शिवकांत शर्मा। इन दिनों संयुक्त राष्ट्र महासभा का वार्षिक अधिवेशन चल रहा है। यूएन की स्थापना विश्व में शांति और सुरक्षा कायम रखने, आर्थिक, सामाजिक और मानवीय चुनौतियों का बहुपक्षीय सहयोग से समाधान और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए की गई थी। पश्चिमी देश इसे नियमबद्ध व्यवस्था कहते हैं जिसका प्रवर्तक एवं संरक्षक अमेरिका था।

यूएन ने अपने 80 वर्षों में उपनिवेशवाद को समाप्त करने, शांति कायम रखने, महामारियों पर नियंत्रण रखने, मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने और समुद्रों में व्यवस्था कायम रखने जैसे कई उल्लेखनीय कार्य किए हैं। हालांकि देशों की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा वह अमेरिका के दम पर ही करा पाया और शीतयुद्ध के दिनों में वह भी नहीं हो पाया।

अमेरिका की दिलचस्पी न रहने के कारण ही न भारत को पाकिस्तान और चीन के द्वारा कब्जा किया हुआ कश्मीर मिल सका और न फलस्तीनियों को उनका देश। अमेरिका ने वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान में अपनी मनमानी जरूर की, लेकिन हकीकत यह है कि उसके दम के बिना संयुक्त राष्ट्र के लिए उतना हासिल करना भी मुमकिन न होता, जितना उसने हासिल

अपनी मनमानी के बावजूद यूएन की नियमबद्ध व्यवस्था का संरक्षण करने अमेरिका को प्रतिष्ठा और वर्चस्व का अकूत लाभ मिला जिसकी वजह से पिछली सदी को अमेरिका की सदी कहा जाता है। फिर भी राष्ट्रपति ट्रंप ने आते ही एक-एक करके संयुक्त राष्ट्र की पेरिस जलवायु संधि, विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद जैसी संस्थाओं से हाथ खींच लिए और अमेरिकी राहत संस्था यूएस एड को भी रोक दिया। विश्व की 26 प्रतिशत अर्थव्यवस्था होने के कारण अमेरिका इन सभी संस्थाओं में सबसे अधिक योगदान करता है। उसके निकल जाने से विश्व में जलवायु संकट और महामारियों के प्रकोप का सामना करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई है। स्वास्थ्य, शिक्षा, गरीबी और असमानता के उन्मूलन के लक्ष्यों को पाना भी कठिन हो गया है।

ट्रंप की नीतियों से सबसे बड़ा धक्का विश्व व्यापार व्यवस्था को लगा है। पिछले पचास वर्षों में मुक्त व्यापार और वैश्वीकरण की वजह से जो आपूर्ति मार्ग बने और आर्थिक प्रगति हुई जिसके सहारे करोड़ों लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए, वह सारी व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। ट्रंप जिस गति से मनमाने फरमान जारी कर रहे हैं और अपने ही बयानों से पलट रहे हैं, उन्हें देखकर अमेरिका के गठबंधन मित्र यूरोप की आयोग अध्यक्ष अर्सुला वान डर लेन को अपनी रिपोर्ट में लिखना पड़ा है, ‘विश्व व्यवस्था अब सुधारातीत हो चुकी है, इसलिए यूरोप को जंगलराज के लिए तैयार हो जाना चाहिए।’ इस निष्कर्ष पर पहुंचने की वजह वे घटनाएं हैं, जिनकी एक साल पहले तक कोई कल्पना भी नहीं करता था। यूएन के संरक्षक अमेरिका ने अपने मित्र देश डेनमार्क से कहा ग्रीनलैंड हमें सौंप दें, वर्ना हम छीन लेंगे।

विश्व व्यापार संगठन को अमेरिका ने ही मनमानी टैरिफ नीतियों से अप्रासंगिक बना दिया है। सुरक्षा परिषद यूक्रेन और गाजा के युद्ध रुकवाने के लिए कोई प्रस्ताव पारित नहीं कर पा रही है। गाजा में मानवीय राहत पहुंचाने के लिए भी प्रस्ताव पर सहमति नहीं बन पा रही है। अमेरिका यूएन के मतदान में रूस का साथ दे रहा है। रूसी हमले के लिए रूस पर या फिर उससे सबसे अधिक तेल खरीदने वाले चीन पर कोई कार्रवाई करने की जगह भारत पर टैरिफ लगाए जा रहे हैं और यूक्रेन की लड़ाई को मोदी युद्ध की संज्ञा दी जा रही है। यूरोप से कहा जा रहा है कि वह भारत और चीन पर 100 प्रतिशत टैरिफ लगा दे। स्पष्ट है कि नियमबद्ध मानी जाने वाली व्यवस्था नियमहीन होकर टूट चुकी है।

ट्रंप के आलोचक भी स्तब्ध हैं और कह रहे हैं कि विदेश नीति के इतिहास में उन्होंने किसी नेता को इस तरह अपने देश के हितों की होली खेलते नहीं देखा। अमेरिका के ही वरदान से बलशाली हुए चीन ने अवसर भांपते हुए महासभा के अधिवेशन से ठीक पहले शंघाई सहयोग संगठन के इतिहास की सबसे बड़ी शिखर बैठक का आयोजन किया। इसमें रूस और भारत समेत 24 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के समक्ष उसने अपनी नई ‘वैश्विक प्रशासन पहल’ की घोषणा की। इसकी बुनियाद पांच सिद्धांतों पर टिकी है। प्रभुसत्ता में बराबरी, अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन, बहुपक्षीय आचरण, जनोन्मुखी दृष्टिकोण और ठोस कार्यों पर ध्यान।

ट्रंप जनित अस्थिरता के दौर में चीन को स्थिरता, सहयोग और शांति के चैंपियन के रूप में पेश करने के लिए सिद्धांततः तो ये सभी बातें बहुत अच्छी हैं, लेकिन तिब्बत में भारतीय सीमा पर ताइवान को लेकर और दक्षिणी चीन सागर में चीन की विस्तारवादी हरकतें इन सिद्धांतों के विपरीत रही हैं। ठीक वैसे जैसे एससीओ का बुनियादी लक्ष्य तो आतंकवाद पर अंकुश लगाना है, मगर पाकिस्तानी आतंकियों और उनके संगठनों को आतंकी घोषित करने के प्रस्ताव पर चीन ने हमेशा टांग अड़ाई है।

विश्व में कैसी व्यवस्था हो इसे लेकर दो धुरियां बन गई हैं। एक ओर अमेरिका है जिसके नेता ट्रंप अपने ही देश के बनाए नियमों को खारिज कर रहे हैं। दूसरी ओर चीन है, जो बातें तो नियमबद्ध और न्यायसंगत व्यवस्था की करता है, लेकिन आचरण में उलटा है। जिस व्यवस्था को ट्रंप ने तोड़ा वह बराबरी और न्याय पर आधारित नहीं थी, इसलिए भारत बदलाव चाहता था। जिसका प्रस्ताव चीन ने रखा है वह व्यवस्था बेहतर तो है, पर उसे अमल में लाने के लिए चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

इसलिए भारत को चीन से सतर्क रहते हुए विषय आधारित संबंध बनाकर चलना होगा और अमेरिका से संबंध सुधारने के प्रयास करने होंगे। चूंकि अब पड़ोसी बहुत प्रबल हो गया है, इसलिए अपनी सैनिक और आर्थिक शक्ति पर भी लगकर काम करना होगा भारत को एक ऐसी बहुध्रुवीय व्यवस्था के निर्माण पर काम करना होगा जो बराबरी और न्याय पर आधारित हो और पर्यावरण और जनकल्याण को ध्यान में रखते हुए मुक्त व्यापार के अवसर खोले। इसके लिए भारत को ब्रिक्स, आसियान, पश्चिमी एशिया और अफ्रीकी देशों के साथ अपने संबंध और प्रगाढ़ करने होंगे।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)