डॉ. एके वर्मा

आखिरकार भाजपा ने फिर से गुजरात जीत लिया और हिमाचल में कहीं आसानी से कांग्रेस से सत्ता छीन ली, लेकिन यह साफ है कि गुजरात में भाजपा की इस जीत के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गुजरात में पार्टी के लिए 150 सीटों का जो बड़ा लक्ष्य तय किया था वह हासिल नहीं हो पाया। उन्होंने यहां तक कहा था कि 150 से एक भी सीट कम आने पर भाजपा विजय उत्सव नहीं मनाएगी। शाह ने कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी द्वारा 1985 में जीती गई 149 सीटों का रिकॉर्ड तोड़ने का जो स्वप्न देखा था वह पूरा नहीं हो पाया। चूंकि कांग्रेस 2012 के मुकाबले अधिक सफल रही इसलिए पार्टी राहुल गांधी की ताजपोशी को कुछ महिमामंडित कर सकती है। लगता है कि पिछले 22 साल से लगातार सत्ता में रहने से गुजरात भाजपा प्रतिनिधियों में कुछ अहं आ गया था। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गुजरात के ग्रामीण मतदाताओं को भाजपा का विकास रास नहीं आया और इसीलिए ग्रामीण मतदाताओं और साथ ही पटेलों ने सौराष्ट्र, कच्छ में उसे वोट नहीं दिया, लेकिन नतीजे बताते हैैं कि गुजराती मतदाता मोदी से जुड़ाव महसूस करता है।


हार्दिक-जिग्नेश-अल्पेश की तिकड़ी के कारण युवा मतदाताओं का कांग्रेस के प्रति रुझान दिखा। अनेक नए मतदाता जिन्होंने गुजरात में कांग्रेस की सरकार अभी तक देखी ही नहीं है उन्हें शायद कांग्रेस से कोई विशेष समस्या नहीं थी और वे कांग्रेस को गुजरात की अनेक समस्याओं-बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और ग्रामीण विकास आदि को दूर करने के लिए एक अवसर देने के विरुद्ध नहीं थे। दलित समाज वैसे तो गुजरात में अधिकतर कांग्रेस के साथ ही रहा है पर पिछले वर्ष ऊना में दलितों के विरुद्ध हिंसा से गुजरात के दलित भाजपा के विरुद्ध एकजुट हुए। परिणामस्वरूप भाजपा को तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को हटाना पड़ा, लेकिन यह बड़ी बात है कि सीटें कम पाने के बाद भी भाजपा का मत प्रतिशत 2012 के मुकाबले बढ़ा ही है। गुजरात चुनाव में भाजपा के समक्ष दो प्रमुख चुनौतियां थीं। एक तो आरक्षण के कारण पटेल वोटों के खिसकने का डर था और दूसरा, जीएसटी पर व्यापारियों की नाराजगी का मसला था। इसके अलावा कांग्रेस ने राहुल के माध्यम से जोरदार और आक्रामक चुनाव प्रचार किया। राहुल ने मंदिरों की शरण लेकर ‘नरम-हिंदुत्व’ के जरिये भाजपा को उसी की भाषा में चुनौती देने की कोशिश की। फिर भी भाजपा गुजरात में अपनी सत्ता सुरक्षित रखने में सफल रही तो इसीलिए कि राज्य की जनता मोदी को चाहती है। मोदी का अपना एक व्यक्तित्व है और उसे वह न केवल गुजरात वरन वैश्विक पटल पर भी स्थापित करने में सफल हुए हैैं। लगता है कि लोग मोदी के बाद आए मुख्यमंत्रियों आनंदीबेन पटेल और रुपाणी को मोदी जितना स्वीकार नहीं कर पाए। मोदी ने चुनाव-प्रचार की कमान जिस तरह संभाली उससे सिद्ध कर दिया कि वह अभी भी गुजरात की जनता के लिए उतने ही सुलभ हैैं। यदि मोदी प्रचार की कमान अपने हाथ न लेते तो भाजपा के लिए बुरे परिणाम हो सकते थे। इसे मोदी की राष्ट्रीय नीतियों खासतौर से जीएसटी और नोटबंदी आदि पर उनके सुधार के प्रयासों की जन-स्वीकृति के रूप में देखा जा सकता है।
पाटीदार समाज पढ़ा-लिखा, संपन्न, सामाजिक रूप से सशक्त और उच्च-जाति का है। पाटीदारों ने एक समय दलित आरक्षण और फिर ओबीसी आरक्षण का विरोध किया था। उनके द्वारा आरक्षण की मांग करना कुछ अजीब सा है। अल्पेश ठाकोर (ओबीसी) का आंदोलन हार्दिक पटेल के विरुद्ध खड़ा हुआ। कांग्रेस ने इसीलिए हार्दिक की जगह अल्पेश को कांग्रेस में सम्मिलित किया। संभवत: कांग्रेस ओबीसी समाज को भाजपा से काटना चाहती थी। शायद पाटीदार समाज भी जनता था कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के चलते कांग्रेस उसे 50 फीसद के ऊपर आरक्षण नहीं दे सकती। संविधान के अनु 46 और अनु 31-सी का प्रयोग कर आरक्षण के लिए कानून बनाकर उसे नौवीं अनुसूची में डालने का रास्ता भी सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती मुकदमे का उल्लेख करके बंद कर दिया है। उसने साफ किया है कि ऐसे किसी कानून का वह न्यायिक-पुनर्निरीक्षण करेगी। इसके अलावा किसी राज्य सरकार द्वारा बनाए ऐसे किसी कानून को राष्ट्रपति की भी स्वीकृति की आवश्यकता पड़ती है।
जीएसटी पर व्यापारियों की नाराजगी और उससे प्रभावित होकर कांग्रेस को वोट देने की संभावना में भी अंतरविरोध था। व्यापारी जानता था कि जीएसटी टैक्स का सरलीकरण है और अंतत: वह तो ग्राहक के ही हिस्से में जाएगा, लेकिन जीएसटी कानून के स्पष्ट न होने से वह परेशान था। जो व्यापारी कच्चे बिल पर काम करते हैैंं वे भी जीएसटी से चिंतित थे। व्यापारी जानता था कि कांग्रेस के सत्ता में आने से भी कोई रोल-बैक तो होगा नहीं, उलटे केंद्र की सरकार उनका कच्चा-चिट्ठा खोल सकती है। इसीलिए इसकी संभावना कम ही थी कि गुजरात के व्यापारी जीएसटी पर भावावेश में आकर कोई निर्णय लेते। वैसे भी मोदी भरोसा दिला रहे थे कि वह उनकी बाकी समस्याओं का निदान करेंगे। राहुल ने नरम हिंदुत्व पर देर से अमल किया और वह न हिंदुओं को आकृष्ट कर सके और न ही मुस्लिम जनाधार बढ़ा सके। कुछ मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भाजपा की जीत इसे इंगित भी करती है। राज्य में मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग भाजपा को वोट देता रहा है। कांग्रेस का दंगा-युक्तकाल उसे अच्छी तरह याद है और वह कोई जोखिम नहीं लेना चाहता था। फिर कांग्रेस का कोई चेहरा भी तो गुजरात में नहीं था। आखिर मतदाता किस पर अपना दांव लगाता? इस पर हैरत नहीं कि उसके बड़े नेता हार गए।
शाह के चुनाव प्रबंधन और कोली, प्रजापति, चौधरी जैसी जातियों से गठजोड़ ने भी भाजपा का काम आसान किया। हार्दिक और जिग्नेश की रैलियों में युवाओं की भीड़ आई जरूर, लेकिन वोटों में तब्दील नहीं हुई। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2014 लोकसभा चुनावों के बाद से भाजपा के जनाधार का समावेशी राजनीति के चलते लोकतंत्रीकरण हुआ है। ओबीसी का एक बड़ा वर्ग उस मध्यम वर्ग में शामिल हो गया है जो भाजपा का प्रमुख समर्थक रहा है। यदि भाजपा अपने समावेशी जनाधार के साथ-साथ नेतृत्व का भी लोकतंत्रीकरण करती है तो संभवत: आगे आने वाले समय में वह कांग्रेस मुक्त भारत के अपने नारे को और धार दे सकेगी, लेकिन गुजरात चुनाव परिणामों की अनिश्चितता ने लोकतांत्रिक संघर्ष को बहुत महत्वपूर्ण बनाया है। यह हमारे लोकतंत्र की विजय है। इसी के साथ ईवीएम पर अविश्वास का मामला भी खत्म हो गया और चुनाव आयोग की प्रमाणिकता और निष्पक्षता सिद्ध हो गई। भाजपा के लिए गुजरात चुनाव नतीजों का संदेश यही है कि उसे गुजरात में बेहतर विकास के साथ किसानों की बेहतरी और नौजवानों की खुशहाली के लिए काम करना पड़ेगा। इसी के साथ उसे जनता के बीच और समय व्यतीत करना पड़ेगा। अगले वर्ष आठ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। उनके लिए कमर कसने की वजह भाजपा को गुजरात चुनाव नतीजों ने दे दी है। कांगे्रस को संजीवनी सी तो मिली है, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह उसका सही इस्तेमाल कर सकेगी।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैैं ]