विचार: स्वदेशी के बिगुल में गांधीजी की प्रेरणा, देश के प्रति हर तरह से अपनत्व की भावना
स्वतंत्रता पाने के बाद हमारा रुख बदलता गया। पश्चिम की छत्र-छाया हर तरफ बनी रही। उसे ही श्रेष्ठ मानकर उस पर निर्भरता बढ़ती रही। आज के वैश्विक माहौल में ऐसा दुराग्रह घातक होता है और उसके दुष्परिणाम भी दूरगामी प्रभाव वाले होते हैं। स्वदेशी का अभिप्राय अपने देश यानी मातृभूमि के प्रति हर तरह से अपनत्व की भावना है।
गिरीश्वर मिश्र। बुद्धिमान और सफल होने की चाह रखने वाले व्यक्ति के लिए महान नीतिज्ञ आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र में बड़ी महत्वपूर्ण सीख दी गई है। इसमें कहा गया है कि सफलता के आकांक्षी व्यक्ति को अपने वर्तमान और भविष्य का भान होना चाहिए। उसे इसका भी ठीक से पता होना चाहिए कि मेरे हितैषी कौन हैं। उसे अपनी परिस्थितियों की भी पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अपने अस्तित्व, अस्मिता और परिस्थिति का वास्तविक आकलन हो। चाणक्य कहते हैं कि इस सब पर बार-बार विचार करते रहना चाहिए। तभी व्यक्ति द्वारा सही निर्णय हो पाता है और जीवन में आने वाली समस्याओं और विघ्न-बाधाओं का निवारण करते हुए उनसे पार पाया जा सकता है। यह बात व्यक्ति ही नहीं, देश और समाज जैसी इकाई पर भी पूरी तरह लागू होती है।
आत्मालोचना में किसी तरह की गफलत होने पर मार्ग से भटक जाने की आशंका रहती है। तब बने-बनाए काम भी बिगड़ सकते हैं और हम लक्ष्य से विचलित भी हो सकते हैं। इसमें मुश्किल यही है कि यह आत्मान्वेषण कोई स्थायी स्थिति या उपलब्धि नहीं होती कि एक बार कर लेने के बाद सदैव का निराकरण हो जाए या फिर पुनर्विचार की जरूरत ही न पड़े।
इसके लिए व्यक्ति और समाज दोनों के लिए ही स्वयं को निरंतर जांचते-परखते रहने की जरूरत होती है, क्योंकि परिवेश स्वभाव से ही अस्थिर और परिवर्तनशील होता है। इस संदर्भ में देश में स्वदेशी की समकालीन गूंज विशेष महत्व रखती है। इतिहास साक्षी है कि आत्मालोचना की ओर से मुंह मोड़ना आत्मघाती हो जाता है।
हमने देखा है कि परतंत्र भारत के राजनीतिक जीवन में बहुत समय तक अपने आत्मबोध को लेकर ऐसी कई नकारात्मक प्रवृत्तियां हावी रहीं कि भारत भूमि विदेशी आक्रांताओं के अधीन हो गई और कई शताब्दियों तक उसे उनके ही अधीन रहना पड़ा। विदेशी शासकों का आकर्षण स्पष्ट रूप से भारत की समृद्धि के प्रति लोलुप दृष्टि के चलते था।
उनका उद्देश्य भारत का कल्याण करना नहीं था। उनकी मुख्य रुचि अपने लिए यहां पर उपलब्ध सभी संसाधनों का यथाशक्ति दोहन करने में ही थी। उन्होंने शोषण और दमन के लिए कई अमानवीय तरकीबें भी अपनाईं और भारतीय समाज को तरह-तरह पीड़ित करते रहे। उनके शोषण और दमन के दुष्चक्र ने देश के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रीय हितों को बड़ी ठेस पहुंचाई। भौतिक, सामाजिक और मानसिक रूप से त्रस्त करते हुए उन्होंने देश को कमजोर किया ताकि उनका अपना उद्देश्य पूरा होता रहे।
अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कई धाराएं थीं, पर उन सबके मूल में आत्मबोध की ही चिंगारी थी। अंग्रेजों द्वारा दी जाने वाली यातनाओं ने भारतीय समाज के आत्मबोध को आहत किया था। उसी आत्मबोध को लौटाने और पुन:स्थापित करने के लिए महात्मा गांधी ने स्वदेशी का बिगुल बजाया।
उन्होंने अनुभव किया कि आजादी का अर्थ स्वराज (सेल्फ रूल) है यानी अपने ऊपर अपना राज। यह सिर्फ अपने देश में अपना राज तक ही सीमित नहीं है। इसकी शर्त आत्मबोध और आत्मनियंत्रण है। सहज अर्थ में यह अपने मूल की ओर लौटने का भी आह्वान है। गांधीजी देश की स्वतंत्रता को राजनीतिक सत्ता-परिवर्तन से परे जाकर वैचारिक और मानसिक स्वाधीनता के अर्थ में ग्रहण करते थे। इसी के लिए वे रचनात्मक कार्यक्रम पर जोर देते थे।
अपनी भाषा, अपने उत्पाद, अपने उपकरण, अपनी शिक्षा और अपनी व्यवस्था को स्थानीयता से भी जोड़कर देखते थे। अस्पृश्यता-निवारण, श्रम पर जोर और मशीनों के सीमित उपयोग के पीछे उनकी यही मंशा थी कि समाज के सभी वर्ग आगे बढ़ सकें। इसी के लिए उनका विकेंद्रीकरण, समावेशन और संवाद पर खास जोर था।
ये सभी समाज के अंतिम जन को साथ लेकर चलने के लिए रास्ता बनाते थे। खादी और चरखा स्वावलंबन के साथ-साथ रोजगार और प्रकृति के साथ सहजीवन को भी संभव करते थे। उपभोग की सीमा को पहचानते हुए और भारत की बड़ी जनसंख्या की मुश्किलों के मद्देनजर वह उपभोग को नियंत्रण में रखने और जरूरतों को कम करने पर बल देते थे।
हालांकि, स्वतंत्रता पाने के बाद हमारा रुख बदलता गया। पश्चिम की छत्र-छाया हर तरफ बनी रही। उसे ही श्रेष्ठ मानकर उस पर निर्भरता बढ़ती रही। आज के वैश्विक माहौल में ऐसा दुराग्रह घातक होता है और उसके दुष्परिणाम भी दूरगामी प्रभाव वाले होते हैं। स्वदेशी का अभिप्राय अपने देश यानी मातृभूमि के प्रति हर तरह से अपनत्व की भावना है।
इस दृष्टि को अपनाते हुए व्यक्ति देश रूपी समष्टि को अपने जीवन और आचरण में स्थान देता है। भारत के स्वातंत्र्य की संघर्ष गाथा में स्वदेशी वस्तुओं को अपनाना और विदेशी के बहिष्कार की केंद्रीय भूमिका रही है। वह मात्र प्रतीकात्मक न होकर निजी व्यवहार में उतारने का प्रयास था। हमें गांधीजी से प्रेरणा लेते हुए देश की युवा क्षमताओं को प्रोत्साहित करने और देश की सामर्थ्य बढ़ाने के लिए स्वदेशी की ओर बढ़ना होगा। इसी से हम आत्मनिर्भर बनेंगे।
(लेखक पूर्व कुलपति हैं)
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