विचार: संस्कृति के बहाने हिजाब की पैरवी, पितृसत्ता से मुक्ति की चाह रखने वाले दे रहे ज्ञान
आपको शाहबानो केस याद होगा। मामला मात्र गुजारा भत्ते का था। अदालत ने शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया कि उन्हें गुजारा भत्ता दिया जाना चाहिए। बस बवाल हो गया और उस समय की केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के फैसले को पलट दिया। बाद में शाहबानो ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने उनके पक्ष में फैसला देकर गलत किया। जब उनसे पूछा गया गया कि अपने ही पक्ष में दिए फैसले को गलत क्यों बताया तो वे बोलीं-अगर मैं ऐसा न कहती, तो देश में खून की नदियां बह जातीं।
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- <p><span style="color: rgb(0, 0, 0);">राजा राममोहन राय बंगाल में सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन चलाया था</span></p>
क्षमा शर्मा। केरल में कोच्चि के एक मिशनरी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की जब हिजाब पहनकर आने लगी तो वहां के अधिकारियों ने कहा कि वह स्कूल यूनिफार्म में ही आए। इस पर विवाद हो गया और केरल के शिक्षा मंत्री वी. सिवनकुट्टी भी इसमें कूद पड़े। उन्होंने स्कूल को आदेश दिया कि लड़की को हिजाब पहनकर आने दिया जाए। उन्होंने एक जांच भी बिठा दी, जिसमें कहा गया कि स्कूल के आचरण से बच्ची को बहुत परेशानी हुई। कुट्टी ने यह भी कहा कि स्कूल का इस तरह का आदेश धार्मिक स्वतंत्रता के मानकों के खिलाफ है। बाद में स्कूल अधिकारियों ने बच्ची के माता-पिता से बात की, लेकिन बात नहीं बनी, क्योंकि राजनीतिक दल एसडीपीआइ विवाद भड़काने में लग गया। उसके सदस्यों ने स्कूल वालों के साथ बदतमीजी की, जिनमें से अधिकांश नन थीं।
हिजाब का मामला केरल हाई कोर्ट भी पहुंचा, जिसने स्कूल को पुलिस सुरक्षा देने के आदेश दिए। इस सबके बीच बच्ची के माता-पिता ने कहा कि वह अपनी बेटी का दाखिला किसी अन्य स्कूल में कराएंगे। केरल सरकार ने इसमें बच्ची की मदद करने की पेशकश की यानी वह भी लड़की को हिजाब सहित पढ़ने की अनुमति देने के पक्ष में खड़ी हो गई। सवाल यह है कि क्या स्कूल अब मजहबी आदेशों से चलेंगे या अपने कायदे-कानूनों और परंपरा से? सिवनकुट्टी जिस वाम दल के प्रतिनिधि हैं, वह धर्म को नहीं मानता, फिर एकाएक उन्हें धार्मिक अधिकारों की याद कैसे आ गई?
कुछ साल पहले कर्नाटक के एक स्कूल को लेकर भी ऐसा ही विवाद हुआ था। इस विवाद को भी राजनीतिक दलों ने खूब हवा दी थी। बहुत सी महिलाएं, जो न कभी हिजाब पहनती थीं, न बुर्का, बल्कि पश्चिमी वेशभूषा में दिखाई देती थीं, उन्होंने हिजाब का समर्थन किया था। यह देखने योग्य है कि स्त्रीवाद की तमाम परिभाषाएं मजहब देखकर ही तय होती हैं। ईरान में खोमैनी के 1979 में सत्ता में आने के बाद स्त्रियों का हिजाब पहनना अनिवार्य कर दिया गया था। इसके लिए सड़कों पर मोरल पुलिस घूमती है। जो स्त्रियां हिजाब पहने नहीं पाई जातीं, उन्हें भारी जुर्माना, कोड़ों और जेल की सजा दी जाती।
इसी सजा के चलते 2022 में वहां म्हासा अमीनी की मौत हो गई थी। तब स्त्रियों में गुस्सा फूट पड़ा था। उन्होंने सिर से हिजाब उतार फेंके थे। वे प्रदर्शन करने लगीं। वहां की सरकार ने इस आंदोलन को निर्ममता से कुचला। बहुत से स्त्री-पुरुष मारे गए। खोमैनी से पहले ईरान में स्त्रियां अपनी पसंद के कपड़े पहनती थीं, लेकिन 1979 की तथाकथित क्रांति ने स्त्रियों को फिर से हिजाब और बुर्के में लपेट दिया।
मामला मजहब और संस्कृति का बताकर चुप्पी साध ली गई। इसके बरक्स तुर्किये में स्त्रियों ने हिजाब के समर्थन में आंदोलन चलाया। वहां स्त्रियां हिजाब पहनने की मांग कर रही थीं। कमाल पाशा ने तुर्की में जो सुधार किए, उनमें स्त्री को पर्दे से बिल्कुल आजाद कर दिया था, लेकिन अब तुर्किये की स्त्रियों को पर्दा चाहिए। कितना विरोधाभास है। शायद इसका कारण सरकारों द्वारा लादे गए कानून होते हैं। उनका विरोध करते-करते कभी-कभी अपने ही पांव में कुल्हाड़ी मार ली जाती है, जैसा कि तुर्किये की स्त्रियां कर रही थीं।
कुछ साल पहले हरियाणा की एक पत्रिका ने घूंघट को स्त्री अस्मिता का प्रतीक बताया था तो काफी विरोध हुआ था, लेकिन इन विरोध करने वालों ने ही हिजाब के मामले में खामोशी ओढ़ ली। आखिर यह कौन सी स्वतंत्रता की चाह है, जो मजहब और संस्कृति का बहाना बनाकर चुप हो जाती है। मेरी पसंद, मेरी आजादी की बात अब यहां तक भी आ पहुंची है कि बात-बात पर पितृसत्ता से मुक्ति की चाहत रखने वाले हिजाब या बुर्के को भी स्त्री अस्मिता का प्रतीक बताने लगे हैं।
चाहे घूंघट हो या हिजाब, इसकी जिम्मेदारी स्त्रियों की ही क्यों है? पुरुषों के लिए ऐसा कोई नियम क्यों नहीं? दुनिया भर में पुरुषों ने तो अपनी ड्रेस पैंट-शर्ट कर रखी है और स्त्रियों के कपड़ों पर चील नजर लगी रहती है। क्या दुनिया के मजहबों और संस्कृतियों को बचाने का ठेका स्त्रियों ने ले रखा है। वे क्या करें, यह लादने वाले आप कौन? क्या इसे दोयम दर्जे की नागरिकता नहीं कहते?
जब राजा राममोहन राय बंगाल में सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे, तो वहां एक सती समर्थक गुट भी था। उसने स्त्रियों का एक जुलूस निकाला, जिसमें वे कह रही थीं कि वे सती होना चाहती हैं। 1987 में जब राजस्थान के दिवराला में रूपकंवर सती हो गई थी, तब एक दल की बड़ी महिला नेत्री ने बयान दिया था कि सती होना स्त्री का अपना अधिकार है।
आपको शाहबानो केस याद होगा। मामला मात्र गुजारा भत्ते का था। अदालत ने शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया कि उन्हें गुजारा भत्ता दिया जाना चाहिए। बस बवाल हो गया और उस समय की केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के फैसले को पलट दिया। बाद में शाहबानो ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने उनके पक्ष में फैसला देकर गलत किया। जब उनसे पूछा गया गया कि अपने ही पक्ष में दिए फैसले को गलत क्यों बताया तो वे बोलीं-अगर मैं ऐसा न कहती, तो देश में खून की नदियां बह जातीं। कई बार लगता है कि जब से आइडेंटिटी पालिटिक्स ने लोगों के जीवन में प्रवेश किया है, तब से कई लोगों को किसी भी सुधार की बात उन्हें अपने जीवन में हस्तक्षेप लगती है।
(लेखिका साहित्यकार हैं)
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