[ शैलेश त्रिपाठी ]: एक दिन अचानक मेरे पड़ोसी बडे़लाल को सांसद बनने की धुन सवार हो गई। पहले-पहल लोगों ने उनकी इस धुन को चुनाव नतीजों से उपजा सियासी खुमार समझ लिया, लेकिन वह तो पूरी तरह संजीदा थे। उन्होंने सांसद बनने के लिए खाना-पीना सब कुछ छोड़ दिया। इस पर दवा-दारू भी हुई, लेकिन कुछ फायदा न हुआ। आखिर में उनके लंगोटिया यार छोटेलाल उन्हें समझाने गए। बड़ेलाल ने उनके सामने यही रट लगा दी कि भैया किसी भी तरह बस एक बार सांसद बनवा दो। इस पर छोटेलाल ने पूछा कि तुम सांसद क्यों बनना चाहते हो?

इस पर बड़ेलाल ने तकिये के नीचे से एक अखबार निकाला और एक खबर दिखाई जिसमें सभी सांसदों के हलफनामे के मुताबिक उनकी घोषित वार्षिक आय के आधार पर औसत निकाला गया था। फिर कई तरह के गुणाभाग करके बताया कि देख छोटेलाल, फिलहाल एक सांसद की जो औसत आय है उसके हिसाब से मेरे जैसा कोई आम आदमी आज से यदि अपनी कमाई का एक भी धेला खर्च न करे तो सालों साल बाद मेरे द्वारा इकट्ठा की गई कुल जमा पूंजी किसी सांसद की एक साल की आमदनी के बराबर पहुंचेगी। वह भी तब जब मौजूदा सांसदों की सालाना आमदनी इसी दर पर स्थिर रहे। इसलिए मैं इतना लंबा इंतजार नही कर सकता।

मुझे भी यह जानना है कि गरीबों के हितों के नाम पर काम करने वाले ये लोग इतने अमीर कैसे हो जाते हैं?समस्या सुनकर छोटेलाल गंभीर हो गए। बोले जितना मैं जानता हूं सांसद बनने के लिए टिकट लेना पड़ता है। टिकट लेने के लिए भी तमाम पापड़ बेलने पड़ते हैं। अगला चुनाव लड़ना है तो अभी से शुरू हो जाओ। बड़ेलाल छोटेलाल के पीछे पड़ गए कि चलो फिर किसी पार्टी का टिकट दिलाने। एक पुरानी पार्टी में छोटेलाल की नई-नई पहचान बनी थी। सो टिकट की तलाश में दोनों वहां पहुंचे। वहां बहुत सन्नाटा छाया हुआ था।

पता चला कि चुनावी नतीजों में पार्टी का पूरा तंबू उखड़ गया। अध्यक्ष जी के घर के बाहर काफी गहमागहमी थी। मालूम पड़ा कि वह इस्तीफा देना चाहते हैं, पर समर्थक हैं कि उनके इस्तीफे पर कुंडली मारे बैठे हैं। उन्हें याद दिला रहे हैं कि केवल आप ही नहीं, सभी हारे हैं। एक ने तो यहां तक दुहाई दे दी कि अगर आपने इस्तीफा दिया तो हम जान दे देंगे। विरोधी दल वाले समर्थकों का भेष धरकर उन्हें इस्तीफा न देने की सलाह देने में लगे हुए थे। दरअसल वे भी यह चाहते थे कि अध्यक्ष जी अपने पद पर बने रहें। इसी गहमागहमी में छोटेलाल ने एक चालू पुर्जे नेता को पकड़ा तो उसने कहा कि टिकट तो फाइनल हो जाएगा, लेकिन हमारे टिकट से संसद तक का सफर संभव नहीं लगता। हमारे दल की हालत यह है कि आने वाले दिनों में पर्यावरण बचाने की तर्ज पर इसके पक्ष में भी कोई मुहिम चलानी पड़ सकती है। ऐसे में भलाई यहां से कटने में ही है। यह सुनकर दोनों वहां से खिसक लिए।

दूसरी पार्टी के दफ्तर पहुंचे तो वहां भी अजब हाल था। वहां कदम-कदम पर पैसा मांगा जा रहा था। मानों हम टिकटार्थी न होकर जजमान हों। पता चला कि पार्टी अध्यक्ष के पास तक पहुंचने के लिए भी अलग-अलग दरें हैं। जैसे चरण छूने के लिए भी सवा पांच लाख का चढ़ावा। तिस पर भी पक्का नहीं कि टिकटरूपी प्रसाद प्राप्त हो ही जाए।

खैर छोटेलाल ने भी वहां भी परिचय निकाल लिया। उसने बड़ेलाल की जाति-बिरादरी के बारे में पड़ताल की। फिर कहा कि अगर पल्ले में इतने करोड़ हों तब हमारी पार्टी से चुनाव लड़ने के बारे में सोचना। बड़ेलाल ने कहा कि चुनाव आयोग तो बस सत्तर लाख रुपये खर्च देता है। इस पर वहां बैठे सभी लोग जोर से हंस दिए। वहां दाल गलती न देखकर वे एक अन्य पार्टी के दफ्तर पहुंचे। वहां बताया गया कि सबसे पहले परिवार और रिश्तेदारों को ही तरजीह मिलती है। मन मारकर वे एक और पार्टी के दफ्तर पहुंचे। वहां सेल्फी लेने वालों की भीड़ जुटी थी। उस पार्टी के एक सदस्य ने बताया कि हमारे यहां टिकट पाने के कुछ खास तरीके हैं। सबसे बढ़िया तरीका है कि आप दूसरी पार्टी में जाएं, वहां जाकर हमारी पार्टी को खूब गरियाइए। इसके बाद हमारी पार्टी आपको ख़ुशी-खुशी पार्टी में शामिल कर टिकट दे देगी।

हताश-निराश होकर दोनों लोग बाहर आ गए। तभी किसी ने समझाया कि निर्दल लड़िए, क्योंकि ‘सभी दलों में दलदल है, सबसे अच्छा निर्दल है’, पर जब उन्हें एक विशेषज्ञ ने बताया कि आज तक केवल .000431 प्रतिशत निर्दल ही सांसद बन पाए हैं तो उनका माथा ठनक गया। फिर उन्होंने विज्ञापनों में छपने वाले कई बाबाओं से संपर्क किया जो 101 प्रतिशत गारंटी के साथ काम करवाते हैं, मगर पता चला कि उनमें से कई बाबाओं के अपने खुद के ही तमाम काम बिगड़े पड़े हैं।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]

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