राजीव सचान। जिहादी डाक्टरों के फरीदाबाद आतंकी माड्यूल का भंडाफोड़ हो जाने के बाद भी जिस तरह वह कई लोगों की जान लेने में समर्थ रहा, उसके बाद इस पर बहस होना स्वाभाविक है कि पुलिस और खुफिया एजेंसियों से कहां क्या चूक हुई? इस चूक के चलते दिल्ली में लाल किले के निकट कार धमाके में 15 लोग मारे गए और श्रीनगर के एक थाने में नौ लोग। दोनों जगह उसी विस्फोटक ने अलग-अलग कारणों से कहर ढाया, जिसे इस आतंकी माड्यूल ने फरीदाबाद में जमा किया था।

यह आतंकी माड्यूल और अधिक कहर बरपा सकता था, यदि श्रीनगर पुलिस ने शहर में जैश-ए-मोहम्मद के समर्थकों की ओर से लगाए पोस्टरों को गंभीरता से नहीं लिया होता। इन पोस्टरों के जरिये कश्मीर के लोगों को सुरक्षा एजेंसियों की मदद करने के खिलाफ चेतावनी दी गई थी। कश्मीर में ऐसे पोस्टर लगना आम बात रही है, लेकिन श्रीनगर के नौगाम थाने की पुलिस ने उन्हें गंभीरता से लिया। पहले उसकी पकड़ में आतंकियों के समर्थक कुछ पत्थरबाज आए। उनके जरिये पुलिस जिहाद का पाठ पढ़ा रहे एक मौलवी तक पहुंची। उससे पूछताछ के बाद ही फरीदाबाद के आतंकी माड्यूल का भंडाफोड़ हुआ। इस माड्यूल के आतंकियों के पास से विस्फोटक और घातक हथियार बरामद किए गए।

यदि श्रीनगर पुलिस ने अपने इलाके में लगे पोस्टरों को गंभीरता से नहीं लिया होता तो संभवतः जिहादी डाक्टर अपनी उस साजिश को भी अंजाम देने में सफल हो गए होते, जिसके तहत एक साथ कई ठिकानों पर बड़े पैमाने पर हमले किए जाने थे। उनके इरादे कितने खूंखार थे, इसका पता लाल किले के निकट कार में धमाका करने वाले मजहबी उन्माद से भरे आतंकी उमर के उस वीडियो से मिलता है, जिसमें वह आत्मघाती हमलों को जायज ठहराते सुना जा सकता है। लाल किला आतंकी हमला एक बार फिर यह बता रहा है कि ऐसे हमले तब संभव हो पाते हैं, जब आतंकियों को स्थानीय स्तर पर शरण और समर्थन मिलता है। इसका उदाहरण पहलगाम का आतंकी हमला भी था। यहां पाकिस्तान से आए आतंकी कहर बरपाने में इसलिए सफल रहे थे, क्योंकि उन्हें कुछ स्थानीय लोगों ने शरण दी थी।

अब इसमें कोई संदेह नहीं कि डाक्टर आतंकियों को फरीदाबाद में एक मौलवी और अन्य अनेक की ओर से जो संरक्षण और सहयोग मिला, उसी कारण वे घातक विस्फोटक जमा करने में समर्थ रहे। यदि फरीदाबाद की अल फलाह यूनिवर्सिटी जिहादी तत्वों की शरणगाह के रूप में देखी जा रही है तो इसके लिए वह अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकती। इस यूनिवर्सिटी के जो डाक्टर आतंकी निकले, उनमें से दो पहले जहां कार्यरत थे, वहां से बर्खास्त किए जा चुके थे। एक तो आतंकवाद को खुला समर्थन देने के गंभीर आरोप में और दूसरी लंबे समय तक बिना बताए अनुपस्थित रहने के कारण। यह अल फलाह यूनिवर्सिटी ही बता सकती है कि उसने ऐसे संदिग्ध अतीत वाले डाक्टरों को अपने यहां नियुक्ति क्यों दी? यदि डाक्टर आतंकी बन जाएं और वे आसानी से एक यूनिवर्सिटी को अपना अड्डा बना लें तो इसका मतलब है कि जिहादी आतंक को खाद-पानी देने वाले तंत्र ने अपनी जड़ें बहुत गहरे तक जमा ली हैं।

अल फलाह यूनिवर्सिटी के संदेह से घिरने के बाद यह भी पता चल रहा है कि उसके संस्थापक वाइस-चांसलर का भी आपराधिक रिकार्ड रहा है और वह धोखाधड़ी में तीन साल जेल में गुजार चुका है। इस यूनिवर्सिटी में कश्मीरी डाक्टरों की बड़ी संख्या में नियुक्ति भी सवाल खड़े करती है। आखिर यह कोई नामी यूनिवर्सिटी नहीं। यह नहीं कहा जा सकता कि कश्मीरी डाक्टरों को अन्य कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी, इसलिए अल फलाह की ओर रुख करना उनकी मजबूरी बन गई थी। बहुत संभव है कि अल फलाह जिहादी इरादों वाले डाक्टरों की पसंदीदा यूनिवर्सिटी इसलिए बन गई हो, क्योंकि यहां उन्हें अपनी गतिविधियां चलाना आसान दिखा हो।

इस यूनिवर्सिटी के इरादों के प्रति संदेह का एक आधार उसकी ओर से यह फर्जी दावा करना भी है कि उसे राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद यानी नैक की मान्यता प्राप्त है। साफ है कि अल फलाह यूनिवर्सिटी का संचालन तय नियम-कानूनों के अनुरूप हो, इसकी निगरानी ढंग से नहीं हो रही थी। अब यदि निगरानी के अभाव में उच्च शिक्षा संस्थान आतंकियों के ठिकाने बन जाएंगे तो फिर यह समझ लिया जाना चाहिए कि जिहादी आतंक के खिलाफ लड़ाई और कठिन होने वाली है। यह लड़ाई पहले से ही इसलिए कठिन दिखने लगी है, क्योंकि डाक्टरों के एक समूह ने जिहादी बनना पसंद किया। क्या आतंक की राह पर चलने को तैयार डाक्टरों या ऐसे ही अन्य उच्च शिक्षित युवाओं को डी-रेडिकलाइज करना संभव है?

फरीदाबाद आतंकी माड्यूल में दो मौलवी भी शामिल पाए गए हैं। यदि दीन-ईमान की शिक्षा देने वाले ही जिहादी आतंक का पाठ पढ़ाने लगें तो फिर आतंकवाद के खिलाफ लड़ी जाने वाली कठिनाई को और अच्छे से समझा जा सकता है। यह लड़ाई इसलिए और कठिन होने वाली है, क्योंकि ऐसे स्वर भी उभर रहे हैं कि डाक्टर इसलिए आतंकी बन गए, क्योंकि मुसलमानों के साथ सही व्यवहार नहीं किया जा रहा है। ऐसा स्वर एक-दुक्का नेताओं का ही नहीं। एक लंबे समय से कई नेताओं का यही स्वर है। ऐसे स्वर आतंक की राह पर चलने वालों को खुद को सही साबित ठहराने का ही मौका देते हैं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)