विचार: कई प्रश्नों के उत्तर देगा बिहार चुनाव, चुनावी चक्र धीरे-धीरे चरम की ओर बढ़ने लगा
सत्तारूढ़ राजग की बात करें तो पारंपरिक रूप से बड़े भाई की भूमिका में रही जदयू अब भाजपा के साथ एक ही पलड़े पर बैठी नजर आ रही है। लोजपा भी कड़ी राजनीतिक सौदेबाजी के तहत पर्याप्त संख्या में सीटें हासिल करने में सफल हुई है। अगर पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहा तो राज्य की राजनीति में चिराग की रोशनी और बढ़ेगी। संभव है कि जीत की स्थिति में राजग के भीतर मुख्यमंत्री के स्तर पर कोई बदलाव दिख सकता है।
HighLights
- <p>बिहार चुनाव: कई सवालों के देगा जवाब</p>
- <p>राष्ट्रीय राजनीति पर भी डालेगा प्रभाव</p>
- <p>चुनावी चक्र धीरे-धीरे चरम की ओर</p>
राहुल वर्मा। बिहार चुनाव का चक्र धीरे-धीरे चरम की ओर बढ़ने जा रहा है। सतही तौर पर देखने में तो यही लगेगा कि राज्य के चुनावी परिदृश्य पर बीते कुछ दशकों के दौरान बहुत कुछ नहीं बदला है, लेकिन गहराई से देखें तो यह चुनाव कई मायनों में बहुत अलग साबित होने जा रहा है। यह चुनाव कुछ वैसा ही पड़ाव है, जैसे 1990 में सत्ता की कमान संभालने वाले लालू प्रसाद यादव परिवार का अगले डेढ़ दशक तक एकछत्र राज रहा। इसी तरह, 2005 में सत्ता की कमान संभालने वाले नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद पर नाट आउट बने हुए हैं।
इस दौरान भले ही उनकी टीमें बदलती रही हों, लेकिन मुख्यमंत्री पद उनकी ही पकड़ में रहा। नीतीश कुमार की विरासत के निर्धारण से लेकर तेजस्वी यादव की नेतृत्व क्षमता की परीक्षा इन चुनावों में होने वाली है। इसी चुनाव से यह भी साबित होगा कि दूसरों को चुनाव जिताने वाले प्रशांत किशोर क्या खुद मैदान में उतरकर भी जीतने का दम रखते हैं? दोनों गठबंधनों का भविष्य भी बहुत कुछ चुनावी नतीजों से तय होने वाला है।
जातिगत समीकरण या कहें कि सोशल इंजीनियरिंग भारतीय राजनीति की एक सच्चाई है। बिहार जैसे राज्य में यह पहलू और प्रभावी दिखता है तो स्वाभाविक है कि प्रत्येक गठबंधन के समीकरण जातिगत लामबंदी के अनुरूप साधने के प्रयास होते रहे हैं। राजग की बात करें तो भाजपा सवर्ण जातियों से लेकर मध्य वर्ग में पैठ के साथ राष्ट्रीय अपील भी रखती है। जदयू को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की छवि के अलावा कुर्मी, कुशवाहा और अति पिछड़ा वर्ग में अच्छा-खासा समर्थन हासिल है। चिराग पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी भी अपने समर्थक वर्गों में लोकप्रियता के सहारे नैया पार लगाने की उम्मीद कर रहे हैं।
महागठबंधन में भी जातिगत समीकरणों की संरचना का पूरा ध्यान रखा गया है। राजद को अपने मुस्लिम-यादव मतदाताओं के पारंपरिक समर्थन पर भरोसा है। हालांकि पिछले चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी से मिली चुनौती ने उनके लिए मुश्किलें पैदा कर दी थीं। ऐसे में, राजद के एमवाइ आधार कितना टिकाऊ होगा, यह इस पर भी निर्भर करेगा कि ओवैसी कितनी ताकत से लड़ते हैं। वीआइपी के मुकेश सहनी मल्लाह जाति के नेता हैं। कांग्रेस और वाम दलों की भले ही व्यापक रूप से जातिगत पैठ न हो, लेकिन प्रत्याशियों के चयन में उन्होंने इस कसौटी का पूरा ध्यान रखा है।
परंपरा की राजनीति से इतर इस बार का चुनाव परिवर्तन के भी कई संकेत करता दिख रहा है। सबसे बड़ा परिवर्तन तो पीके के नाम से मशहूर रहे चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी के चुनावों में उतरने से जुड़ा है। चूंकि पीके किसी जातिगत लामबंदी का सहारा लेने के बजाय मुद्दों पर राजनीति को प्राथमिकता देने में लगे हैं तो यह स्पष्ट नहीं दिख रहा कि उनकी राजनीति से किस गठबंधन को नुकसान पहुंचेगा। यह आने वाला समय ही बताएगा कि किस दल की राजनीतिक जमीन हथियाकर पीके उस पर अपना सियासी महल खड़ा करते हैं या फिर उनकी हसरतें परवान चढ़ने से पहले ही बिखर जाएंगी।
वे मध्य वर्ग और कामकाजी युवाओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। इस बीच एमवाइ यानी महिला और युवाओं का एक नया आकांक्षी वोट बैंक भी तैयार हुआ है। नीतीश कुमार की महिला मतदाताओं में खासी लोकप्रियता है और यह अकारण नहीं है। छात्राओं के लिए उनकी साइकिल योजना बड़ी सफल रही है। इसी तरह जीविका दीदी से लेकर महिलाओं को 10,000 रुपये राशि की हालिया पहल से भी उनकी लोकप्रियता बढ़ने वाली है। शराबबंदी की भी सबसे बड़ी समर्थक महिलाएं ही मानी जाती हैं। युवाओं को भी रोजगार के अलावा, मेट्रो और हवाई अड्डे जैसी परियोजनाओं के जरिये लुभाया जा रहा है। राजद बेरोजगारी के मुद्दे को तूल देकर युवाओं को साधने में लगी है। तेजस्वी ने हर घर से एक सरकारी नौकरी का वादा भी इसी मंशा के साथ किया है।
बिहार का यह चुनाव विपक्षी दलों की विश्वसनीयता और चुनाव आयोग की साख का भी सवाल बन गया है। बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआइआर की चर्चा के बीच यह पहला चुनाव है। आयोग को लेकर जो सवाल उठ रहे हैं उनका जवाब भी इस चुनाव के जरिये मिल जाएगा। महागठबंधन के हारने की स्थिति में न केवल इन आरोपों की हवा निकल जाएगी, बल्कि उसकी रणनीति और विश्वसनीयता पर भी संदेह के बादल गहराएंगे। महाराष्ट्र में मिली हार के बाद से ही कांग्रेस वोट चोरी के मुद्दे पर आक्रामक है। ऐसे में, यदि इस मुद्दे ने मतदाताओं को प्रभावित नहीं किया तो उसके लिए बहुत असहज स्थिति हो जाएगी।
वैसे भी लोकसभा चुनाव में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन करने के बाद से कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिरावट से जूझ रहा है। हरियाणा में जीत की उमंग में तैर रही पार्टी को नतीजों ने खासा मायूस किया था। महाराष्ट्र में भी उसे हार ही मिली। उसके पास राजनीतिक सौदेबाजी के लिए पहले से ही बहुत कम पूंजी है। इसके बावजूद वह सीटों के लिए राजद के साथ अड़ी हुई है। दोनों में खटपट और खटास की भी खबरें हैं। ऐसे में, कांग्रेस पर यह दबाव भी होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की हार का ठीकरा जिस तरह उस पर फूटा था, इस बार उसकी पुनरावृत्ति न हो।
सत्तारूढ़ राजग की बात करें तो पारंपरिक रूप से बड़े भाई की भूमिका में रही जदयू अब भाजपा के साथ एक ही पलड़े पर बैठी नजर आ रही है। लोजपा भी कड़ी राजनीतिक सौदेबाजी के तहत पर्याप्त संख्या में सीटें हासिल करने में सफल हुई है। अगर पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहा तो राज्य की राजनीति में चिराग की रोशनी और बढ़ेगी। संभव है कि जीत की स्थिति में राजग के भीतर मुख्यमंत्री के स्तर पर कोई बदलाव दिख सकता है। तेजस्वी यादव के लिए भी यह कड़ी परीक्षा है, क्योंकि यह उनकी राजनीतिक सक्रियता और नेतृत्व में लगातार तीसरा चुनाव होगा और यदि वह राजद को सत्ता तक पहुंचाने में सफल नहीं हुए तो न केवल पार्टी, बल्कि परिवार के भीतर भी उन्हें चुनौती मिल सकती है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)
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