जसप्रीत बिंद्रा। हाल में आए एक आंकड़े से पता चला कि चीन अमेरिका की तुलना में 2.5 गुना ज्यादा बिजली उत्पन्न करता है और उसका लक्ष्य हर साल “एक जर्मनी” के बराबर बिजली उत्पादन जोड़ने का है। एलन मस्क का भी कहना है कि अगले तीन-चार वर्षों में चीन में सौर ऊर्जा का उत्पादन अमेरिका के सभी स्रोतों से संयुक्त रूप से अधिक होगा। वास्तव में भविष्य को आकार देने वाली तकनीक के युग में चार तकनीकें तय करेंगी कि कौन आगे रहेगा- ऊर्जा, गतिशीलता (मोबिलिटी), एआइ और युद्ध की रणनीति (वारफेयर)।

वर्ष 2010 से अब तक चीन का बिजली उत्पादन दोगुने से भी ज्यादा बढ़कर 10,000 टेरावाट-घंटा हो गया है, जबकि अमेरिका पिछले एक दशक से 4,000 टेरावाट-घंटा पर ठहरा हुआ है। असल बात यह है कि चीन सिर्फ बिजली की दौड़ नहीं जीत रहा, बल्कि वह यह स्वच्छ ऊर्जा के साथ कर रहा है। सिर्फ 2025 की पहली छमाही में चीन ने 212 गीगावाट सौर ऊर्जा जोड़ी, जो अमेरिका की कुल स्थापित क्षमता से भी अधिक है।

2024 में चीन ने 14.4 गीगावाट हाइड्रोपावर जोड़ी, जो कई देशों के कुल उत्पादन से अधिक है और 58.7 गीगावाट पंप्ड-स्टोरेज हाइड्रो तक पहुंच गया है एवं 200 गीगावाट से अधिक निर्माणाधीन है। वह परमाणु ऊर्जा में भी सक्रिय है, जहां 30 रिएक्टर निर्माणाधीन हैं। कम वाणिज्यिक बिजली दरों और विशाल विनिर्माण की बदौलत बैटरी क्षेत्र में चीन ने फिर से ग्लोबल सप्लाई-चेन रैंकिंग में पहला स्थान हासिल किया है। सौर विनिर्माण की हर अवस्था में चीन की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत से अधिक है। ऊर्जा वह कच्चा माल है, जो बाकी सभी मूलभूत तकनीक को चलाएगा। चीन इसमें में काफी आगे निकल चुका है और उन कीमतों पर, जिनसे कोई मुकाबला नहीं कर सकता।

गतिशीलता में भी चीन आगे है। उसने इलेक्ट्रिक वाहनों पर वर्चस्व स्थापित कर लिया है। 2024 में चीन ने वैश्विक इलेक्ट्रिक कार बिक्री का लगभग दो-तिहाई हिस्सा अपने नाम किया। घरेलू बाजार में हर महीने बेची जाने वाली आधी कारें इलेक्ट्रिक हैं और दुनिया के शीर्ष 10 इलेक्ट्रिक वाहन के ब्रांडों में से छह अब चीनी हैं। चीन के वाहन अब उभरते बाजारों पर कब्जा कर रहे हैं। चीन में 100 से अधिक कंपनियां इलेक्ट्रिक वाहन बनाती हैं। एआइ के नए माडल बनाने में अब भी अमेरिका आगे है, लेकिन जब एआइ का फोकस “नवाचार” से “विस्तार” पर शिफ्ट हो रहा है, तो असली जीत सिर्फ माडल की बेंचमार्क से नहीं, बल्कि कंप्यूटर के लिए ऊर्जा, डाटा की उपलब्धता, नियामक गति और एप्लीकेशन अपनाने की दर से तय होगी।

अमेरिका के लिए आज की सबसे बड़ी बाधा है ऊर्जा। जहां अमेरिका ऊर्जा स्वतंत्रता हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहा है, चीन ने उस समस्या को पहले ही हल कर लिया है। स्वतंत्र आकलनों के अनुसार, 2030 तक चीन के डाटा सेंटर 400–600 टेरावाट-घंटा बिजली खपत करेंगे, जो तेजी से स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों से आएगी। अमेरिका का लक्ष्य 425 टेरावाट-घंटा डाटा सेंटर क्षमता स्थापित करने का है, लेकिन उसे यह भी नहीं पता कि ऊर्जा कहां से आएगी। इसके अलावा, चीन एआइ पर आधारित रिसर्च पेपर और पेटेंट में अग्रणी है, जिसमें जेनरेटिव एआइ से जुड़े आवेदन भी शामिल हैं।

चीन एआइ के अगले बड़े चरण रोबोटिक्स में भी व्यापक बढ़त बनाए हुए है। 2023 तक चीन के पास दुनिया के कुल औद्योगिक रोबोट्स का 51 प्रतिशत हिस्सा था और वह हर साल लगभग 2.8 लाख नए रोबोट इंस्टाल कर रहा है। इसका लाभ उसे निर्यात प्रतिस्पर्धा, मजदूरी गतिशीलता और रक्षा औद्योगिक क्षमता में वृद्धि के रूप में मिलेगा। जल्द ही एआइ एक साफ्टवेयर इंटरफेस वाला ऊर्जा व्यवसाय बन जाएगा।

सच्चाई यह है कि जहां अमेरिका बेहतर माडल बनाने का जश्न मना रहा है, वहीं चीन ने यह सुलझा लिया है कि उन्हें वास्तव में चलाएगा कौन।
पिछले कुछ वर्षों में युद्ध का स्वरूप भी बदल गया है। अब युद्ध सस्ते ड्रोन और घूमने वाले गोला-बारूद से लड़े जा रहे हैं, न कि महंगे टैंकों और विमानों से। ड्रोन निर्माण में चीन का वर्चस्व है। उसकी कंपनी डीडेआइ के पास वैश्विक ड्रोन बाजार का 70 प्रतिशत हिस्सा है। इसके मैविक ड्रोन के माडल 300 से 5,000 डालर के बीच आते हैं।

ड्रोन विशेषज्ञ बाबी सकाकी के अनुसार, “डीडेआइ हर साल लाखों ड्रोन बना सकता है, जो अमेरिका की तुलना में सौ गुना अधिक है।” अमेरिका सबसे उन्नत युद्ध ड्रोन बनाता है, लेकिन उनकी कीमत 6 से 13 मिलियन डालर तक होती है। युद्ध के सिद्धांत अब सस्ते ड्रोन, मानव रहित विमान की ओर बढ़ रहे हैं, जिसमें चीन उत्कृष्ट है। इसी बीच अमेरिका के एफ-35 कार्यक्रम की कुल लागत 1.58 ट्रिलियन डालर तक पहुंच गई है, जिससे भविष्य के रक्षा निवेशों के लिए जगह घट गई है।

वैश्विक स्तर पर बन रही इस स्थिति में प्रासंगिक बने रहने के लिए भारत को अपनी विकास रणनीति को तीन बातों पर केंद्रित करना चाहिए- बड़े पैमाने पर ऊर्जा उत्पादन, अपने घरेलू बाजार से परे निर्यात बाजार की खोज और अग्रणी तकनीक तक पहुंच। इन तीनों में चीन का वर्चस्व है। भारत की “मल्टी-अलाइनमेंट” रणनीति समझदारी भरी है, लेकिन अब गणित कहता है कि थोड़ा झुकाव जरूरी है। जहां चीन के साथ गठबंधन भारत के हित में हो, वहां वह साझेदारी करे और बाकी मुद्दों को अलग रखे। इसका अर्थ चीन के अधीन होना नहीं है, बल्कि उन विशिष्ट मुद्दों पर सहयोग है, जो भारत की राष्ट्रीय क्षमताओं को मजबूत करें।
(लेखक एआइ एंड बियांड के संस्थापक हैं)