राजीव तुली। Syama Prasad Mukherjee death anniversary अतीत में कुछ गलतियां रह जाती हैं। कुछ महामानव उन्हें दुरुस्त करने की कवायद में जुटकर ही इतिहास पुरुष बनते हैं। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसी ही एक शख्सियत थे जिन्होंने नवस्वतंत्र राष्ट्र के मानचित्र पर सजे मुकुट की सलामती के लिए अपनी आवाज बुलंद की। जनसंघ के रूप में उन्होंने जिस राजनीतिक अंकुर को रोपा उससे पनपे वटवृक्ष रूपी दल भारतीय जनता पार्टी में उनके उत्तराधिकारियों ने बीते साल पांच अगस्त को अपने पुरोधा के उस सपने को पूरा भी कर दिया जिसके लिए डॉ. मुखर्जी ने अपने प्राण तक होम कर दिए थे। जहां जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण ने राष्ट्र को आनंद से भरा, वहीं इस मुहिम की अलख जगाने वाले डॉ. मुखर्जी की संदिग्ध मृत्यु से जुड़े प्रश्न अनुत्तरित रहना उतना ही कचोटता भी है। उनकी पुण्यतिथि पर ये प्रश्न और सालते हैं।

अपने दौर की राजनीति को व्यापक स्तर पर प्रभावित करने वाले डॉ. मुखर्जी वास्तव में बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। राजनेता के साथ ही वह एक शिक्षाविद भी थे जिन्होंने शैक्षणिक परिदृश्य पर भी अमिट छाप छोड़ी। यह गुण वास्तव में उन्हें विरासत में ही मिला था। छह जुलाई 1901 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में जन्मे डॉक्टर मुखर्जी के पिता सर आशुतोष मुखर्जी शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। वह मेधावी छात्र रहे। उनकी रुचि कानून विषय में भी थी, लिहाजा वर्ष 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित करने के पश्चात वह विदेश चले गए और 1926 में इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। यह कम गौरव की बात नहीं कि लगभग 33 वर्ष की अल्पायु में ही वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इस बीच वर्ष 1937 में उन्होंने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बांग्ला में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया। दरअसल यह क्षण इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि पहली बार किसी दीक्षांत समारोह का भाषण किसी भारतीय भाषा में हुआ था।

उनकी प्रेरणा से वैज्ञानिक शब्दों का एक बांग्ला शब्दकोश तैयार हुआ। साथ ही छात्रों को सिविल सेवा परीक्षा के लिए प्रशिक्षित करने के लिए एक विशेष योजना बनाई गई। पहली बार विश्वविद्यालय ने कृषि में डिप्लोमा कोर्स प्रारंभ किया। इसके अतिरिक्त ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में बांग्ला प्रकाशनों की एक खास सीरीज शुरू की गई। उनकी पहल पर बांग्ला वर्तनी का मानकीकरण भी किया गया। इसी दौरान पहली बार कॉलेज कोड तैयार किया गया था और नए मैटिकुलेशन रेगुलेशन तैयार किए गए थे। साथ ही छात्रों के लिए उम्र सीमा संबंधी पाबंदी भी समाप्त कर दी गई। इसके अलावा उन्होंने शिक्षा प्रणाली में कई मूलभूत बदलावों को भी अंजाम दिया जिससे अनेक प्रकार की व्यावहारिक परेशानियों का समाधान संभव हो सका। असफल छात्रों को कंपार्टमेंट परीक्षाओं में बैठने का अवसर प्रदान करने समेत छात्रों के लिए अनेक रियायतें उन्होंने ही शुरू कीं। छात्रों को सैन्य प्रशिक्षण देने के सवाल ने उनका ध्यान आकर्षित किया और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होंने सैन्य प्रशिक्षण पाठ्यक्रम शुरू करने में सफलता हासिल की। युवा पीढ़ी और देश कल्याण के आदर्श को सामने रखते हुए उन्होंने कमजोर वर्ग से आने वाले छात्रों के लिए आरक्षित छात्रवासों के स्थान पर सामान्य छात्रवासों और कॉलेजों से जुड़ी मेस में उनके लिए आवास तथा भोजन की व्यवस्था की।

देश के एक प्रमुख राजनेता के रूप में भी उन्होंने अपना प्रभाव डाला। स्वतंत्र भारत में कश्मीर को मिले विशेष राज्य के दर्जे को वह राष्ट्रीय एकता में बाधक मानते थे तो उसके खिलाफ बिगुल भी बजा दिया। डॉ. मुखर्जी जम्मू कश्मीर में भारत का संपूर्ण संविधान लागू नहीं किए जाने के घोर विरोधी थे। आजादी के बाद कश्मीर के तत्कालीन शासक शेख अब्दुल्ला और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, दोनों के साथ डॉ. मुखर्जी ने निरंतर पत्र-व्यवहार जारी रखा, लेकिन नेहरू और शेख अब्दुल्ला की जिद के चलते कोई समाधान नहीं निकल सका। डॉ. मुखर्जी ने अपनी ओर से पूरा प्रयास किया कि जम्मू-कश्मीर की समस्याओं के निदान के लिए एक गोलमेज सम्मेलन बुलाना चाहिए। उनका मत था कि जम्मू-कश्मीर को भी भारत के अन्य राज्यों की तरह माना जाए।

वह जम्मू-कश्मीर के अलग झंडे, अलग प्रधानमंत्री और अलग संविधान के विरोधी थे। उन्हें यह बात नागवार लगती थी कि वहां का मुख्यमंत्री वजीरे-आजम यानी प्रधानमंत्री कहलाता था। उन्होंने लोकसभा में अनुच्छेद-370 को समाप्त करने की जोरदार वकालत की थी। देश में पहली बार उन्होंने इस आंदोलन के लिए जम्मू-कश्मीर में प्रवेश का एलान किया। वर्ष 1953 में जम्मू-कश्मीर की यात्र के लिए आठ मई की सुबह साढ़े छह बजे वह दिल्ली रेलवे स्टेशन से ट्रेन में अपने समर्थकों के साथ सवार होकर जम्मू के लिए रवाना हुए। उनके साथ जनसंघ के साथियों बलराज मधोक, अटल बिहारी वाजपेयी, टेकचंद, गुरुदत्त के अलावा कुछ पत्रकार भी थे। इस यात्र के दौरान 11 मई 1953 को लखनपुर में उन्हें गिरफ्तार किया गया और वहां से श्रीनगर ले जाया गया जहां उन्हें केंद्रीय कारागार में रखा गया। बाद में उनको वहां से श्रीनगर में एक छोटे कॉटेज में स्थानांतरित किया गया।

23 जून 1953 को बेहद संदिग्ध परिस्थितियों में उनका निधन हो गया। आज तक लोगों के मन में उनकी मृत्यु को लेकर संशय है। वर्ष 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी मृत्यु को ‘नेहरू कॉन्सपिरेसी’ का नाम दिया था। समय आ गया है कि उन परिस्थितियों की जांच करके उन संदेहों को समाप्त किया जाए। कश्मीर के पूर्ण एकीकरण की डॉ. मुखर्जी की मनोकामना तो आखिरकार पूर्ण हुई, लेकिन देश को उनकी संदिग्ध मृत्यु से जुड़े वास्तविक तथ्यों के सामने आने की भी उतनी ही प्रतीक्षा है।

[सदस्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, दिल्ली कार्यकारिणी]