राजीव सचान। बिल्डरों की ओर से अपने घर का सपना देखने वालों को ठगने के मामले किसी से छिपे नहीं। माना जाता था कि समय के साथ इस तरह के मामलों पर विराम लगेगा और फ्लैट खरीदारों को छलने-ठगने का सिलसिला बंद होगा, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। हाल में हजारों लोग ऐसे सामने आए, जो अपनी गाढ़ी कमाई के साथ अपना सुख-चैन भी खो रहे हैं और जिनका अपने घर का सपना भी पूरा नहीं हो पा रहा है।

इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि अपने घर का सपना संजोने वालों को ठगने में बिल्डरों के साथ बैंक भी शामिल पाए गए। दोनों ने लोगों को सबवेंशन स्कीम के तहत ठगा। इस स्कीम के तहत लोग दस या बीस प्रतिशत राशि देकर किसी बिल्डर/डेवलपर की परियोजना में अपना फ्लैट बुक कराते थे। शेष पैसा बैंक सबवेंशन स्कीम के तहत सीधे बिल्डर को दे देते थे। वे फ्लैट तैयार कर ग्राहकों को सौंपने तक खुद बैंकों को किस्त चुकाने का वादा करते थे। हजारों लोगों ने इस आकर्षक स्कीम के तहत अपने फ्लैट बुक कराए। यह सिलसिला 2010-11 से शुरू हुआ।

सबवेंशन स्कीम के नाम पर हो रहे घोटाले का पता तब चला, जब कुछ ऐसे पीड़ित लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिन्हें उन किस्तों को चुकाने के लिए कहा जा रहा था, जिन्हें बिल्डर को देना था। बिल्डरों ने केवल किस्त चुकानी ही बंद ही नहीं की थी, बल्कि फ्लैट निर्माण भी रोक दिए थे। उन्होंने बैंक से मिला पैसा कहीं और खपा दिया था। कुछ बिल्डर तो ‘डिफाल्टर’ हो गए थे।

इसके बाद बैंकों ने बिल्डरों की गर्दन दबोचने के बजाय फ्लैट खरीदारों को पकड़ा और उन्हें उस लोन की शेष किस्तें चुकाने को विवश करने लगे, जो वस्तुतः बिल्डरों को दिया गया था। बैंकों को इस तर्क से कोई मतलब नहीं था कि फ्लैट खरीदार फ्लैट हासिल किए बिना किस्त क्यों चुकाएं? चूंकि भुक्तभोगी लोगों ने सबवेंशन स्कीम के तहत किस्त चुकाने को लेकर बैंकों और बिल्डरों से त्रिपक्षीय समझौता कर रखा था, इसलिए वे फंस गए।

इसलिए और भी, क्योंकि बैंकों ने इससे पल्ला झाड़ लिया कि बिल्डर फ्लैट बना भी रहे हैं या नहीं? यह अंधेरगर्दी तब हुई, जब रिजर्व बैंक ने बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को यह एडवाइजरी जारी कर रखी थी कि वे बिल्डरों को उनकी परियोजनाओं के लिए चरणबद्ध तरीके से पैसा दें, यानी उनकी आवासीय परियोजना जैसे-जैसे आगे बढ़े, वैसे-वैसे वे उन्हें पैसा दें। उन्होंने ऐसा करना जरूरी नहीं समझा। इसलिए नहीं समझा, क्योंकि ठगी के इस खेल में वे भी बिल्डरों का साथ दे रहे थे।

यदि बैंक अतिरिक्त सतर्कता न भी बरतते, केवल रिजर्व बैंक की एडवाइजरी का ही पालन करते और इसकी चिंता करते कि उनका अपना पैसा डूबने न पाए तो हजारों लोगों को ठगे जाने से रोका जा सकता था। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि बैंकों ने बिल्डरों के साथ मिलकर लोगों को ठगा। वस्तुतः यह ठगी नहीं लूट है। इससे अधिक शर्म की बात और कोई नहीं कि कई सरकारी बैंक भी इस तरह की खुली लूट में शामिल पाए गए।

वास्तव में इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ को बिल्डरों के साथ बैंकों-वित्तीय संस्थानों के खिलाफ भी मामले दर्ज करने का आदेश दिया। अप्रैल में सामने आए इस मामले में जुलाई में 22 मामले दर्ज किए गए। पहले केवल दिल्ली, एनसीआर के ही बिल्डर इस ठगी में लिप्त पाए गए थे, पर बीते सप्ताह सीबीआइ जांच में पता चला कि मुंबई, बेंगलुरु, कोलकाता, मोहाली और प्रयागराज में भी बैंकों और बिल्डरों ने घर खरीदारों को धोखा दिया है। इसलिए छह और मामले दर्ज किए गए। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के कोर्ट मित्र का कहना है कि सुपरटेक लिमिटेड फ्लैट खरीदारों को धोखा देने में ‘मुख्य अपराधी’ है। सुपरटेक की कई परियोजनाओं में लोगों के फ्लैट फंसे हैं।

सबवेंशन स्कीम के तहत लोगों को ठगने के मामले 2010 से लेकर 2018 तक की परियोजनाओं के हैं। इसका मतलब केवल यही नहीं कि 2017 में रेरा के गठन के बाद भी बैंक-बिल्डर मिलकर लोगों को ठगते रहे, बल्कि यह भी है कि इस नियामक संस्था ने भी फ्लैट खरीदारों के हितों की परवाह नहीं की। इस संस्था का गठन तो फ्लैट खरीदारों के हितों के लिए किया गया था।

वह भी धोखेबाज बिल्डरों के हित की चिंता करती दिखी। यह कहीं ज्यादा शर्म की बात है, क्योंकि यह बाड़ खेत को खाए वाला मामला है। यह समझ आता है कि लोग बिल्डरों पर सहज ही भरोसा न करें, लेकिन क्या अब वे बैंकों और रेरा जैसी संस्था से भी कोई उम्मीद न रखें? उनकी संदिग्ध कार्यप्रणाली तो इसी ओर संकेत करती है।

पता नहीं सबवेंशन स्कीम के तहत बैंकों के कितने हजार करोड़ रुपये फंसे हैं और कितने हजार लोग ऐसे हैं, जिन्हें फ्लैट भी नहीं मिला और वह लोन भी उनके गले पड़ गया, जिसे बिल्डर डकार गए। यदि इस मामले की जांच और सुनवाई वर्षों तक होती रही और बैंक एवं बिल्डरों को कठघरे में नहीं खड़ा किया गया तो यह हजारों फ्लैट खरीदारों के साथ अन्याय होगा।

इस अन्याय का प्रतिकार केवल यही नहीं होगा कि लोगों को लूटने वाले बैंक अफसरों और बिल्डरों को दंड का भागीदार बनाया जाए, बल्कि फ्लैट खरीदारों को राहत दी जाए। उन्हें उन अनिर्मित या अर्धनिर्मित फ्लैटों का लोन चुकाने को बाध्य नहीं किया जाना चाहिए, जो उन्हें मिले ही नहीं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)