विचार: कमजोर पड़ते लोकतांत्रिक मूल्य, मूलभूत सिद्धांतों को पुनर्स्थापित करना जरूरी
अमेरिकी राष्ट्रपति जब अपनी सनक में कहते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था मर चुकी है तो उसे विपक्ष के नेता तोता-रटंत करते हुए बिना अपने मस्तिष्क का उपयोग किए दोहरा देते हैं। कुछ तो ऐसे भी हैं, जो लगातार विदेश जाकर भारत की अस्वीकार्य आलोचना करते हैं, पाकिस्तान से देश के चयनित प्रधानमंत्री को हटाने में मदद मांगते हैं। देश के बुद्धिजीवियों, विद्वानों तथा राष्ट्र-समर्पित युवाओं को गहन विचार-विमर्श कर लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को पुनर्स्थापित करने की पहल करनी चाहिए।
HighLights
युवा पीढ़ी में लोकतंत्र को लेकर सवाल
मूल्यों का ह्रास और नैतिकता का पतन
लोकतंत्र के मूल्यों को पुनर्स्थापित करना जरूरी
जगमोहन सिंह राजपूत। इस समय वे युवा चर्चा में हैं, जो कार्यकारी जीवन में प्रवेश कर चुके हैं या कर रहे हैं। इनमें मिलेनियल्स और जेनरेशन-जी जैसे वर्ग शामिल हैं। इन्होंने लोकतंत्र की परिभाषा विश्वविद्यालयों में सीखी है और उसके सिद्धांत तथा मूल्यों को पुस्तकों में पढ़ा है। ये सैद्धांतिक और व्यावहारिक लोकतंत्र में जो अंतर है, उसे देख सकते हैं, अंतर का विश्लेषण कर समाधान के विकल्प सोच सकते हैं। जो कुछ इस पीढ़ी ने देखा, सुना और समझा है, जो कुछ विद्वानों से सीखा या पुस्तकों में पढ़ा है, उसमें और लोकतंत्र के व्यावहारिक स्वरूप में विशाल अंतर इन्हें असमंजस में डाल रहा है।
इससे व्यग्रता जन्म लेती है, बढ़ती है और अनेक अवसरों पर वह उग्रता में परिवर्तित हो जाती है। श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की घटनाओं को इस संदर्भ में ही विश्लेषित किया जा रहा है। एक दूसरा वर्ग भी उन लोगों का है, जिनका जन्म परतंत्र भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की प्रजा के रूप में हुआ। वे स्वतंत्र भारत के नागरिक बने। इन्होंने देश के विभाजन तथा आबादी को 40 करोड़ से 140 करोड़ होते देखा एवं उससे जुड़े अन्य परिवर्तनों से भी भलीभांति प्रभावित हुए हैं। ये वे लोग हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन की खुशबू से परिचय पाया।
इनकी अपेक्षाएं और आशाएं उस वातावरण में बढ़ रही थीं, जिसमें ऐसे अनेक व्यक्ति उपस्थित थे, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। उस पीढ़ी ने लोकतंत्र के जिस सैद्धांतिक लोकतंत्र से परिचय पाया था, उसी के अनुरूप सत्ता में पहुंचे लोगों को जीवन जीते देखा और आज उसको लगातार विरूपित होते भी देख रहे हैं। इनके समक्ष ज्यादा विचलित करने वाली स्थिति है या उन युवाओं के समक्ष, जिन्हें अपने भविष्य को जीना है, अपने लक्ष्य निर्धारित कर उन्हें प्राप्त करने के प्रयासों को प्रारंभ करना है।
20वीं सदी के उत्तरार्ध में जो देश प्रजातंत्र को अपना रहे थे, उनमें भारत में ही यह सबसे अधिक सफलतापूर्वक स्थापित हो सका है। भारत में प्राचीन परंपराओं और ‘परहित’ की सार्वभौमिक समझ के कारण ही लोकतंत्र व्यवस्थित ढंग से लागू हुआ और चलता रहा है, पर यह अत्यंत आश्चर्य का विषय है कि त्याग, तपस्या और जनसेवा के जो मूल्य गांधीजी और उनकी पीढ़ी के लोग सिखा गए, वे सब कहां खो गए। जैसे-जैसे चयनित प्रतिनिधियों को सत्ता में मिलने वाले अधिकार एवं सुविधाएं मिलीं, वे अपने निर्वाचकों को भूल गए और संपत्ति के संग्रहण में खो गए। पुलिस, कचहरी और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सामान्य व्यक्ति के लिए अत्यंत कष्टकर है।
हालांकि अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के लिए पिछले कुछ वर्षों में सार्थक प्रयास किए गए हैं, ताकि उसका जीवन सुधरे और वह अपना जीवन सम्मान और मानवीय गरिमा के साथ जी सके, परंतु समस्या यह है कि यदि ऊपर से नीचे तक अधिकांश सरकारी कर्मचारी नैतिकता के मूल्यों से विलग हो चुके हों तो अच्छे से अच्छा प्रयास कागजों पर जो दर्शाता है, वह व्यावहारिकता में लगभग शून्य हो जाता है।
आखिर भारत जैसे देश में जहां मानव मूल दर्शन में ‘सर्वभूतहिते रतः’ (सभी प्राणियों के हित में लगे रहना) को अंगीकार किया गया हो, वहां नैतिकता बड़े स्तर पर तिरोहित होने के स्तर तक कैसे पहुंच गई है? क्या लोकतंत्र का अर्थ चुनाव जीतकर सत्ता में कोई पद पाना, अगले पांच वर्ष तक हर प्रकार से सपत्ति संग्रह करना और जनसेवा के स्थान पर अगला चुनाव जीतना मात्र रह गया है? चयनित प्रतिनिधियों ने अपने लिए सुविधाएं लगातार बढ़ाई हैं।
संभवतः अधिकांश यह भूल गए हैं कि इस देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी राजेंद्र प्रसाद, लालबहादुर शास्त्री, कर्पूरी ठाकुर, गुलजारी लाल नंदा, एपीजे अब्दुल कलाम जैसे अनेकानेक लोग हुए हैं, जो सत्ता में रहे, लेकिन केवल जनसेवा को ही जीवन लक्ष्य बनाया। अपना या अपने परिवार का सुख, संपत्ति और स्वजनों को आगे बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया। पिछले दस वर्षों में भारत की वैश्विक साख सम्मानजनक स्तर पर पहुंच चुकी है, लेकिन नैतिकता और मूल्यों के ह्रास की प्रक्रिया रुकी नहीं है। भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं।
1962 और 1965 के युद्ध के समय सभी पंथों, जातियों, वर्गों के लोग हर प्रकार के अंतर और भेद को भुलाकर सरकार के साथ खड़े हुए। पक्ष-विपक्ष या राजनीतिक दल जैसा कोई भेदभाव नहीं था। 1971 में भी इंदिरा गांधी को विजय का श्रेय देने में पक्ष-विपक्ष पूरी तरह एक हो गया था। आज स्थिति यह है कि देश की सेना जो जानकारी देती है, उस पर विपक्ष प्रश्न पूछता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जब अपनी सनक में कहते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था मर चुकी है तो उसे विपक्ष के नेता तोता-रटंत करते हुए बिना अपने मस्तिष्क का उपयोग किए दोहरा देते हैं। कुछ तो ऐसे भी हैं, जो लगातार विदेश जाकर भारत की अस्वीकार्य आलोचना करते हैं, पाकिस्तान से देश के चयनित प्रधानमंत्री को हटाने में मदद मांगते हैं। देश के बुद्धिजीवियों, विद्वानों तथा राष्ट्र-समर्पित युवाओं को गहन विचार-विमर्श कर लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को पुनर्स्थापित करने की पहल करनी चाहिए।
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)













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