहने पर फर्जी रिपोर्ट लिखी गईं, लोगों को अकारण गिरफ्तार किया गया और तरह-तरह के अत्याचार हुए। बाद में शाह कमीशन द्वारा इनकी जांच हुई।

कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि अगर ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकनी है तो हमें पुलिस को बाहरी दबाव से मुक्त करना पड़ेगा। इसी बीच 1977 में नेशनल पुलिस कमीशन का गठन हो गया। कमीशन ने एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की, जिसमें पुलिस की कार्यप्रणाली का गहन परीक्षण किया गया और विस्तृत सुझाव दिए गए। कमीशन की रिपोर्ट जब तक आई, तब तक इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आ गईं और चूंकि यह रिपोर्ट उनके शासन के कार्यों के आधार पर बनी थी, इसलिए उसे दरकिनार कर दिया गया।

2008 में सुप्रीम कोर्ट ने थामस कमेटी का गठन किया था, यह देखने के लिए कि 2006 के उसके आदेश का किस हद तक पालन हुआ है। कमेटी ने पाया कि सभी राज्यों में इस आदेश के पालन में उदासीनता है। पुलिस सुधार की गाड़ी लड़खड़ाती हुई चल रही है। अपेक्षाएं बहुत थीं, पर परिवर्तन नाम मात्र के हुए। सवाल यह है कि भविष्य में क्या रणनीति अपनाई जाए। मेरे विचार से तीन काम करने की जरूरत है। एक तो यह कि पुलिस अधिकारी ऐसे आंतरिक सुधारों पर ध्यान दें, जिनके लिए सरकार से न तो स्वीकृति चाहिए और न ही धनराशि का आवंटन।

इससे जनता में पुलिस के प्रति विश्वास बढ़ेगा। जब कोई आदमी अस्पताल जाता है तो उसे यह विश्वास होता है कि वहां के इलाज से उसे कुछ न कुछ फायदा होगा। इसी तरह हर व्यक्ति जो थाने जाता है, उसे यह विश्वास होना चाहिए कि यहां मेरे कष्ट का निवारण होगा। इसके लिए पुलिस को अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना पड़ेगा। रिपोर्ट लिखने में जो कोताही होती है, उसे खत्म करना पड़ेगा। दूसरा काम पुलिस के इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार का हो। जनशक्ति में जो कमी है, उसकी पूर्ति की जाए।

वाहनों की संख्या बढ़ाई जाए, संचार व्यवस्था को और आधुनिक किया जाए। फोरेंसिक लैबोरेट्रीज की संख्या में वृद्धि हो, पुलिसकर्मियों की आवासीय सुविधा बेहतर हो। इससे पुलिस की कार्यक्रमता और मनोबल, दोनों बढ़ेंगे। तीसरा काम तकनीक के अधिकतम प्रयोग का होना चाहिए। सीसीटीएनएस चल पड़ा है, इससे पुलिस के काम में बहुत सुधार हुआ है। नेटग्रिड भी काम करने लगा है। साइबर क्राइम से निपटने के लिए हमें बेहतर प्रशिक्षित स्टाफ तैयार करना पड़ेगा। साइबर अपराध पुलिस के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का भी जहां प्रयोग हो सके, किया जाए। जैसे-जैसे तकनीक का प्रयोग बढ़ेगा, पुलिस की कार्यक्षमता में वृद्धि होगी।

पुलिस सुधार की जरूरत पर जितना भी लिखा जाए, कम होगा। लोकतांत्रिक ढांचे को स्वस्थ रखने के लिए पुलिस में परिवर्तन अनिवार्य है। आर्थिक प्रगति के लिए अच्छी पुलिस व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है। प्रधानमंत्री बार-बार विकसित भारत की बात करते हैं, पर विकसित भारत के लिए पुलिस को भी तो विकसित होना पड़ेगा। यह विकास पुलिस में संस्थागत परिवर्तन के बिना नहीं हो पाएगा। आज की शासकीय पुलिस को हमें जनता की पुलिस के रूप में परिवर्तित करना पड़ेगा।

(लेखक उत्तर प्रदेश पुलिस एवं सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक हैं)