शिवकांत शर्मा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मलेशिया, जापान और दक्षिण कोरिया की यात्रा पर गए हैं। इसे उनके इस कार्यकाल की बेहद महत्वपूर्ण विदेश यात्रा के रूप में देखा जा रहा है। मलेशिया में आसियान शिखर बैठक में जापान की पहली महिला प्रधानमंत्री सनाई तकाइची से भेंट कर वे जापान जाएंगे। वहां से एपेक देशों की बैठक के लिए दक्षिण कोरिया के शहर ग्योंग्जू पहुंचेंगे, जहां उनकी मुलाकात चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से होनी है। ट्रंप के सत्ता संभालने और टैरिफ जंग छेड़ने के बाद से दोनों नेताओं की यह पहली सीधी मुलाकात होगी।

पूर्वी एशिया की इस यात्रा पर रवानगी से पहले ट्रंप ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ हंगरी में प्रस्तावित शिखर बैठक को रद करते हुए दो बड़ी रूसी तेल कंपनियों रोजनेफ्ट और लुकआयल पर प्रतिबंध लगाए थे। ये प्रतिबंध 21 नवंबर से प्रभावी होंगे। बातों में उलझा कर लड़ाई जारी रखने की पुतिन की रणनीति से उकताए ट्रंप ने कहा, ‘मैं बैठकों में वक्त बर्बाद नहीं करना चाहता। जब भी व्लादिमीर से बात करता हूं तो बातचीत अच्छी होती है, पर नतीजा कुछ नहीं निकलता।’

मलेशिया आने के पहले ट्रंप और कनाडा में फिर से ठन गई है। कनाडा के ओंटारियो प्रांत की सरकार के एक विज्ञापन में पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन यह कहते हुए दिखाए गए हैं कि टैरिफ अमेरिका के हर व्यक्ति को नुकसान पहुंचाते हैं। ट्रंप ने नाराज होकर इसे फर्जी बताते हुए कनाडा के साथ सारी व्यापार वार्ताएं रद कर दीं और पहले कनाडा के आयातों पर 35 प्रतिशत टैरिफ लगाया जिसे कनाडा के विज्ञापन न हटाने पर 10 प्रतिशत टैरिफ और बढ़ा दिया। उनका आरोप है कि यह विज्ञापन उनकी टैरिफ नीति के खिलाफ अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन मामले को प्रभावित करने के लिए बनाया गया है, जिसका फैसला नवंबर में आना है।

ट्रंप की इसी धौंस भरी व्यापार नीति से मुकाबले के लिए मलेशिया ने सभी आसियान देशों की एक साझा व्यापार नीति बनाने का प्रस्ताव रखा था, पर आसियान देशों की आर्थिकी अमेरिका की मंडी पर निर्भर हैं, जहां वे 315 अरब डालर से अधिक का निर्यात करते हैं। इसलिए ट्रंप के टैरिफों से घबरा कर सबने उनके साथ व्यापार सौदे कर लिए हैं। मलेशिया को भी उम्मीद है कि ट्रंप अपनी इस यात्रा के दौरान व्यापार संधि पर हस्ताक्षर कर देंगे। वैसे इस शिखर बैठक में ट्रंप का ध्यान म्यांमार के गृहयुद्ध या दक्षिणी चीन सागर में चीन की दादागीरी जैसे क्षेत्रीय मुद्दों की जगह रूस पर लगे तेल प्रतिबंधों का समर्थन जुटाने और थाइलैंड और कंबोडिया के बीच सीमा विवाद का समाधान कराने पर था। दोनों का समझौता करा कर उन्होंने अपना शांति नोबेल का दावा और मजबूत कर लिया है।

जहां तक रूसी तेल की बात है तो उसकी बिक्री पर लगी 60 डालर प्रति बैरल की सीमा से नीचे चले जाने के कारण भारत को उसे खरीदने से होने वाली बचत बंद हो चुकी थी। इसलिए भारत अपनी मर्जी से ही रूसी तेल खरीदना कम कर रहा था, क्योंकि दूरी के कारण उसकी ढुलाई पर खाड़ी की तुलना में अधिक खर्च आ रहा था। संभवत: यही बात अमेरिका को बताई भी गई थी जिसका श्रेय लेकर शेखी बघारने के चक्कर में ट्रंप ने मोदी सरकार के लिए नई समस्या खड़ी कर दी। भारत या कोई भी संप्रभु देश किस से क्या खरीदेगा, यह ट्रंप को कैसे तय करने दिया जा सकता है? यही समस्या ईरान से तेल और गैस की खरीद और चाबहार बंदरगाह को लेकर पैदा हुई थी। किसी बेलगाम देश या उसकी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाने की संयुक्त राष्ट्र के तहत एक तय व्यवस्था थी। ट्रंप ने उसे पूरी तरह दरकिनार करते हुए मनमाने फरमान जारी करने शुरू कर दिए हैं। शायद यही सब भांपते हुए पीएम मोदी ने आसियान समिट में प्रत्यक्ष के बजाय आनलाइन मौजूदगी का विकल्प चुना।

खुद को सौदागर सम्राट समझने वाले ट्रंप इस समय रूस और चीन दोनों के साथ अपने मन के मुताबिक सौदा न हो पाने के कारण झल्लाए हुए हैं। भभकी से डराने और तारीफ से बहलाने की नीति मेक्सिको और कनाडा जैसे पड़ोसी देशों, ब्रिटेन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे मित्र देशों और इजराइल, सऊदी और मिस्र जैसे उन देशों पर तो कारगर हो सकती है जो उन पर निर्भर हैं। परंतु रूस, चीन और भारत जैसे महादेशों पर नहीं चल सकती। खासकर चीन पर जिसने योजनाबद्ध तरीके से ट्रंप के फरमानों की काट तैयार कर रखी है। चीन अमेरिका के उच्च तकनीक वाली सेमीकंडक्टर चिपों, विमान इंजन पुर्जों और सोयाबीन के आयात और अपने तैयार माल के निर्यात के लिए अमेरिका की मंडियों पर निर्भर था। ट्रंप की पिछले कार्यकाल की नीतियां देखकर उसने अर्जेंटीना के किसानों को तैयार करना शुरू कर दिया था।

परिणामस्वरूप चीन का 70 प्रतिशत सोयाबीन अब अर्जेंटीना से आ रहा है और ट्रंप अमेरिकी सोयाबीन का सौदा करने के लिए बेचैन हैं। इसी तरह चीन ने दुर्लभ खनिजों, चुंबकों, बैटरियों के निर्यात पर नियंत्रण शुरू कर दिया, जिनके बिना अमेरिका के रक्षा, मोबाइल और वाहन उद्योग नहीं चल सकते। इसके साथ ही जिन देशों को वह दुर्लभ खनिज बेचता है, उनसे गारंटी मांगनी शुरू कर दी है कि उनसे बना सामान वे उसकी इजाजत के बिना दूसरे देशों को न बेचें। अमेरिका भी अपने उच्च तकनीक निर्यातों पर ऐसी शर्तें लगाता रहा है। चीन उसी का हथियार उस पर इस्तेमाल कर रहा है।

यही कारण हैं, जिनकी वजह से ट्रंप चीन को धमकी देते ही सुलह की बातें करने लगते हैं। इसलिए प्रेक्षकों को ग्योंग्जू में ट्रंप और चिनफिंग की शिखर बैठक से ऐसी किसी व्यापक संधि की उम्मीद कम है, जिसकी बातें ट्रंप करते हैं। सोयाबीन, दुर्लभ खनिज और टिक-टाक जैसे कुछ बिंदुओं पर प्रगति के साथ दोनों की बातचीत सकारात्मक रहे तो भी व्यापार जगत के लिए संतोष की बात होगी। रूस पर दबाव बनाने के मुद्दे पर अलबत्ता तो चिनफिंग के कोई वादा करने की संभावना नहीं है और किया भी तो उस पर भरोसा नहीं किया जा सकेगा, क्योंकि चीन यदि रोजनेफ्ट और लुकासआयल से तेल लेना बंद भी कर दे तो भी तेल और गैस की पाइलाइनों के जरिये तेल लेना जारी रखेगा, जिसे रोक पाना संभव नहीं है।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)