संघ के 100 साल: गुमनाम नायक; स्वाधीनता और विभाजन के दौर में संघ स्वयंसेवक
भारत के विभाजन के विकट दिनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक गुमनाम नायक बने। लाखों हिंदू और सिखों की सुरक्षा राहत शिविरों का संचालन और आतंक व भय के बावजूद अदम्य साहस दिखाकर उन्होंने देशभक्ति और मानवता का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत किया। संघ का यह योगदान न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण था बल्कि समाज में अनुशासन नैतिकता और सेवा की प्रेरणा भी बन गया...
अरुण आनंद, वरिष्ठ पत्रकार। भारत की स्वाधीनता के साथ ही देश का विभाजन दो राष्ट्रों- भारत और पाकिस्तान में हो गया। इस विभाजन के परिणामस्वरूप अभूतपूर्व रक्तपात हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने विभाजन के दौरान लाखों हिंदुओं और सिखों को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आरएसएस के स्वयंसेवकों ने तमाम विपरीत परिस्थितियों में अदम्य साहस का परिचय दिया।
संघ के द्वितीय सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर, जिन्हें गुरुजी के नाम से भी जाना जाता है, उन उथल-पुथल भरे दिनों में संगठन का नेतृत्व कर रहे थे। गुरुजी, बाबासाहेब आप्टे, जो पहले आरएसएस प्रचारक (पूर्णकालिक कार्यकर्ता) थे और बालासाहेब देवरस, जो 1973 में तीसरे सरसंघचालक बने, ने विभाजन से पहले के महीनों में देश का व्यापक दौरा किया क्योंकि उन्हें जमीनी स्तर पर हालात का अंदाजा था।
विभाजन से पहले सैकड़ों युवा और मध्यम आयु वर्ग के लोग आरएसएस में शामिल हुए। आरएसएस का विस्तार विशेष रूप से विभाजन-पूर्व पंजाब के शहरों और गांवों में तेजी से हुआ, जैसे रावलपिंडी, लाहौर, पेशावर, अमृतसर, जालंधर और अंबाला आदि।
उस समय सिंध प्रांत में लगभग 80 दैनिक शाखाएं थीं। लाल कृष्ण आडवाणी सहित 52 प्रचारक थे। आडवाणी ने आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व किया और भारत के उप-प्रधानमंत्री भी बने।
आरएसएस ने पंजाब राहत समिति और हिंदू सहायता समिति की स्थापना की थी। प्रारंभ में, ये दोनों संगठन पंजाब प्रांत संघचालक रायबहादुर बद्रीदास के नेतृत्व में संचालित होते थे। इन दोनों समितियों के कोषाध्यक्ष डॉ. गोकुलचंद नारंग थे।
अविभाजित पंजाब में आरएसएस की 1,500 से अधिक दैनिक शाखाएं थीं जिनमें प्रतिदिन एक लाख से अधिक स्वयंसेवक उपस्थित होते थे। इस विस्तार में 1940 में पंजाब में प्रांत प्रचारक बनकर आए माधवराव मुले ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद में नागपुर से पंजाब भेजे गए तीन प्रचारकों ने संघ कार्य को पंजाब में विस्तार दिया जिसका परिणाम हमें विभाजन के दौरान संघ की भूमिका के माध्यम से मिला। ये तीन प्रचारक थे के.डी. जोशी, दिगंबर पातुरकर और मोरेश्वर मुंजे।
माणिकचंद्र वाजपेयी और श्रीधर पराड़कर ने अपनी मौलिक कृति 'ज्योति जला निज प्राण की' में विभाजन के दौरान संघ की गतिविधियों का विवरण दिया है।
उन्होंने लिखा है, ‘ऐसे विकट समय में आरएसएस के स्वयंसेवक आगे आए। अपने परिवारों की परवाह किए बिना उन्होंने अपने साथी हिंदुओं की रक्षा के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। पंजाब राहत समिति की स्थापना की गई। कई जगहों पर राहत शिविर खोले गए। आस-पास के गांवों के असुरक्षित हिंदुओं को इन शिविरों में लाया गया और वहां से भारतीय सेना की मदद से भारत ले जाया गया। उन्होंने इसे अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझा। उन्होंने लाखों विस्थापित देशवासियों को महीनों तक भोजन और आश्रय भी प्रदान किया।’
संविधान सभा के सदस्य, भारतीय विद्या भवन के संस्थापक, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के पुरोधा के.एम. मुंशी ने अक्टूबर 1949 में एक प्रेस वक्तव्य जारी किया, जिसे जालंधर से प्रकाशित साप्ताहिक आकाशवाणी पत्रिका ने प्रकाशित किया था (पृष्ठ 6-7)। मुंशी ने कहा कि आरएसएस के स्वयंसेवकों ने पंजाब और सिंध में अद्वितीय वीरता दिखाई। उन्होंने अत्याचारी मुसलमानों से युद्ध किया और हजारों महिलाओं और बच्चों की इज्जत और जान बचाई। मुंशी ने कहा कि इनमें से कई युवाओं ने इस कार्य को करते हुए अपने प्राणों की आहुति दी।
संघ और स्वतंत्रता संग्राम
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का एक प्रमुख उद्देश्य देश की स्वतंत्रता प्राप्ति था और संघ के स्वयंसेवकों ने न केवल इसमें भाग लिया, बल्कि इसके लिए अपने प्राणों की आहुति भी दी। जब कांग्रेस ने 1929 में अपने लाहौर अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज’ की घोषणा की, तो संघ ने अपनी सभी शाखाओं में इसका आधिकारिक रूप से स्वागत किया।
जब 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू हुआ, तो संघ के स्वयंसेवकों ने संघ के द्वितीय सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर के मार्गदर्शन और नेतृत्व में इसमें भाग लिया।
सिंध के सक्खर कस्बे के आरएसएस स्वयंसेवक हेमू कलानी की वीरगाथा भी अज्ञात है। स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिए ब्रिटिश सैनिकों की आवाजाही को रोकने की क्रांतिकारियों की योजना के तहत, कलानी को रेल की पटरियों से फिशप्लेट हटाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। हेमू को 1943 में सेना अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी।
सोलापुर के कांग्रेस कमेटी सदस्य गणेश बापूजी शिंकर ने 1948 में संघ पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिए सत्याग्रह में भाग लिया था। (महात्मा गांधी की हत्या के बाद नेहरू सरकार ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था।)। सत्याग्रह में शामिल होने से पहले उन्होंने लोकतांत्रिक नैतिकता के आधार पर कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने अपना रुख स्पष्ट करते हुए एक बयान जारी किया, वे कहते हैं, ‘मैंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। उस समय पूंजीपति और जमींदार सरकार से भयभीत थे। इसलिए हमें उनके घरों में सुरक्षित आश्रय नहीं मिला। हमें संघ (आरएसएस) कार्यकर्ताओं के घरों में रहकर भूमिगत काम करना पड़ा। संघ के लोग हमारे भूमिगत काम में खुशी-खुशी हमारी मदद करते थे। वे हमारी सभी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखते थे। इतना ही नहीं, अगर हममें से कोई बीमार पड़ता, तो संघ के स्वयंसेवक डाक्टर हमारा इलाज करते थे। संघ के स्वयंसेवक, जो वकील थे, निडरता से हमारे मुकदमे लड़ते थे। उनकी देशभक्ति और मूल्य-आधारित जीवनशैली निर्विवाद थी।’
दिल्ली के संघचालक (आरएसएस की दिल्ली इकाई के प्रमुख) लाला हंसराज के घर का इस्तेमाल प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी अरुणा आसफ अली ने भूमिगत रहने के लिए किया था। अगस्त 1967 में हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया, ‘मैं 1942 के आंदोलन में भूमिगत थी; दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज ने मुझे 10-15 दिनों के लिए अपने घर में शरण दी और मेरी पूरी सुरक्षा का प्रबंध किया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि किसी को भी मेरे उनके घर पर रहने की जानकारी न मिले।’
अंग्रेज सरकार संघ जैसे देशभक्त संगठन के विस्तार से लगातार परेशान थी। 1940 से 1947 के दौरान, गुप्तचर विभाग लगातार आरएसएस के विस्तार और गोलवलकर द्वारा देश भर में लोगों में देशभक्ति की अलख जगाने के तरीकों के बारे में रिपोर्ट भेजता रही। 30 दिसंबर, 1943 की एक रिपोर्ट में कहा गया है, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक अत्यंत महत्वपूर्ण अखिल भारतीय संगठन के निर्माण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। संघ के प्रवक्ता कहते रहे हैं कि संघ का मूल लक्ष्य हिंदू एकता हासिल करना है... नवंबर 1943 में लाहौर में एक कार्यक्रम में, एम.एस. गोलवलकर ने घोषणा की कि संघ का उद्देश्य अस्पृश्यता की भावना को दूर करना और हिंदू समाज के सभी वर्गों को एक सूत्र में पिरोना है।... पर वास्तव में वह हर गांव मे अपनी पैठ बना रहे हैं। इतनी तेजी से संघ का विस्तार चिंता का विषय है।’
(लेखक अरुण आनंद, वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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