क्षमा शर्मा। बुकर पुरस्कार से सम्मानित अरुंधती राय की किताब 'मदर मैरी कम्स टू मी' आई है। बताते चलें कि अरुंधती की मां का नाम भी मैरी राय था। कुछ अखबारों ने इस पुस्तक के बहुत से अंश छापे हैं। इन अंशों में अरुंधती ने अपनी मां की विकट आलोचना की है। जैसे ही इस किताब का मुखपृष्ठ प्रकाश में आया, डिजिटल मीडिया में बवाल मच गया। इस पुस्तक के आवरण पर एक लड़की का सिगरेट पीते चित्र छपा है। इसके समर्थक कहने लगे कि मात्र मुखपृष्ठ देखकर किसी किताब के बारे में निर्णय क्यों देना चाहिए। सिगरेट लड़कियां पिएं या न पिएं, यह उनकी मर्जी है।

आप मारल पुलिसिंग करने वाले कौन होते हैं। नैतिकता के सारे प्रश्न स्त्रियों पर ही क्यों लादे जाते हैं। यह वह जमाना नहीं कि लड़कियां किसी की आलोचना से डर जाएंगी। बहुत-सी लड़कियों और स्त्रियों ने सिगरेट पीते हुए अपने चित्र फेसबुक पर लगाए। यहां तक कि मुक्तिबोध और राजेंद्र यादव को भी बीच में ले आया गया कि उनकी तो किसी ने आलोचना नहीं की, जबकि मुक्तिबोध का बीड़ी पीते हुए चित्र उनकी पुस्तक के आवरण पर ही छपा था और राजेंद्र यादव का भी सिगार पीते हुए चित्र छपा था।

विरोधियों ने कहा कि सवाल लड़कियों के सिगरेट पीने न पीने का नहीं है, सवाल स्वास्थ्य से जुड़ा है। इसे प्रगतिशीलता और स्त्रीवाद से जोड़ना अच्छा नहीं है। यदि लड़के भी ऐसा करते हैं, तो वे आलोचना से परे नहीं हैं। यह भी कहा गया कि आखिर अरुंधती अपने अलगाववादी विचारों के लिए ही जानी जाती हैं। वह कश्मीर के लोगों का आवाहन कर चुकी हैं कि इस भूखे-नंगे हिंदुस्तान से अलग हो जाओ। कुछ दिनों पहले यह लेखिका अपने मोहल्ले के पान वाले के पास गई थी। देखा कि एक के बाद एक लड़कियां सिगरेट खरीद और पी रही हैं। पान वाले से पूछा तो उसने कहा अब लड़कियां बहुत ज्यादा सिगरेट खरीदती हैं।

किसी भी तरह से तंबाकू का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन और बहुत से डाक्टर बार-बार कहते रहे हैं। स्वास्थ्य की चिंता सिर्फ लड़कों को ही नहीं, लड़कियों को भी करनी चाहिए, लेकिन उस विचार को क्या कहा जाए, जो खान-पान को भी प्रगतिशीलता से जोड़ता है और सवाल उठाने वालों को रूढ़िवादी, पितृसत्ता का प्रतीक आदि कहता है। कौन नहीं जानता कि किसी उत्पाद को बेचने के लिए प्रकाशकों और लेखकों द्वारा मिलकर कैसी-कैसी मार्केटिंग रणनीतियां बनाई जाती हैं।

प्रकाशकों के लिए किताब एक उत्पाद ही है, जिसे उन्हें खूब बेचना है और भारी मुनाफा कमाना है। इसीलिए किसी खास बात को प्रगतिशीलता और किसी बात को रूढ़िवादिता से जोड़ दिया जाता है। ऐसा करते वक्त अपने ही उस विचार का कतई ध्यान नहीं रखा जाता, जिसमें चुनाव की बात की जाती है। चुनाव में भी आखिर उस चीज को कैसे अच्छा माना जा सकता है, जो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो। मार्केटिंग से जुड़ी एक वरिष्ठ अधिकारी ने कभी कहा था कि हम चाहें तो जहर को भी अमृत बनाकर बेच दें। बस, बेचना आना चाहिए।

बहुत पहले सिगरेट बनाने वाली एक कंपनी के मालिक जार्ज वाशिंगटन हिल को महसूस हुआ कि उसकी बिक्री उतनी नहीं हो रही, जितनी होनी चाहिए। उन दिनों अमेरिका में स्त्री अधिकारों की बातें खूब हो रही थीं। वाशिंगटन हिल को जैसे समस्या का हल मिल गया। उन दिनों अमेरिका में भी स्त्रियां सिगरेट नहीं पीती थीं। वे एक मशहूर व्यक्ति एडवर्ड बर्नेज के पास पहुंचे। उन्होंने सिगरेट को स्त्री समानता और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ एक ताकतवर औजार की तरह पेश किया।

अमेरिका की बहुत-सी अमीर स्त्रियों को पैसे देकर इस बात के लिए मनाया कि वे सड़क पर सिगरेट पीती हुई निकलें। आखिरकार 1929 में न्यूयार्क में रविवार के दिन रैली निकाली गई, जिसमें बड़ी संख्या में स्त्रियां सिगरेट पी रही थीं। इस रैली को नाम दिया गया- टार्चेज आफ फ्रीडम। जैसा कि होना था, रैली को मीडिया में खूब जगह मिली और सिगरेट स्त्रियों के बीच छा गई। स्त्री स्वातंत्र्य के नाम पर यह अन्य देशों में भी जा पहुंची। वाशिंगटन हिल के पौ बारह हो गए।

कभी अपने यहां भी सिगरेट के ऐसे विज्ञापन टीवी और अखबारों में आते थे, जिनमें सिगरेट पीने वाले को बेहद शक्तिशाली और असली मर्द बताया जाता था। बाद में सरकार ने ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगा दी। हाल में जब तंबाकू उत्पादों पर 40 प्रतिशत जीएसटी लगाया गया, तो इसका मकसद भी तंबाकू उत्पादों से दूर रखने की मंशा से किया गया होगा। किसी पुरानी फिल्म में जब कोई सिगरेट पीता दिखाई देता है, तो नीचे वैधानिक चेतावनी आती है, जिसमें लिखा रहता है कि धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, लेकिन उसी भारत में एक किताब इसलिए चर्चा पा रही है कि उस पर सिगरेट पीती लड़की का चित्र छपा है। नीचे कोई वैधानिक चेतावनी भी नहीं लिखी। हो सकता है कि किताब के विवाद से लेखिका और उनके प्रकाशक को लाभ हो। इसे ही जहर बेचना कहते हैं।

(लेखिका साहित्यकार हैं)