तरुण गुप्त। त्रासदियां सदैव हृदयविदारक एवं मन को व्यथित करने वाली होती हैं। कुछ ऐसी होती हैं, जो आक्रोशित भी करती हैं। सबसे बदतर वे त्रासदियां होती हैं, जो इन सबके साथ निराश और कुंठित करती हैं। बेंगलुरु में हुई भगदड़ में इन सभी पहलुओं का समावेश था। हम सभी इस पर सहमत होंगे कि भीड़ प्रबंधन का हमारा रिकार्ड बेहद भयावह है।

चाहे वह धार्मिक समागम हों या राजनीतिक रैलियां, फिल्म प्रीमियर या खेलों से जुड़े आयोजन, प्रतीत होता है कि विभिन्न स्थलों पर भगदड़ों का एक अंतहीन सिलसिला कायम है। यहां कुछ प्रश्न उठने प्रासंगिक हैं कि क्या हमने पिछले हादसे से कोई सबक सीखा? क्या इसे लेकर कोई जवाबदेही होनी चाहिए? क्या आयोजक और अनुमति देने वाली प्राधिकारी संस्था एवं कानून प्रवर्तन एजेंसियों-राजनीतिक आका इसके उत्तरदायी हैं? इन प्रश्नों के उत्तर स्वाभाविक ही नजर आते हैं।

अक्सर सवाल उठता है कि आमजन इसमें क्या कर सकते हैं? सही मुद्दों पर अपेक्षित रूप से आवाज उठाने के अलावा यह भी विस्मृत न किया जाए कि किसी भी तंत्र में हम ही सबसे बड़े अंशभागी हैं, जिनके बिना कोई भी ठोस सुधार संभव नहीं। जहां तक बेंगलुरु जैसी भयावह भगदड़ की बात है तो उसमें भी आम जनमानस के लिए कुछ सबक निहित हैं। यह सर्वविदित है कि हमारा समाज सेलेब्रिटी सितारों की चमक से अत्यधिक प्रभावित रहता है। वैसे तो नामचीन हस्तियों के प्रति दीवानगी पूरी दुनिया में देखी जाती है, लेकिन भारत में यह कभी-कभी उन्माद की सीमा को पार कर जाती है।

हम प्रायः सराहना और जुनून के बीच की रेखा को धुंधला कर देते हैं। ऐसी ही परिस्थितियों में एक स्वीडिश संकल्पना ‘लागोम’ उपयुक्त होगी। यह प्रत्येक स्तर पर संतुलन की बात करती है। न कहीं कम, न कहीं अधिक, अपितु एकदम सटीक। देखा जाए तो चाहे कामकाजी-निजी जीवन हो, मनोरंजन या फिर कोई अन्य पहलू, उसमें मध्यमार्ग ही सर्वोत्तम होता है। इसी संदर्भ में प्राचीन भारतीय आख्यानों में महाभारत से जुड़ा एक प्रसंग भी अत्यंत अर्थपूर्ण है। इसमें यक्ष के रूप में यमराज द्वारा पूछे गए प्रश्न के जवाब में युधिष्ठिर ने कहा कि तृष्णा ही सभी दुखों का मूल है और आवश्यकता से अधिक कोई भी वस्तु वास्तव में अहितकारी हो जाती है। आधुनिक समाज के लिए भी इस प्रेरक दर्शन को आत्मसात करना श्रेयस्कर होगा।

आखिर संयमित जीवनशैली वाली वह समझदारी कहां गायब हो गई? समाज में विवेकशील व्यवस्था और आत्मसंयम का भाव अतिवाद की ओर उन्मुख होने से रोकता है। इससे व्यक्ति न तो तत्काल सुख-संतुष्टि खोजता है और न ही समकालीन प्रलोभनों के फेर में फंसता है। यह सही है कि फिल्मी सितारों और क्रिकेटरों की उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं, लेकिन यह भी न भूला जाए कि मूल रूप से वे मनोरंजन से ही जुड़े हैं। अपने चयनित क्षेत्र में उत्कृष्टता के प्रतीक और समाज के मनोरंजन जैसी महत्वपूर्ण भूमिका के चलते वे सम्मान एवं सराहना के पात्र अवश्य हैं, किंतु जनता को उनके प्रति उन्मादी जुनून से परहेज करना चाहिए। हमारे दिलों में उनके लिए जगह होनी चाहिए, लेकिन वे हमारे दिमाग पर हावी न होने पाएं। सिनेमा और क्रिकेट के सितारों की एक झलक पाने के लिए हमारे लोग जिस तरह किसी भी कठिनाई का सामना करने से लेकर अपनी जान जोखिम में डालने से भी गुरेज नहीं करते, वह रवैया न केवल अतार्किक, बल्कि किसी सनक या पागलपन से कम नहीं।

समय की मांग है कि संयम की संस्कृति विकसित की जाए। साथ ही राष्ट्रीय आदर्शों का विवेकसम्मत चयन भी महत्वपूर्ण है। मानसिकता में बदलाव ही इसमें मददगार होगा। आखिर हममें से कितने लोग डा. माधवी लता को अपना आदर्श मानेंगे, जिनकी बहुचर्चित चिनाब ब्रिज के निर्माण में महती भूमिका रही। नागरिक समाज को मनोरंजन जगत की नामचीन हस्तियों से परे देखना होगा। मनोरंजन जगत के सितारों की आभा ईर्ष्या का विषय कतई नहीं होनी चाहिए, फिर भी यह आवश्यक है कि राष्ट्र जीवन के अन्य क्षेत्रों से भी आदर्श उभरें। ये डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, शोधार्थी, उद्यमी, लेखक-विचारक और रक्षा-सुरक्षा जैसे विभिन्न क्षेत्रों से भी हो सकते हैं।

रोल माडल की दृष्टि से किसी एक धारा के लोगों का अतिशय महिमामंडन करने के बजाय व्यापकता पर जोर देने वाला बहुरंगी तंत्र कहीं बेहतर होगा। समग्रता से परिपूर्ण दृष्टिकोण समाज में संतुलन सुनिश्चित करेगा। इसके अतिरिक्त, हमें शिक्षा के अपने ढांचे को इस प्रकार समृद्ध करना होगा, जो व्यवस्थित आचरण को प्रोत्साहित करे और नियम-कानूनों के अनुपालन को लेकर प्रतिबद्ध बनाए। लोगों के निजी जीवन की गरिमा का सम्मान करने, सामान्य सार्वजनिक शिष्टाचार प्रदर्शित करने और स्थिति के अनुरूप डाटा केंद्रित या तंत्रीय प्रणाली वाला दृष्टिकोण ही सभ्यतागत विकास का हिस्सा है। यह एक समझदार एवं संवेदनशील समाज का संकेतक है। आर्थिक महाशक्ति बने बिना भी सामान्य शिष्टाचार का परिचय तो दिया ही जा सकता है।

समृद्धि एवं संपन्नता विकसित समाज की अनिवार्य शर्तें अवश्य हैं, लेकिन अपने आप में पर्याप्त नहीं। ये भले ही मूलभूत आवश्यक बिंदु हों, किंतु हमें इनसे परे भी देखना होगा। अस्वाभाविक मौतें और टाली जा सकने वाली जनहानि हमारे गले की फांस सी बन गई है।

एक ओर हम राज्य की निरंतर उपेक्षा से ग्रस्त हैं, वहीं अक्सर स्वयं भी समस्याओं को बढ़ावा देने या आसानी से टाली जा सकने वाली त्रासदियों को आमंत्रण देते रहते हैं। राज्य की लापरवाही हमें कुपित करती है तो खुद अपनी उदासीनता का भाव हमें कुंठा से भर देता है। राज्य जो करेगा, जब करेगा, लेकिन क्या हम अपने ही रवैये के भुक्तभोगी बने रहें?

कहते हैं कि समय हर घाव को भर देता है। यह बात अगर उन अभिभावकों से कही जाए, जिन्होंने बेंगलुरु की भगदड़ में अपने बच्चों को खो दिया तो क्या वे शोकाकुल परिवार ऐसी सांत्वना भर से संतुष्ट हो जाएंगे? क्या ऐसी भयानक त्रासदियों का कोई अंत दिखता है? हम अवश्य ही यह उम्मीद और प्रार्थना करें, परंतु यह संकल्प भी लें कि टाली जा सकने वाली जनहानि को अगर पूरी तरह रोक भी न पाएं तो उनका दायरा घटाने में अपना अपेक्षित योगदान दें। मानव जीवन के लिए इससे अधिक गरिमामय कुछ और नहीं होगा।