उमेश चतुर्वेदी। बिहार में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं, लेकिन राष्ट्रीय जनता दल (राजद) इन दिनों पारिवारिक संकट से गुजर रहा है। पार्टी के संस्थापक लालू प्रसाद यादव स्वास्थ्य कारणों से पहले की तरह सक्रिय नहीं हैं। भारतीय परंपरा में पिता का उत्तराधिकारी बड़ा बेटा होता है, लेकिन राजद में लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप की जगह छोटे बेटे तेजस्वी यादव स्वीकार्य हो चुके हैं। इसके बावजूद इन दिनों पार्टी में खींचतान बढ़ी है। तेजप्रताप यादव राजद से निकाले जा चुके हैं। इसके जवाब में उन्होंने जनशक्ति जनता दल के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली है।

उनकी बहन रोहिणी आचार्य कभी तेजप्रताप का साथ देती नजर आ रही हैं तो कभी परोक्ष रूप से तेजस्वी पर हमला करती दिख रही हैं। राजद में सत्ता की लड़ाई की वजह हरियाणा मूल के संजय यादव को माना जा रहा है, जो इन दिनों तेजस्वी के नजदीकी और पार्टी के राज्यसभा सदस्य हैं। वैसे बीते लोकसभा चुनाव में पारिवारिक हिस्सेदारों को खुश करने की कोशिश पार्टी में खूब दिखी। रोहिणी आचार्य को सारण लोकसभा सीट और मीसा भारती को पाटलिपुत्र से टिकट मिला था। तेजस्वी और तेजप्रताप विधानसभा के सदस्य पहले से ही हैं। लालू यादव की सबसे बड़ी बेटी मीसा चुनाव जीतने में कामयाब रहीं तो रोहिणी को हार का सामना करना पड़ा। मीसा बेशक इन दिनों चुप हैं, लेकिन उनकी नाराजगी भी सतह पर आती रही है।

परिवार केंद्रित पार्टियों में ऐसा संकट सामने आता रहता है। पारिवारिक पार्टियां दिखावे के लिए भले ही संसदीय राजनीतिक परंपराओं और मर्यादाओं की रस्में पूरी करती रहती हैं, लेकिन हकीकत में वे प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह चलाई जाती हैं। राजद की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। वैसे राजद अकेला ऐसा दल नहीं है।

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस, कर्नाटक में जनता दल-एस, तमिलनाडु में डीएमके, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल, पंजाब में शिरोमणि अकाली दल भी एक तरह से पारिवारिक पार्टियां ही हैं। जहां लोकतांत्रिक परंपरा और चुनाव कानूनों को निभाने की रस्में भर पूरी की जाती हैं, लेकिन सत्ता का असल केंद्र एक परिवार ही होता है। जब उन पारिवारिक पार्टियों का संस्थापक कमजोर पड़ने लगता है, तब उनमें संपत्ति, सत्ता और उत्तराधिकार की जंग छिड़ जाती है। राजद में जो हो रहा है, वह इसी का एक रूप है।

राजद की तरह पारिवारिक विवाद तो तेलंगाना की सत्ता पर दस साल तक काबिज रही भारत राष्ट्र समिति में भी शुरू हो चुका है। पार्टी के संस्थापक के. चंद्रशेखर राव की बेटी के. कविता को पार्टी से निलंबित कर दिया गया है। उनकी अपने ही भाई और चंद्रशेखर राव के उत्तराधिकारी माने जा रहे केटी रामराव से तालमेल नहीं बैठ रहा।

तेलंगाना से सटे आंध्र प्रदेश की सत्ता पर दस साल काबिज रह चुके वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख जगन मोहन रेड्डी के खिलाफ उनकी बहन वाईएस शर्मिला ने मोर्चा खोल रखा है। वाईएसआर कांग्रेस में पारिवारिक विवाद की वजह भी पारिवारिक संपत्ति और सत्ता में हिस्सेदारी है। पड़ोसी तमिलनाडु के प्रथम राजनीतिक परिवार में भी सत्ता और संपत्ति को लेकर विवाद अब भी जारी है। के. करुणानिधि ने छोटे बेटे एमके स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी बनाकर स्थापित कर दिया।

हालांकि उनके दूसरे बेटे एमके अलागिरी को स्टालिन की सरपरस्ती स्वीकार्य नहीं थी। इसलिए परिवार में सत्ता के उत्तराधिकार की लड़ाई जारी रही। करुणानिधि के भतीजे मुरासोली मारन के बेटे कलानिधि मारन और दयानिधि मारन के बीच संपत्ति का विवाद हाल में राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बना था। हरियाणा का चौटाला परिवार तो राजनीतिक उत्तराधिकार की लड़ाई में खंड-खंड हो चुका है। कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में भी संपत्ति और उत्तराधिकार की जंग ऐसे ही छिड़ी थी।

सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के स्वाभाविक उत्तराधिकारी शिवपाल यादव माने जाते रहे, लेकिन 2012 में सत्ता मुलायम के बेटे अखिलेश यादव को मिली। तब से शुरू हुई उत्तराधिकार की जंग सत्ता के आखिरी दिनों में खूब चली। जंग तभी थमी, जब शिवपाल ने भतीजे की सरपरस्ती स्वीकार कर ली। उत्तर प्रदेश की ही एक और पार्टी अपना दल में पारिवारिक जंग अब भी जारी है। महाराष्ट्र में शिवसेना के संस्थापक बाला साहब ठाकरे के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के तौर पर राज ठाकरे उभरे, लेकिन उत्तराधिकार सौंपने की जब बारी आई तो बाला साहब ने बेटे उद्धव ठाकरे पर भरोसा किया, तब शिवसेना में उत्तराधिकार की जंग का गवाह महाराष्ट्र बना था।

दरअसल पारिवारिक पार्टियों में उत्तराधिकार की लड़ाई तब छिड़ती है, जब पार्टी का संस्थापक कमजोर हो जाता है और सत्ता उसके हाथ से फिसल चुकी होती है। वोटर भले ही अपने पारिवारिक स्तर पर भारतीय परंपरा को निभाता हो, लेकिन वह उसे ही राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार करता है, जिसे राजनीतिक परिवार का मुखिया अपना उत्तराधिकारी घोषित करता है। स्टालिन और अखिलेश यादव इसके उदाहरण हैं। अब देखना यह है कि बिहार की जनता इसी रवायत पर कायम रहती है या कुछ नया फैसला लेती है। वैसे तेजप्रताप और रोहिणी के बागी होने का राजद के चुनावी नतीजों पर असर पड़ने की आशंका बढ़ गई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)