विचार: सुधार की मांग करती प्रवेश प्रक्रिया, कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट की समीक्षा की जानी चाहिए
दिल्ली केवल राजनीति और सत्ता का केंद्र नहीं है बल्कि शिक्षा एवं संस्कृति का भी उभरता केंद्र है। इसलिए दाखिले की प्रक्रिया से लेकर शिक्षा पाठ्यक्रम तक सभी पहलुओं पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। अन्यथा यह उक्ति चरितार्थ होगी कि भारतीय विश्वविद्यालय तो बस तीन काम करते हैं- एडमिशन इलेक्शन और एग्जामिनेशन! हमें शिक्षा नीति में इन पहलुओं पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।
प्रेमपाल शर्मा। दिल्ली विश्वविद्यालय के 30 प्रमुख कालेजों में ग्रेजुएशन की करीब नौ हजार सीटें अभी खाली हैं। जहां नियमित पढ़ाई की शुरुआत आमतौर पर जुलाई के मध्य में होती थी, वहीं इस वर्ष सितंबर के अंत तक भी दाखिला प्रक्रिया जारी है। पिछले वर्ष भी प्रवेश प्रक्रिया में गड़बड़ियों के कारण दाखिले अक्टूबर में समाप्त हुए थे। ऐसे में छात्रों को पढ़ाई के लिए समय कब मिलेगा?
अक्टूबर का महीना दशहरा, दीवाली और छठ जैसे त्योहारों में व्यतीत होगा तथा दिसंबर के अंत में क्रिसमस और नए साल की छुट्टियां भी आ जाएंगी। विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए चार साल पहले एक कामन प्रवेश परीक्षा की शुरुआत की गई थी। इस प्रवेश परीक्षा का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव गांव के गरीब बच्चों पर पड़ा। वे आनलाइन परीक्षा कंप्यूटर पर देने के लिए उतने अभ्यस्त नहीं होते।
इसके अलावा उन्हें जो विषय पढ़ाए गए हैं, परीक्षा में उनसे अलग प्रश्न पूछे जाते हैं, जिसके लिए शहरों में कोचिंग का धंधा तेजी से फैल रहा है। इसका परिणाम यह है कि पिछले चार वर्षों में लड़कियों के दाखिले की संख्या में कमी आई है। साथ ही दूसरे राज्यों से आने वाले बच्चों की संख्या में भी गिरावट आई है। किसी भी अच्छे विश्वविद्यालय के लिए यह अच्छे संकेत नहीं हैं, विशेषकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए। इसका और भी बुरा परिणाम यह है कि बच्चों को अपनी रुचि के विषय में दाखिला नहीं मिल पा रहा है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रमुख कालेजों में कंप्यूटर, विज्ञान, गणित जैसे विषयों में भी सीटें खाली हैं, जो आश्चर्यजनक है। हिंदी और संस्कृत जैसे विषयों में दाखिले का हाल तो अतीत में भी अच्छा नहीं रहा, लेकिन वर्तमान में इसमें इतनी गिरावट आई है कि कहीं ये विभाग बंद न करने पड़ जाएं। दिल्ली विश्वविद्यालय समेत अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हिंदी और संस्कृत जैसे विषयों को पढ़ने के लिए बच्चे आगे नहीं आ रहे हैं।
सरकार ने भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए हैं, फिर भी समाज में अपनी भाषाओं में पढ़ने के प्रति उत्साह नहीं लौट रहा है। छात्रों को यह बताने की आवश्यकता है कि अब अपनी भाषा के माध्यम से वे केंद्र समेत राज्यों की सभी नौकरियों में आसानी से भर्ती हो सकते हैं, लेकिन छात्र अब भी अंग्रेजी की ओर दौड़ रहे हैं।
उनके मन में यह बैठ गया है कि भले ही सरकार कितने भी प्रयास करे, हिंदी और संस्कृत पढ़ने से नौकरी नहीं मिलेगी। सीटें खाली रहने का एक और कारण यह है कि पिछले कुछ वर्षों में केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कालेजों में फीस कई गुना बढ़ गई है। इससे विद्यार्थियों को लगता है कि फिर बीबीए, एमसीए जैसे व्यावसायिक कोर्स अपने गांव के आसपास क्यों न किए जाएं?
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक कामन प्रवेश परीक्षा से दाखिले का विचार इसलिए आया था, क्योंकि अलग-अलग राज्यों में 12वीं के अंकों का प्रतिशत समान नहीं होने से विद्यार्थियों को अलग-अलग विश्वविद्यालयों में भागना पड़ता था, लेकिन इसका विकल्प जो आया, उसने स्थितियों को और खराब कर दिया है। जो दाखिले की प्रक्रिया 15 जुलाई तक पूरी होकर पढ़ाई शुरू हो जाती थी, अब उस विलंब के कारण बच्चे निराश होकर निजी विश्वविद्यालयों की ओर भाग रहे हैं, जहां फीस कई गुना अधिक है।
कोचिंग का धंधा भी इससे बढ़ा है। नई शिक्षा नीति बार-बार रटने पर लगाम की बात करती है, लेकिन इस प्रवेश परीक्षा में तो रटना और भी अनिवार्य हो गया है। अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप के देशों में प्रारंभिक शिक्षा में कम्युनिकेशन पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता है। यानी वहां बच्चों को पढ़ना, लिखना और बोलना सिखाना सबसे जरूरी है। नई प्रवेश परीक्षा में जहां मल्टीपल च्वाइस प्रश्न होते हैं, वहां उत्तर लिखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
आज जब अमेरिकी राष्ट्रपति वीजा फीस बढ़ाने से लेकर भारतीय विद्यार्थियों के लिए नई-नई मुसीबतें पैदा कर रहे हैं, तब हमें तुरंत ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे हमारी युवा पीढ़ी निराश न हो। विश्वविद्यालयों का उद्देश्य उनकी रचनात्मकता को आगे बढ़ाना होना चाहिए, न कि रोकना। चार वर्षीय स्नातक प्रोग्राम के चौथे वर्ष में हर विषय में सीटें खाली हैं। इससे शोध की गुणवत्ता भी प्रभावित होगी।
पिछले वर्षों में सीटें खाली रहने के कारण देश के कई राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में कई इंजीनियरिंग कालेज बंद करने पड़े हैं। दिल्ली में करीब एक दर्जन प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हैं, जिन पर प्रति विद्यार्थी खर्च भी देश में सबसे ज्यादा आता है। इस समय दुनिया का ज्ञान सर्वत्र सुलभ है। हमारी युवा पीढ़ी बहुत मेहनती है। यह दुनिया के सभी देश कहते हैं और इसका प्रमाण भी है।
दिल्ली केवल राजनीति और सत्ता का केंद्र नहीं है, बल्कि शिक्षा एवं संस्कृति का भी उभरता केंद्र है। इसलिए दाखिले की प्रक्रिया से लेकर शिक्षा, पाठ्यक्रम तक सभी पहलुओं पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। अन्यथा यह उक्ति चरितार्थ होगी कि भारतीय विश्वविद्यालय तो बस तीन काम करते हैं- एडमिशन, इलेक्शन और एग्जामिनेशन! हमें शिक्षा नीति में इन पहलुओं पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।
(भारत सरकार में संयुक्त सचिव रहे लेखक शिक्षाविद् हैं)
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