विचार: अवसरों के लिए आपदा की प्रतीक्षा क्यों? हमारी नौकरशाही को कुछ बुनियादी काम ढंग से करने होंगे
यदि विकसित भारत के एजेंडे को पूरा करना है तो शासन तंत्र को प्रशासनिक सुधार को अपना प्राथमिक एजेंडा बनाना होगा अन्यथा हम अवसरों के लिए आपदा की प्रतीक्षा करते ही दिखेंगे। यह भी सनद रहे कि हम आपदा को अवसर में कठिनाई से ही बदल पाते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की बातें दोहरानी नहीं पड़तीं।
राजीव सचान। अमेरिका से जब यह परेशान करने वाली खबर आई कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने एच-1बी वीजा पर एक लाख डालर फीस कर दी है तो भारत में एक प्रतिक्रिया यह भी थी कि यह आपदा में एक और अवसर है। ऐसी प्रतिक्रिया देने वालों का मानना था कि इसका नतीजा यह होगा कि अब बेंगलुरु की सिलिकान वैली अमेरिका की सिलिकान वैली जैसी समर्थ हो जाएगी और गुरुग्राम, पुणे आदि की आइटी कंपनियों को विस्तार एवं नवाचार करने का अवसर मिलेगा।
इसके कुछ घंटे बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया बेंगलुरु की सड़कों को एक महीने के अंदर गड्ढामुक्त करने के निर्देश दे रहे थे और नगर निकाय के अधिकारियों से नाराज होकर कह रहे थे कि आखिर उन्हें लोगों की परेशानी दिखती क्यों नहीं? उन्होंने इंजीनियरों को निशाने लेते हुए कहा, ‘आपकी वजह से सरकार बदनाम हो रही है। आपको शर्म नहीं आती? आपने इंजीनियरिंग की पढ़ाई क्यों की? क्या मैं आपको गड्ढे बंद करने के लिए कहूं?’
इसके पहले बेंगलुरु की सड़कों के गड्ढे इसलिए खबरों में थे, क्योंकि एक स्टार्टअप ब्लैकबक के सीईओ ने शहर की खराब सड़कों और ट्रैफिक की वजह से अपनी कंपनी को शिफ्ट करने की बात कही थी। उनकी पोस्ट वायरल होने के बाद कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने संबंधित ठेकेदारों को नवंबर तक खराब सड़कों को ठीक करने का अल्टीमेटम दिया।
बाद में उन्होंने यह भी कहा कि बेंगलुरु को बेवजह निशाना बनाया जा रहा है और गड्ढे तो प्रधानमंत्री आवास जाने वाली सड़क पर भी हैं। इस सड़क यानी लोक कल्याण मार्ग पर गड्ढों की तो कोई खबर नहीं, लेकिन चंद किलोमीटर दूर गुरुग्राम को लेकर ऐसी खबरें अवश्य दिखीं कि यह साइबर सिटी बरसात बाद खराब सड़कों और हमेशा तंग करने वाले ट्रैफिक जाम से जूझ रही है।
खराब सड़कों के खिलाफ उठती आवाजों पर ध्यान देते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह के हवाले से समाचार आया कि उन्होंने साफ कहा है कि सड़कों की मरम्मत में किसी प्रकार की लापरवाही न बरती जाए। यह तय मानकर चलिए कि ऐसे निर्देश अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री भी दे रहे होंगे या फिर देने वाले होंगे।
काश ऐसी भी कोई खबर आए कि शासन-प्रशासन के शीर्ष पदों पर बैठे लोग संबंधित अधिकारियों को सड़कों को गड्ढामुक्त करने का आदेश देने के साथ-साथ उन्हें इस तरह बनाने की भी हिदायत दें कि अगली बरसात में उनमें गड्ढे न बनने पाएं। आखिर नगर निकाय, पीडब्ल्यूडी और सीपीडब्ल्यूडी और यहां तक कि एनएचएआइ को ऐसी सड़कें बनाने में क्या कठिनाई है कि वे कम से कम अगली बरसात तो झेल सकें?
यह सही है कि पिछले कुछ वर्षों में सड़कों के साथ तमाम हाईवे एवं एक्सप्रेसवे बने हैं और उनके चलते आवागमन सुगम हुआ है, लेकिन यह प्रश्न अनुत्तरित है कि अपने देश में ऐसी सड़कें क्यों नहीं बन पातीं, जो टिकाऊ हों यानी जो बरसात में गड्ढायुक्त न होने पाएं। अभी तो थोड़ी सी बरसात में ही सड़कों पर गड्ढे दिखने लगते हैं या फिर वे जलभराव का शिकार हो जाती हैं। दुनिया में हर कहीं बरसात होती है और जहां भी जरूरत से ज्यादा वर्षा हो जाती है, वहां लोगों को कुछ न कुछ समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है, पर अपने देश में थोड़ी भी बारिश ऐसी खबरों को जन्म देती है-आफत की बारिश।
2047 में केवल 22 बरस ही शेष हैं। यदि इस कालखंड में भारत को सचमुच विकसित राष्ट्र बनना है तो हमें कुछ बुनियादी काम ढंग से करने सीखने होंगे। इनमें से ही एक है टिकाऊ सड़कों का निर्माण और उन्हें ट्रैफिक जाम से मुक्त करना। इसके अतिरिक्त शहरों को गंदगी और प्रदूषण से भी बचाना, क्योंकि हर विकसित और यहां तक कि कई विकासशील देशों ने ऐसा कर लिया है। यह भारत ही है, जहां यह काम होते हुए नहीं दिखता।
इसका कारण है हमारे भ्रष्ट नेता और नौकरशाह। इनकी मिलीभगत के चलते जहां निर्माण है, वहीं भ्रष्टाचार है। भ्रष्ट और अक्षम नेता तो प्रायः जनता के असंतोष का शिकार होकर सत्ता से बाहर हो जाते हैं, लेकिन नौकरशाहों का मुश्किल से ही बाल बांका होता है। देश की तमाम समस्याओं के लिए भ्रष्ट नेताओं के साथ नौकरशाह ही जिम्मेदार हैं। सबसे अधिक जिम्मेदार हैं शीर्ष स्तर के नौकरशाह। इनमें से अधिकतर का चयन संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी के जरिये होता है।
जब यूपीएससी का परिणाम आता है तो उसमें सफल होने वाले चुनिंदा अभ्यर्थियों का समवेत स्वर यही होता है कि वे समाजसेवा, देशसेवा के अपने जज्बे को पूरा करना चाहते हैं। क्या वाकई? आखिर ऐसा जज्बा दिखाने वाले सेवारत होने के बाद कहां विलीन हो जाते हैं? निःसंदेह सभी को एक ही कूची से नहीं पोता जा सकता।
कुछ तो वाकई यह जज्बा दिखाते हैं और इसके चलते ही कहीं-कहीं उल्लेखनीय सुधार दिखते हैं, लेकिन सच यह है कि विकसित होने के आकांक्षी देश की नौकरशाही जैसी होनी चाहिए, वैसी नहीं है और विडंबना यह है कि प्रशासनिक सुधार किसी के एजेंडे में नहीं दिखते। यदि विकसित भारत के एजेंडे को पूरा करना है तो शासन तंत्र को प्रशासनिक सुधार को अपना प्राथमिक एजेंडा बनाना होगा, अन्यथा हम अवसरों के लिए आपदा की प्रतीक्षा करते ही दिखेंगे। यह भी सनद रहे कि हम आपदा को अवसर में कठिनाई से ही बदल पाते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की बातें दोहरानी नहीं पड़तीं।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)
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