विचार : जरूरी है हर मतदाता का सत्यापन
ध्यान रहे कि पिछले 15-20 वर्षों में पूरे देश में चुनावी हिंसा खत्म हो गई लेकिन बंगाल अभी अपवाद है। यहां घुसपैठियों ने कई जिलों की जनसांख्यिकी को बदल दिया है। कई जगह चुनाव भारतीय वोटरों के हाथों से निकलकर घुसपैठियों के हाथों नियंत्रित हो गया है। राज्य में पुलिस और अन्य अधिकारियों का भी जिस तरह राजनीतिकरण हुआ है उसे देखते हुए एसआइआर के लिए विशेष तैयारी करनी होगी।
आशुतोष झा। इतिहास गवाह है कि बड़े बदलाव अपने साथ आंधी-तूफान भी लाते हैं, लेकिन गर्द के बैठने के साथ सब स्पष्ट दिखाई भी देता है और स्थायी भी हो जाता है। बिहार में चुनाव आयोग की ओर से मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) का प्रभाव भी कुछ ऐसा ही है। चुनावी लोकतंत्र की स्वच्छता के लिए सबसे जरूरी मतदाता सूची होती है और उसे दुरुस्त रखने के लिए बिहार में एसआइआर की शुरुआत हुई तो विवाद खड़ा हो गया।
कुछ दलों की ओर से इसे सीधे-सीधे लोकतंत्र पर खतरा बताया गया, पर आरोप-प्रत्यारोप, अदालतों में हुए विश्लेषण और राजनीतिक मंचों पर दिए गए भाषणों के बीच यह तथ्य निकलकर सामने आया कि एसआइआर के जरिये मतदाता सूची का गहन परीक्षण जरूरी है और यह कैसे किया जाए, इसका अधिकार चुनाव आयोग को है। इस विवाद से एक बड़ा लाभ यह हुआ कि बिहार ही नहीं पूरे देश के मतदाताओं को इसकी जानकारी हो गई कि वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाना है तो उन्हें क्या करना है।
वे यह भी समझ गए कि यह काम नेताओं के भरोसे नहीं हो सकता, क्योंकि बिहार में राजनीतिक दलों की ओर से जितने प्रतिवेदन आए, उनमें अधिकांश दूसरों के नाम कटवाने के लिए ही थे। इस विवाद से यह भी स्पष्ट हो गया कि पूरे देश में एसआइआर हो और मतदाता सूची एवं मतदाता पहचान पत्र को आटोमेटिक व्यवस्था से जोड़ने की तैयारी शुरू हो। इसके लिए नगर निगम से लेकर विदेश और गृह मंत्रालय तक को चुनाव आयोग से संबंधित डाटा शेयर करना होगा।
देश के अलग-अलग हिस्सों में एसआइआर की प्रक्रिया 20-25 वर्षों के अंतराल में होती है। अब चुनाव आयोग ने जता दिया है कि देश में एक साथ एसआइआर कराया जाएगा। इस पर राजनीतिक दलों का रुख देखना रोचक होगा। हाल में इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में एसआइआर को रुकवाने के लिए जिस तरह की दलीलें दी गईं, उन्हें देखते हुए मान लेना चाहिए कि विपक्षी दलों की ओर से इसका विरोध ही किया जाएगा। हालांकि इस संवैधानिक प्रक्रिया को रोक पाना अब किसी के वश में नहीं है, पर पारदर्शिता की इस मुहिम को अभी राजनीतिक बवंडर के कई क्रम से गुजरना होगा।
यह बहुत ही अचंभित करने वाला था कि बिहार में एसआइआर की जिस प्रक्रिया पर कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि इसमें कई लोगों और खासतौर से गरीबों के नाम काट दिए गए हैं, लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों से कहा कि वे अपनी ओर से कोशिश करें कि जिनके नाम गलत तरीके से कटे हैं, उनके नाम जोड़े जाएं तो अधिकतर प्रतिवेदन नाम कटवाने के ही आए।
सबसे हास्यास्पद स्थिति कांग्रेस की रही। पार्टी की ओर से दावा किया गया कि उसने 89 लाख प्रतिवेदन दिए हैं, लेकिन सारे नाम कटवाने वाले थे। फिर अगर चुनाव आयोग ने 65 लाख मृत, स्थानांतरित और अनुत्तरित लोगों के नाम हटा दिए तो इतना उबाल क्यों? यह लोकतंत्र पर मंडराता खतरा कैसे था? विपक्षी दलों का रुख अभी भी नहीं बदला है। पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस कमर कस कर रास्ता रोकने को तैयार है। एसआइआर की असली परीक्षा बंगाल में ही होगी।
ध्यान रहे कि पिछले 15-20 वर्षों में पूरे देश में चुनावी हिंसा खत्म हो गई, लेकिन बंगाल अभी अपवाद है। यहां घुसपैठियों ने कई जिलों की जनसांख्यिकी को बदल दिया है। कई जगह चुनाव भारतीय वोटरों के हाथों से निकलकर घुसपैठियों के हाथों नियंत्रित हो गया है। राज्य में पुलिस और अन्य अधिकारियों का भी जिस तरह राजनीतिकरण हुआ है, उसे देखते हुए एसआइआर के लिए विशेष तैयारी करनी होगी। संभव है गृह मंत्रालय को भूमिका निभानी पड़े। अच्छा होगा सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप हो। बंगाल में एसआइआर की प्रक्रिया का पुख्ता पालन हो जाए तो शेष देश में उसकी राह आसान हो जाएगी और उस बहस पर भी अंकुश लगेगा, जिसे संकीर्ण राजनीतिक कारणों से चलाने की कोशिश हो रही है।
यह अच्छा नहीं कि हर साल प्रदेशों में होने वाले चुनावों के वक्त देश विवादों में उलझा रहे, इसलिए भी एक साथ एसआइआर की जरूरत है। यह भी जरूरी है कि मतदाता सूची के शुद्धीकरण और अपडेशन की प्रक्रिया बदली जाए। घर-घर जाकर हर एक वोटर की पड़ताल तो सही है, लेकिन आटोमेशन की भी शुरुआत होनी चाहिए और राजनीतिक दलों की ओर से अड़ंगा लगाना बंद होना चाहिए। जरूरत को देखते हुए हर व्यक्ति अपने आधार को वर्तमान पते के अनुसार अपडेट करता है।
अच्छा हो कि आधार से मतदाता सूची जुड़ जाए। इससे एक से ज्यादा स्थानों पर मतदाता रजिस्टर ही नहीं होंगे। सिर्फ आधार से वोटर कार्ड को जोड़ना पर्याप्त नहीं। नागरिकता देना भले ही गृह मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आता हो, लेकिन मतदाता सूची में नाम शामिल करने से पहले नागरिकता की पुष्टि करने का अधिकार चुनाव आयोग से छीना भी नहीं जा सकता। खासकर जब तक पूरे देश में एनआरसी न हो जाए और देश के नागरिकों का रजिस्टर न तैयार हो जाए। विपक्ष इसके भी आड़े खड़ा है। देश को अपने नागरिकों और अवैध तरीके से आए लोगों के बारे में जानकारी होनी ही चाहिए।
बिहार में जिन लगभग 65 लाख लोगों के नाम कटे हैं, उनमें से 22 लाख तो मृत थे। देश से हर साल औसतन दो लाख लोग नागरिकता छोड़कर विदेश में बस रहे हैं। फिलहाल चुनाव आयोग प्रदेश के पासपोर्ट कार्यालयों से संपर्क में रहता तो है, लेकिन डाटा शेयरिंग की आटोमेटिक व्यवस्था नहीं है। जाहिर है कि जब सही आंकड़े आएंगे तो भ्रम की स्थिति पैदा होगी और उस वक्त जो भी विपक्ष में होगा, वह उसे तूल देगा। फिलहाल देश में लगभग 98 करोड़ वोटर हैं। वर्षों से मतदाता सूची त्रुटिपूर्ण है और इसके लिए चुनाव आयोग भी जिम्मेदार है और राजनीतिक दलों के साथ एक हद तक मतदाता भी। उचित यह होगा कि इस मुद्दे पर सत्तापक्ष और विपक्ष एक साथ हों और उनमें व्यापक बहस हो। यह सुनिश्चित हो कि केवल भारतीय नागरिकों के नाम ही सूची में शामिल हों और अपडेशन के लिए आटोमेटिक प्रक्रिया हो।
(लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)
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