गिरीश्वर मिश्र। भाषा हमारी अभिव्यक्ति का न केवल सबसे समर्थ माध्यम है, बल्कि संस्कृति के निर्माण, संरक्षण, संचार और अगली पीढ़ी तक उसका हस्तांतरण भी बहुत हद तक उसी पर टिका होता है। ज्ञान के साथ भी भाषा का रिश्ता गहन और व्यापक है, क्योंकि भाषा में ही ज्ञान संजोया जाता है।

भाषा के लेंस से हम अपनी दुनिया को देखते-समझते हैं। उसी से पारस्परिक संवाद करते हैं। भाषा के ही सहारे कुंठा-आक्रोश तथा हास-परिहास सहित विभिन्न भावनाओं को भी मूर्त आकार देते हैं। भाषा हमारे अस्तित्व का प्रमाण और साक्षी बनकर हमारी सत्ता का प्रसार तय करती है, पर भाषाओं की दुनिया बहुरंगी है। भिन्न भाषा-परिवार की भाषाओं में साम्य उनमें संपर्क का परिणाम है, क्योंकि भाषाओं में आदान-प्रदान भी होता है। इससे भारतीय संस्कृति की मूल एकता का भी पता चलता है।

विभिन्न भाषाओं के साहित्य में भी भारतीय संस्कृति की एकता झलकती है। कहावतें, मुहावरे और लोक-साहित्य में भी भाषाई एकता के अनेक सूत्र मिलते हैं। अधिकांश भाषाओं का संस्कृत से निकट संबंध इस तरह के भाषिक साम्य का एक बड़ा कारण है।

भाषा का संस्कृति और शिक्षा से गहन संबंध अंग्रेजों ने उलट-पलट दिया। अपने शासन संचालन के लिए अंग्रेजों को अनुकूल कर्मचारियों को तैयार करना था। इसके लिए अंग्रेजी ही उन्हें सबसे उपयुक्त भाषा लगी। उन्होंने भारतीय भाषाओं को उखाड़कर अंग्रेजी को रोप दिया। धीरे-धीरे भारत, भारतीयता और भारत-भाव को प्रश्नांकित कराते हुए गौण बना दिया गया। विचार और कर्म भाषा से अनुविद्ध होते हैं।

हमारे अस्तित्व की बनावट और बुनावट में अंग्रेजी जिस तरह पैठी, उसके चलते अपने यथार्थ को उसी के आईने में वह सब भी अपने में देखने लगे, जो था भी नहीं। सांस्कृतिक विस्मरण की प्रक्रिया आधुनिक होने, विकसित होने की वैश्विक दौड़ की अनिवार्यता बन गई। सोचने-विचारने की प्रक्रिया ऐसे तितर-बितर हुई कि ज्ञान की गुणवत्ता प्रश्नांकित होती गई। इसमें यह भ्रम भी मददगार हुआ कि अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में संख्याबल के आधार पर 22 भाषाएं उल्लिखित हैं, जिनमें हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया है यानी वह राजकाज की भाषा है।

सरकारी तौर पर 14 सितंबर, 1949 को हिंदी संवैधानिक तौर पर राजभाषा घोषित हुई और उसे अंग्रेजी जैसा बन जाने की सलाह दी गई। अंग्रेजी भाषा राजनीतिक-ऐतिहासिक कारणों से सहायक राजभाषा बनी, पर वास्तव में उसकी भूमिका राजभाषा की रही। उसमें दक्षता आज भी शिक्षा, नौकरी और सरकारी कार्यालयों के लिए जरूरी बनी हुई है। स्वतंत्र भारत ने अंग्रेजों की शिक्षा नीति को लगभग ज्यों का त्यों स्वीकार किया और उसी के अनुसार अंग्रेजी के वर्चस्व को बरकरार रखा। भारतीय भाषाएं हाशिए पर धकेली जाती रहीं।

सरकार का राजभाषा विभाग हिंदी उद्धार के काम में लगा हुआ है, पर अंग्रेजी के साथ प्रतिद्वंद्विता में हिंदी हीनता का पर्याय बनती गई। अंग्रेजी जानने वाला ही ज्ञानी और बाकी गंवार बन गए। यह दुर्योग ही है कि जो भाषा उपनिवेशवाद के खिलाफ खड़ी थी, वह उपनिवेश खत्म होने के बाद बंदी बना ली गई। सरकारी कामकाज मुख्य रूप से अंग्रेजी में ही चलता रहा।

देश की भाषाओं में न्याय, प्रशासन और उच्च शिक्षा में ज्ञानार्जन आदि की व्यवस्था न होने से आम जनता की कठिनाई बढ़ती रही। अब अंग्रेजी बोलना जानना श्रेष्ठता का ऐसा प्रतीक बन चुका है कि हममें से कई लोग अपनी भाषा का तिरस्कार कर हिंदी को हिंगलिश बनाने में ही कल्याण देख रहे हैं। इस परिदृश्य में राजनीति की मुख्य भूमिका रही है। इस सबके बावजूद संवाद, संपर्क और ज्ञान की भाषा के रूप हिंदी की भारत में व्यापक उपस्थिति है।

1909 में इंडियन ओपिनियन में महात्मा गांधी ने लिखा था, सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह हिंदी ही होगी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में हिंदी देश की संपर्क भाषा बन गई। विद्यार्थी के रूप में गांधी ने अंग्रेजी में पढ़ाई को अतिरिक्त भार के रूप में महसूस किया था, जो ज्ञानार्जन में रोड़े अटकाती है। वह खुद अधिकांश लेखन मातृभाषा गुजराती में करते थे। हिंदी का क्षेत्र हिमालय की तराई, नर्मदा, पंजाब, सिंध, गुजरात, बंगाल, छोटा नागपुर तक विस्तृत है। इसकी सीमाएं बांग्ला, उड़िया, तेलुगु, नेपाली, पंजाबी, गुजराती और सिंधी से जुड़ती हैं। लचीली होने और व्यापक शब्द भंडार के साथ जुड़ने की प्रवृत्ति के चलते ही राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, स्वामी दयानंद, लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी आदि ने हिंदी को अपना समर्थन दिया था। संस्कृत से निकली मराठी, बांग्ला, उड़िया और गुजराती भाषाओं से हिंदी का निकट रिश्ता है। हिंदी क्षेत्र जनसंख्याबहुल होने से व्यापार के लिए बड़ा बाजार भी उपलब्ध कराता है। हिंदी फिल्में, संगीत पूरे भारत में प्रचलित हैं।

भारत की आधी से ज्यादा जनसंख्या हिंदीभाषी है, शेष हिस्सों में अधिकांश लोग हिंदी समझते हैं। हिंदी आज भारतीय जन अभिव्यक्ति का सबल माध्यम है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को खोने का अर्थ सांस्कृतिक एकता, भारतीयता, भारतीय मानस, भारत की पहचान को भी खोना है।

लोक-जीवन में संपर्क भाषा की भूमिका में हिंदी काफी पहले से रही है। आवश्यकता है कि हम औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलें और भारत को भारत की दृष्टि से समझें। यदि बापू ने राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र को गूंगा कहा था तो यही आशय था कि हिंदी में संवाद सहज है। हिंदी का विकास अंतर भाषा के रूप में हुआ। अंग्रेजी का मोह और हिंदी से असंतोष वैश्विकता के मकड़जाल में फंसने के कारण है। इसकी सीमाएं आए दिन प्रकट हो रही हैं। फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, पुर्तगाल, इजरायल, जापान, चीन और रूस जैसे देश अपनी-अपनी भाषा में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सफलतापूर्वक शिक्षा दे रहे हैं। इन सब देशों में अपनी भाषा के लिए गौरव है और भाषा को हर तरह से समृद्ध करने का निरंतर प्रयास भी हो रहा है। यह हमें भी करना होगा और ऐसा करते हुए यह मानना होगा कि हिंदी केवल सबसे सशक्त संपर्क भाषा ही नहीं, सब भारतीय भाषाओं में एकता का सूत्र भी है। उसका अलगाव-दुराव किसी से नहीं। वह सबके साथ है।

(लेखक महात्मा गांधी केंद्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं)