अलग हैं धर्म और पंथ-मजहब, इसलिए सर्वधर्म समभाव वाली अवधारणा उचित नहीं
धर्म के निर्वचन में बहुधा कठिनाई आती है। किसी रिलीजन या मजहब के विश्वासी को अपना परिचय देने में सुविधा है। ईसाई से पूछा जाए कि आप ईसाई क्यों हैं तो संभवत उत्तर मिलेगा कि वह प्रोफेट ईसा एक ईश्वर और एक पवित्र पुस्तक बाइबल का अनुयायी है। ऐसे प्रश्न के उत्तर में इस्लाम अनुयायी कहेगा कि वह एक ईश्वर एक पैगंबर एक पवित्र पुस्तक कुरान पर विश्वास करता है।
हृदयनारायण दीक्षित। पतंजलि ने महाभाष्य में लिखा है कि शब्द का सम्यक ज्ञान एवं प्रयोग अभीष्ट की पूर्ति करता है। शब्द प्रयोग सम्यक न होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। दिल्ली उच्च न्यायालय में रिलीजन यानी पंथ के पर्याय के रूप में धर्म शब्द के प्रयोग पर जनहित याचिका विचरण में है। याचिका में रिलीजन शब्द के वास्तविक अर्थ का प्रयोग करने और आधिकारिक अभिलेखों में इस शब्द को धर्म के पर्याय के रूप में न करने के निर्देश की प्रार्थना है। जन्म प्रमाणपत्र, आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस आदि अभिलेखों में भी इसके सही उल्लेख की मांग की गई है।
धर्म का अर्थ व्यापक है। सर्वोच्च न्यायपीठ ने हिंदू धर्म को भारत के लोगों की जीवनशैली बताया था। रिलीजन विश्वास और उपासना पद्धति है और धर्म सर्वव्यापी जीवन शैली, लेकिन रिलीजन, मत और मजहब को भी धर्म का पर्याय बताया जाता है। सभी पंथ धर्म कहे जाते हैं। इस्लाम और ईसाइयत पंथ या रिलीजन है। इन्हें भी धर्म कहा जाता है। पंथनिरपेक्षता को धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है। सभी पंथों को सभी धर्मों को एकसमान बताया जाता है। रिलीजन, मजहब एवं पंथ जबकि धर्म नहीं हैं। उक्त याचिका में स्कूली पाठ्यक्रम में ‘धर्म और रिलीजन’ का विषय जोड़ने का अनुरोध भी है। रिलीजन धर्म नहीं है। प्रत्येक रिलीजन एक आस्था और विश्वास है। एक ईश्वर, एक देवदूत और एक पवित्र पुस्तक रिलीजन या मजहब की अपरिहार्यता है। रिलीजन मजहब को धर्म बताना अनुचित है। रिलीजन का वास्तविक अर्थ पंथ या संप्रदाय है।
धर्म के निर्वचन में बहुधा कठिनाई आती है। किसी रिलीजन या मजहब के विश्वासी को अपना परिचय देने में सुविधा है। ईसाई से पूछा जाए कि आप ईसाई क्यों हैं तो संभवत: उत्तर मिलेगा कि वह प्रोफेट ईसा, एक ईश्वर और एक पवित्र पुस्तक बाइबल का अनुयायी है। ऐसे ही प्रश्न के उत्तर में इस्लाम अनुयायी कहेगा कि वह एक ईश्वर, एक पैगंबर, एक पवित्र पुस्तक कुरान पर विश्वास करता है। धर्म के अनुयायी के पास इस प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं है। सनातनधर्मी सीधा उत्तर नहीं दे सकता। उसकी कोई एक पवित्र पुस्तक नहीं। एक ईश्वर के साथ अनेक देवता हैं। सैकड़ों धार्मिक ग्रंथ हैं। धर्म को मानने वाला पृथ्वी, आकाश, नदी, वनस्पति सहित प्रकृति की सभी शक्तियों को देवता मानता है। विज्ञान की भाषा में कहें तो धर्म बहुकोषीय सामाजिक संरचना है और रिलीजन मजहब एककोषीय।
धर्म में बहुदेव उपासना है, लेकिन परमसत्ता को एक जाना गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि इंद्र, अग्नि, वरुण देवता हैं, लेकिन सत्य एक है। विद्वान उसे अनेक नामों से पुकारते हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी डिस्कवरी आफ इंडिया में लिखा है, ‘धर्म का अर्थ मजहब या रिलीजन से ज्यादा व्यापक है। यह किसी वस्तु की भीतरी आकृति, आंतरिक जीवन के विधान के अर्थ में आता है। इसके अंदर नैतिक विधान, सदाचार और मनुष्य की सारी जिम्मेदारियां और कर्तव्य आ जाते हैं।’
धर्म की स्थापनाओं पर प्राचीन काल से ही प्रश्न परंपरा है, लेकिन रिलीजन और मजहब की मान्यताओं पर बहस नहीं है। पंडित नेहरू ने लिखा है, ‘हम भिन्न-भिन्न रिलीजन से जुड़ी मजहबी किताबों को किस नजर से देखें? पंथिक विश्वासी लोगों का ख्याल है कि इनका ज्यादातर हिस्सा दैवी प्रेरणा से प्राप्त हुआ है या नाजिल हुआ है। अगर हम इनकी जांच-पड़ताल या नुक्ताचीनी करते हैं और उन्हें मनुष्यों की रची हुई बताते हैं तो कट्टर मजहबी इसका बुरा मानते हैं।’
दरअसल इस्लाम और अंग्रेजों के भारत आने और सत्ताधीश हो जाने तक उनका धर्म जैसी व्यापक धारणा से परिचय नहीं था। भारत के विद्वानों ने भी इस्लाम और ईसाइयत जैसी सांप्रदायिक संरचनाएं नहीं देखी थीं। अंग्रेजी सत्ता के दौरान ही रिलीजन और मजहब को भी धर्म कहा जाने लगा। जबकि धर्म एक अलग सर्वव्यापी अवधारणा है और पंथिक संप्रदाय धर्म से भिन्न विचार।
धर्म की धारणा में कोई एक देवदूत या पैगंबर नहीं होता। धर्म में सबके लिए जगह है। गांधीजी ने कहा था कि हिंदू धर्म में जीसस के लिए पर्याप्त जगह है और मोहम्मद, जरथुस्त्र तथा मूसा के लिए भी पर्याप्त स्थान है। अनीश्वरवादी चार्वाक दर्शन भी धर्म का भाग है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश गजेंद्र गड़कर ने कहा था कि ‘विश्व के सभी पंथों के विपरीत धर्म किसी एक पैगंबर का दावा नहीं करता और न ही किसी एक देवता की उपासना करता है। यह किसी एक दार्शनिक अवधारणा को भी नहीं मानता। उपासना की विशिष्ट पद्धतियों-क्रियाओं को भी नहीं स्वीकार करता। इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है।’
धर्म एक है। पंथिक संप्रदाय अनेक हैं। पृथ्वी आकाश और प्रकृति की सारी शक्तियां धर्म आच्छादित हैं। रिलीजन या पंथ मजहब धर्म नहीं हैं। ये विश्वास हैं। धर्म सत्य है। सत्य धर्म है। धर्म पालन में असीम विवेक स्वतंत्रता है। वैदिक पूर्वजों ने धर्म को समूची सृष्टि का रस बताया है। बृहदारण्यक उपनिषद में धर्म को सभी भूतों का मधु (सार) बताया गया है। धर्म में संसार है। संसार में धर्म है। धर्म संपूर्ण जगत का नियामक तत्व है। धर्म जगत की व्यवस्था है। प्रकृति सुसंगत नियमों में गतिशील है। सूर्यास्त और सूर्योदय भी नियमानुसार धर्मानुसार उगते-अस्त होते हैं। नदियां धर्मानुसार प्रवाहमान हैं। ग्रह नक्षत्र भी सुसंगत धार्मिक नियमों में गतिशील हैं। यह उनका धर्म है। जल का धर्म रस है। ताप अग्नि का धर्म है। धर्म में सभी तत्व समाहित हैं। मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार। मनुष्य का प्रकृति के प्रति व्यवहार। मनुष्य का सभी जीवों के प्रति व्यवहार। मनुष्य का समष्टि के प्रति व्यवहार धार्मिक संहिता का ही भाग है। लोकमंगल धर्म का भी धर्म है।
रिलीजन, पंथ और मजहब अनेक हैं। धर्म एक है, इसलिए सर्वधर्म समभाव उचित शब्द नहीं है। सर्व पंथ समभाव उचित है। धर्मांतरण अनुचित है और मतांतरण उचित है। सभी धर्मों में सांप्रदायिक सद्भाव की बात अनुचित है। सांप्रदायिकता सद्भाव नहीं होती। धर्म एक है। शाश्वत है। सनातन है। सभी धर्मों की एकता का शब्द प्रयोग गलत है। रिलीजन, पंथ, मजहब धर्म के पर्यायवाची नहीं हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र एवं राज्य को इस संदर्भ में अपनी राय देने के निर्देश दिए हैं। विश्वास है कि इस प्रश्न का सम्यक निस्तारण होगा।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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