विचार: आतंकवाद नहीं, जिहादी हिंसा... राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग को तथ्य-आधारित समझ की आवश्यकता
लेख में जिहादी हिंसा और आतंकवाद के वैचारिक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। यह बताता है कि कैसे राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग जिहाद के खतरे को कम आंकते हैं। लेखक के अनुसार, जिहाद का मुकाबला केवल सैन्य शक्ति से नहीं, बल्कि वैचारिक और शैक्षिक प्रयासों से किया जा सकता है। इस्लामी दावों का खंडन करके और सही जानकारी फैलाकर ही जिहाद को हराया जा सकता है।
HighLights
जिहादी हिंसा: एक वैचारिक युद्ध
राजनीतिक वर्ग की अज्ञानता
शैक्षिक प्रयासों से मुकाबला संभव
शंकर शरण। कई दशकों से जिहादी हिंसा पर इस कहावत के उलट काम किया जा रहा है कि जहां काम आवे सुई, कहां करे तलवार। जो काम सुई का है, वैचारिक-शैक्षिक संघर्ष का है, उसे तलवार, सैन्य-प्रहार आदि से हराने की कोशिश हो रही है। लोकतांत्रिक विश्व आत्म-प्रवंचना में है। लिहाजा आतंक बरपाने वाले नए-नए दस्ते, संगठन, सरगना इसलिए आते रहते हैं, क्योंकि उन्हें मौत का, तलवार का भय ही नहीं है। केवल तलवार उन पर निष्फल भी रहती है। जिसे आतंकवाद कहा जाता है, उसे आतंकी खुद जिहाद कहते हैं और अपने को मुजाहिदीन। भारत में एक संगठन का नाम ही इंडियन मुजाहिदीन था।
इसने लखनऊ, वाराणसी, जयपुर, दिल्ली, मुंबई आदि शहरों पर अनेक बम-विस्फोट किए, जिनमें सैकड़ों नागरिक मारे गए। जिहाद की संज्ञा भारत में सैकड़ों वर्षों से बार-बार गूंजती रही है। गजनवी से लेकर बाबर जैसे बड़े-बड़े हमलावरों, सुल्तानों, बादशाहों तथा मौदूदी, इकबाल जैसे बड़े-बड़े आलिमों के मुंह और कलम से। फिर भी हमारा राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग जिहाद पर चुप रहता है। वह उससे मुकाबला कैसे कर सकता है, जिससे आंख मिलाकर देखने में भी उसे संकोच है?
यदि मुजाहिदीनों द्वारा की गई हिंसा और आतंक का मुकाबला करना है तो वास्तव में जिहाद का सामना करना होगा। उसे उग्रवाद, आतंकवाद, विकृति आदि नाम देना झूठे उपायों की ओर ले जाता है। इसे अफगानिस्तान-पाकिस्तान में अमेरिकी विफलता में बड़े पैमाने पर देख सकते हैं। एक संगठन के बाद, दूसरे पैदा हो जाते हैं। एक सरगना के बाद दूसरा आ जाता है। एक भारतीय इमाम ने कहा था, एक ओसामा मरेगा, तो सौ पैदा होंगे। जिस विश्वास से उन्होंने ऐसा कहा था, उस पर विचार और चोट करनी चाहिए तब समाधान मिलेगा। जिहाद से अनजान लोग ही जिहादियों का सबसे बड़ा कवच हैं।
जिहाद का सिद्धांत मानवता को दो हिस्से में बांटकर देखता है-इस्लाम मानने वाले और नहीं मानने वाले। इसी से इस सिद्धांत की दोहरी नैतिकता बनती है। मुस्लिम के साथ एक व्यवहार और काफिरों के साथ दूसरा। इसी से ‘दारुल-इस्लाम’ (जहां मुसलमानों का शासन हो) और ‘दारुल-हरब’ (जहां काफिरों का शासन हो) की धारणा है। इसी कारण यहूदियों से कहा गया था कि सारी दुनिया केवल मुसलमानों के लिए है और वे जान बचाने को इस्लाम कबूल करें। यही दावा राजनीतिक इस्लाम है और इसे लागू करने की गतिविधि जिहाद है।
इतिहास को झुठलाने की मांग करने से लेकर सब पर शरीयत लादने, हलाल थोपने तक उसके असंख्य शांतिपूर्ण रूप हैं। जिहाद सर्वमुखी युद्ध है। सहीह बुखारी में जिहाद संबंधी दो प्रतिशत हदीस कुछ कामों को जिहाद के बराबर बताते हैं, किंतु बाकी 98 प्रतिशत हदीस हथियारबंद हिंसा से संबंधित हैं। हथियारबंद जिहाद ने ही राजनीतिक इस्लाम को सारी सफलता दी है। भारत के विगत हजार वर्ष में इसे असंख्य बार होता देख सकते हैं। मोहम्मद बिन कासिम के सिंध पर हमले से लेकर मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन, पाकिस्तान बनने और कश्मीर से हिंदुओं के सफाए तक यदि कोई शब्द और कर्म समान मिलता है तो वह है जिहाद और हिंसा।
जिहाद में एक पूरी मानसिकता और जीवनशैली है। जिहाद के बारे में प्रामाणिक जानना चाहिए। विशेषकर उन्हें, जिनके विरुद्ध जिहाद का स्थाई आह्वान है और जो इसे सदियों से झेल रहे हैं। बाबर ने भी जिहाद ही लड़ा था। ‘बाबरनामा’ में भारत पर हमले को जिहाद कहा गया है। बाबर ने खुद को फख्र से ‘गाजी’ यानी जिहाद लड़ने वाला कहा था। बाबर से लेकर इंडियन मुजाहिदीन तक उन्हीं स्रोतों को अपना मार्गदर्शक मानते हैं, जो मूल इस्लामिक स्रोत हैं। उनके सभी विश्वास, प्रेरणाएं, आदर्श इन्हीं से निःसृत होते हैं। इसीलिए राजनीतिक इस्लाम का रिश्ता बाकी दुनिया से जिहाद या अस्थाई शांति का है। उसके सिद्धांत में कोई तीसरी स्थिति नहीं बताई गई है।
जिहादियों को आतंकवादी कहना अपने को भरमाना है। हमारे राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग को तथ्य-आधारित समझ की आवश्यकता है। तब साफ दिखेगा कि जिहाद का सिद्धांत किन-किन बिंदुओं पर कमजोर है, वहीं पर उसे चुनौती देकर हराया जा सकता है। जिहाद को हराना मुख्यतः विचार एवं शिक्षा का क्षेत्र है। इस्लामी दावों, सिद्धांतों का खुला, वैज्ञानिक परीक्षण करके खंडन करना तथा सारी बातें शिक्षा और मीडिया के माध्यम से घर-घर पहुंचाना। इसके प्रति काफिरों की गफलत में ही जिहादी आतंक रूपी तोते की जान छिपी है। राजनीतिक इस्लाम के प्रति सबका भ्रमित रहना ही जिहाद की ताकत है।
इसे इस्लामी नेता बखूबी जानते हैं। इसीलिए अमेरिकी मिसाइलों से ज्यादा तसलीमा नसरीन जैसी लेखिकाओं से डरते हैं। वे काफिरों को भ्रमित रखने के लिए दोहरी नैतिकता के अपने सिद्धांत का प्रयोग करते हैं। उन्हें इस्लामी दावों का झूठा, मीठा अर्थ बताते रहते हैं, जो मुसलमानों को बताए गए अर्थ से भिन्न होता है। इस छल के लिए भी उनके पास एक शब्द है, ‘तकिया’। सहीह बुखारी में कहा गया है, ‘‘जिहाद छल है (4:52:268)’’-जिहाद इज डिसीट।
मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन ने पूरी दुनिया में मिथ्या-प्रचार का व्यवस्थित वैचारिक तंत्र चला रखा है। जिसमें वे काफिर, जिहाद, दारुल-हरब, जिम्मी, हलाल, शरीयत आदि के बारे में झूठे तर्क फैलाते हैं, ताकि गैर-मुस्लिम सरकारें, बुद्धिजीवी, मीडिया आदि अनजान रहें, बल्कि इस्लामियों का बचाव भी करें। जब भी कोई सच बात रखी जाती है तो इस्लामी नेता नाराजगी दिखाते हैं। उसे इस्लाम को बदनाम करना कहकर, धमकी देकर बंद करवाया जाता है, जबकि ठीक वही बात सारे मुजाहिदीन ठसक से कहते हैं।
रिलीजन इस्लाम का बहुत छोटा अंश है, उससे काफिरों को कोई फर्क नहीं पड़ता। इस्लामी मतवाद का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा राजनीतिक है, जिससे काफिर गाफिल रहते हैं। फलतः जिहाद की मानसिकता अबाधित रहती है। उसे हराना ही असली कर्तव्य है। वह मुख्यतः शैक्षिक कार्य है। इसीलिए जिहादी आतंक से लड़ाई मुख्यतः तलवार की नहीं, सुई की है।
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)













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