अवधेश कुमार। लेह की हिंसा ने पूरे देश को चिंतित किया है। लेह में हिंसा वाले दिन लग रहा था जैसे अराजकता के रूप में नेपाल की लघु रूप में पुनरावृत्ति हो रही है। पहाड़ी परिषद से लेकर भाजपा कार्यालय को स्वाहा करने पर भीड़ उतारू थी। भीड़ ने सुरक्षाकर्मियों के वाहनों को भी निशाना बनाया। यह सब बिना तैयारी के संभव नहीं लगता। सामाजिक एवं पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने हिंसा के बाद 15 दिन से जारी आमरण अनशन समाप्त कर दिया।

उन्होंने शांति की अपील भी की। हालांकि उनका यह भी मानना है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन से परिणाम नहीं निकलने के कारण युवाओं में निराशा बढ़ी है। यानी वे कह रहे हैं कि गुस्सा जायज है, पर हिंसा ठीक नहीं। 15 दिन से आमरण अनशन पर बैठे सोनम वांगचुक और उनके साथियों के लगातार आ रहे वक्तव्यों और घटनाओं को देखने से हमें लग सकता है कि आंदोलन का सरकार ने संज्ञान नहीं लिया, इसलिए लोगों में गुस्सा पैदा हुआ होगा। सरकार की ओर से लेह की हिंसा के लिए सोनम वांगचुक को उत्तरदायी ठहराने से ऐसा भी लग सकता है कि वह आंदोलन से नाराजगी के कारण आरोप लगा रही है। सच क्या है?

सोनम वांगचुक, लेह अपेक्स बाडी यानी एबील और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस द्वारा रखी गई मांगों, उठाए मुद्दों पर केंद्र द्वारा गठित उच्च स्तरीय समिति की बैठक छह अक्टूबर को तय थी। स्वयं एबीएल ने समिति में जिन नए सदस्यों के नाम सुझाए थे, उन पर भी सहमति बन गई थी। तो फिर समस्या कहां थी? पहली बात तो यह कि अनेक मांगों को पूरा किया जा चुका है और राज्य को छठी अनुसूची में शामिल करने तथा राज्य का दर्जा देने के विषय पर गतिरोध दूर करने के लिए बातचीत हो रही थी। दूसरी, चार जिलों के गठन की प्रक्रिया अंतिम दौर में है।

तीसरी, लद्दाख में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण 45 प्रतिशत से बढ़कर 84 हो चुका है। चौथी, पंचायत में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। पांचवीं, भोटी और पुर्गी आधिकारिक भाषा घोषित हो चुकी हैं। छठी, 1800 पदों पर भर्ती प्रक्रिया भी शुरू है और अलग लोक सेवा आयोग के गठन पर भी विचार किया जा रहा है। यह सब केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा गठित उच्च अधिकार प्राप्त समिति के साथ लद्दाख के विभिन्न संगठनों की वार्ताओं में संपन्न समझौतों के ही परिणामस्वरूप हुआ।

जब बैठक छह अक्टूबर से पहले बुलाने की मांग की गई तो सरकार ने संदेश दिया कि 25 या 26 सितंबर को वैकल्पिक बैठक की जा सकती है और उस पर विचार हो रहा था। फिर यकायक ऐसा क्या हुआ कि लोग हिंसा करने लगे? सच यह है कि लेह में अरब स्प्रिंग और नेपाल के जेन-जी जैसी हिंसा का मनोविज्ञान पैदा करने की कोशिश हुई।

सोनम वांगचुक की छवि समाजसेवी की है, पर वे जैसी राजनीति कर रहे हैं और जैसे उनके बयान हैं, वे संतुलित निर्णय करने, शांति और सद्भाव की कामना रखने वाले व्यक्ति के नहीं दिखते। निःसंदेह यह भी नहीं कह सकते कि सोनम ने लद्दाख में सकारात्मक कार्य नहीं किया। उन्होंने किया है, पर लद्दाख और कारगिल में ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या है, जो उनकी गतिविधियों पर प्रश्न उठाते हैं। उनके एनजीओ की विदेशी फंडिंग और संबंधों को लेकर स्थानीय राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ता प्रश्न उठाते रहे हैं।

उनकी गिरफ्तारी के बाद इसकी जांच भी हो रही है। कोई भी आंदोलन जिन मांगों के लिए शुरू होता है, वे सब पूरी नहीं होतीं। उचित-अनुचित, तात्कालिक और दूरगामी दृष्टियों से विचार कर बीच का रास्ता निकाला जाता है। जब आप अरब स्प्रिंग की बात करते हुए मास्क पहनकर युवाओं को उसका तरीका बताएंगे एवं नेपाल के जेन-जी की प्रशंसा करेंगे तो उसमें विवेक, संतुलन एवं व्यावहारिकता की गुंजाइश समाप्त हो जाती है।

लद्दाख की स्वायत्तता का संघर्ष वर्षों पुराना है। इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा सहित अन्य संगठन शामिल रहे हैं। वर्तमान संवैधानिक ढांचे के तहत कोई यह कहे कि वैकल्पिक न्याय प्रणाली और स्थानीय स्वशासन की प्रशासन एवं वित्त मामलों में एक अलग व्यवस्था का विकल्प मिले तो क्या वह तुरंत स्वीकार हो सकता है? क्या मांग करने वाले को नहीं पता कि वह परोक्ष रूप से संवैधानिक ढांचे के बाहर की कुछ मांगें रख रहा है। लद्दाख सीमांत क्षेत्र है। चीन और पाकिस्तान की वहां नजर है।

अक्साई चीन वस्तुतः चीन अधिकृत लद्दाख ही है। गलवन की घटना के बाद सरकार चीन सीमा तक आम नागरिकों और रक्षा यातायात की दृष्टि से आवश्यक विस्तार कर रही है। इस सबको पर्यावरण से जोड़कर विरुद्ध वातावरण बनाना हर दृष्टि से अनुचित है। छठी अनुसूची में शामिल होने के पीछे अनेक तर्कों में एक यह भी है कि बाहरी लोग जमीन खरीद कर बसेंगे तो यहां की संस्कृति, सभ्यता सब कुछ प्रभावित होगी। पांच अगस्त, 2019 से पूर्व जमीन खरीदना तो छोड़िए, कोई जम्मू-कश्मीर की नागरिकता तक नहीं प्राप्त कर सकता था। इसके बावजूद लद्दाख किन हालात में था?

अनुच्छेद 370 और 35 ए के रहते आम लद्दाखियों की मांग थी कि हमें कश्मीर घाटी से मुक्ति दी जाए। यहां के लोग कश्मीर घाटी पर दोहन, शोषण, समस्याओं की अनदेखी के आरोप लगाते थे। ये एक हद तक सच भी थे। तब लद्दाखियों की मूल मांग थी-क्षेत्र को जम्मू-कश्मीर से अलग केंद्र शासित प्रदेश में लाया जाए तथा विकास के लिए अधिकार प्राप्त स्वायत्त परिषद का गठन किया जाए। केंद्र सरकार ने ऐसा ही किया। सुधार और बदलाव क्रमिक प्रक्रिया होती है। दो संसदीय क्षेत्र की मांग गलत नहीं है, किंतु यह आगामी डीलिमिटेशन में ही संभव हो सकेगा। आंदोलनकारियों को इन सब बातों का पता है। फिर भी हठधर्मिता दिखाई गई।

हिंसा भड़कती है तो नियंत्रण में नहीं रहती। इस समय भारत और विश्व में यही प्रवृत्ति दिख रही है कि हमारी मांगें तत्काल पूरी करो नहीं तो सब कुछ ध्वस्त करेंगे। यही खतरनाक प्रवृत्ति लेह में दिखी। सच्चाई यह है कि लद्दाख के शांति प्रिय लोगों का बहुमत कभी भी वैसी अराजकता के पक्ष में नहीं हो सकता, जैसी लेह में देखने को मिली।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)