राहुल वर्मा। चंद्रपुरम पोनुस्वामी राधाकृष्णन देश के नए उपराष्ट्रपति बन गए हैं। राजनीतिक गलियारों में सीपीआर के नाम से ख्यात राधाकृष्णन को सत्तारूढ़ राजग ने जब प्रत्याशी बनाया, तभी से उनकी जीत तय मानी जा रही थी, लेकिन विपक्षी खेमे ने बी. सुदर्शन रेड्डी को चुनाव में उतार कर इस मुकाबले को रोमांचक बनाने का प्रयास किया। विपक्षी मोर्चे ने तमिल बनान तेलुगु अस्मिता का मुद्दा उछालकर राजग की प्रमुख सहयोगी तेलुगु देसम पार्टी के सामने धर्मसंकट खड़ा करने के साथ ही अक्सर विधायी मामलों पर सरकार का समर्थन करने वाली वाइएसआर कांग्रेस और एक अन्य दल बीआरएस के समक्ष राजनीतिक दुविधा बढ़ाने का दांव चल था।

हालांकि नतीजे यह बताते हैं कि विपक्ष की यह आकांक्षा पूरी नहीं हो पाई। राजग के आधार में सेंध लगाने की जुगत भिड़ा रहा विपक्ष अपना कुनबा ही नहीं संभाल पाया। अंकगणित के अनुसार रेड्डी को कम से कम 325 मत मिलने चाहिए थे, लेकिन यह आंकड़ा 300 पर जाकर सिमट गया। कुछ मत अमान्य भी पाए गए।

उपराष्ट्रपति चुनाव परिणाम का एक संदेश यह भी है कि विपक्षी एकता की बातें तो खूब की जाती हैं, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर एकजुटता नहीं दिखती। उपराष्ट्रपति चुनाव में क्रास वोटिंग से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। कई विधेयकों के मामले में भी विपक्षी दलों के बीच सहमति नहीं दिखती। कुछ सरकार को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन भी देते रहे हैं।

यहां तक कि सरकार को घेरने के मामले में भी विपक्षी दल एकमत नहीं दिखते। फिर चाहे कांग्रेस द्वारा वोट चोरी का जोर-शोर से उठाया जा रहा मुद्दा हो या बिहार में मतदाता पुनरीक्षण से जुड़ी प्रक्रिया। लोकसभा चुनाव के दौरान या उसके बाद जो एक सहमति बनती दिख रही थी, वह अब तार-तार हो रही है।

आम आदमी पार्टी जैसे दल आइएनडीआइए से औपचारिक किनारा तक कर चुके हैं और पंजाब से लेकर गुजरात तक आरपार की लड़ाई लड़ रहे हैं। जहां विपक्षी एकता में विभाजन की स्थिति दिख रही है, वहीं लोकसभा चुनाव में उजागर हुई कमजोरियों से सीख लेते हुए राजग उन्हें दुरुस्त करने में जुटा है। अब यह स्पष्ट दिख रहा है कि उपराष्ट्रपति पद से जगदीप धनखड़ की विदाई कम से कम स्वास्थ्य कारणों के चलते तो नहीं हुई थी।

चर्चा है कि सरकार के साथ कुछ मुद्दों पर उनकी तकरार से बात ऐसी बिगड़ी, जो फिर कभी बन नहीं पाई। उसकी परिणति उनके अप्रत्याशित इस्तीफे के रूप में हुई। चूंकि धनखड़ न तो मूल रूप से भाजपा में थे और न ही भाजपा के वैचारिक स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ उनका कोई जुड़ाव रहा, इसलिए पार्टी ने उनके इस्तीफे से रिक्त हुए पद के लिए खांटी कार्यकर्ता सीपी राधाकृष्णन पर भरोसा जताया। इसके माध्यम से प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी स्पष्ट किया कि पार्टी के लिए उसकी मूल विचारधारा और उसके प्रति समर्पित कार्यकर्ता ही सबसे अधिक महत्व रखते हैं। इससे उन अटकलों पर भी विराम लगना चाहिए कि प्रधानमंत्री और संघ के बीच सब कुछ सहज नहीं, क्योंकि एक तबके ने पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से यही नैरेटिव स्थापित करने का प्रयास किया।

नए उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन के समक्ष चुनौतियां भी कम नहीं होंगी। राज्यसभा के सभापति के रूप में उन्हें संतुलन साधने का प्रयास करना होगा। उनके पूर्ववर्ती धनखड़ आरंभिक स्तर पर उच्च सदन में विपक्ष को बहुत स्पेस नहीं देते थे, पर विपक्ष के आक्रामक तेवरों के बाद उन्हें रवैया कुछ बदलना पड़ा। सरकार और उनके बीच अविश्वास की खाई बढ़ने में उनका बदला हुआ रवैया भी एक पहलू बन गया था। चूंकि सदन के सभापति से दलगत या वैचारिक आग्रह से ऊपर उठकर कार्यवाही के संचालन की अपेक्षा की जाती है, इसलिए राधाकृष्णन को इस मोर्चे पर कोई मध्यमार्ग तलाशना ही होगा।

महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों के चुनाव को लेकर भाजपा राजनीतिक संदेश का भी पूरा ध्यान रखती है और राधाकृष्णन का चुनाव भी कोई अपवाद नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रपति पद पर पहले राम नाथ कोविन्द और फिर द्रौपदी मुर्मु के चुनाव के माध्यम से दलित एवं आदिवासियों के बीच संदेश देना हो या जाट समुदाय को साधने के लिए धनखड़ को उपराष्ट्रपति बनाने का दांव, उनके मूल में कहीं न कहीं राजनीतिक संदेश भी निहित था।

चूंकि तमिलनाडु में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, इसलिए राधाकृष्णन के चुनाव को भी उससे जोड़कर देखा जा रहा है। राजनीतिक रूप से यह भाजपा के लिए बहुत अनुर्वर प्रदेश है, जहां तमाम प्रयासों के बावजूद पार्टी जीत का कोई फार्मूला नहीं तलाश पाई है। संसद के नए भवन के उद्घाटन के दौरान तमिल प्रतीक सेंगोल का प्रदर्शन, काशी-तमिल संगमम जैसी पहल और तमिल प्रतीकों से जुड़े स्मारकों को प्रोत्साहन जैसे कदम भी पार्टी को अपेक्षित राजनीतिक लाभ नहीं दिला पाए हैं।

तमिलनाडु उन प्रदेशों में से भी एक है, जहां से केंद्र सरकार को घेरने की सबसे अधिक कोशिशें हुई हैं। जीएसटी से लेकर वित्तीय संसाधनों का आवंटन, लोकसभा का संभावित परिसीमन, नीट परीक्षा और हिंदी को थोपने से लेकर उत्तर-दक्षिण के बीच भेदभाव जैसे मुद्दों पर राज्य में सत्तारूढ़ द्रमुक सरकार ने भाजपा एवं केंद्र सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ा। ऐसे में द्रमुक की सत्ता से विदाई भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न भी बन गई है। हालांकि पार्टी के समक्ष दुविधा भी कम नहीं हैं कि वह तमिलनाडु की सत्ता तक कैसे पहुंचे?

क्या इसके लिए प्रतीकात्मकता ही पर्याप्त होगी या गठबंधन के सहारे से ही काम चलेगा या फिर ठोस नीतियां अपनाकर असम, ओडिशा और बंगाल की तरह अपने दम पर आगे बढ़े, जहां शुरुआती असफलता के बाद उसे सफलता मिलनी शुरू हुई। बंगाल में सत्ता से भले ही दूरी बनी हुई है, पर वहां भाजपा मजबूत होकर मुकाबले की स्थिति में आ गई है। तमिलनाडु में यदि वह अन्नाद्रमुक की सहयोगी ही बनी रहेगी तो अपने एजेंडे पर आगे बढ़ना उसके लिए मुश्किल होगा। भाजपा को इस दिशा में जल्द ही कोई रणनीति तय करनी होगी, क्योंकि चुनाव में बहुत समय शेष नहीं है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)