जागरण संपादकीय: पूरे मोर्चे में बदल चुका है आधा मोर्चा, भारत विरोधी गठजोड़ से चौकन्ना रहने की जरूरत
कभी मुस्लिमों के साथ कुछ हिंदू गलत करते हैं और कभी कुछ मुस्लिम हिंदुओं के साथ लेकिन क्या ब्रिटेन फ्रांस जर्मनी आदि में मुस्लिम-ईसाई भाईचारे के तराने गाते रहते हैं? क्या वहां लोग ‘नो गो जोन’ से आजिज नहीं? सरकार के साथ समाज को यह समझना होगा कि इस भारत विरोधी बड़े गठजोड़ से चौकन्ना रहने की जरूरत बढ़ गई है।
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सुशांत सरीन। जनरल बिपिन रावत ने देश के समक्ष चुनौतियों का उल्लेख करते हुए जिस ढाई मोर्चे की बात की थी, उसकी ऑपरेशन सिंदूर के समय खूब चर्चा हुई, लेकिन इस आधे मोर्चे ने अब एक पूरे मोर्चे का रूप ले ले लिया है। यह सब जानते हैं कि पहले और दूसरे मोर्चे के रूप में पाकिस्तान और चीन हैं, लेकिन आधे से पूरा मोर्चा बन गए तीसरे मोर्चे की सच्चाई-गहराई से लोग अनजान ही अधिक हैं।
इस मोर्चे में केवल अलगाववादी, माओवादी, खालिस्तानी और भारत को इस्लामी देश बनाने, गजवा-ए-हिंद करने का मुगालता पाले जिहादी और पाकिस्तान एवं चीनपरस्त तत्व ही नहीं हैं। इसमें राजनीति, सिविल सोसायटी, अकादमिक, बौद्धिक जगत के साथ मीडिया, इंटरनेट मीडिया में सक्रिय लोग भी हैं और मतांतरण कराने वाली ताकतें भी। इनकी पहुंच शासन-प्रशासन से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक है।
इस मोर्चे में उन भारतीयों को भी गिनिए, जो विदेश में जा बसे हैं या फिर जो देश में ही रहकर अमेरिका, चीन या पाकिस्तान के एजेंडे की पैरवी खुले-छिपे ढंग से करते हैं। ऑपरेशन सिंदूर के समय इस देशघाती मोर्चे के एक बड़े हिस्से को अच्छे से नियंत्रित किया गया। माओवादियों के सफाए का अभियान जारी रहा, जम्मू-कश्मीर में आतंकियों के खात्मे के साथ उनके समर्थकों की धरपकड़ होती रही। बांग्लादेशी घुसपैठियों को पकड़ा गया। पाकिस्तान के लिए काम करने वाले तत्वों की गिरफ्तारी भी होती रही, जैसे यूट्यूबर ज्योति, गजाला, नोमान, अरमान, तारीफ, सुखप्रीत सिंह आदि। ऐसे लोगों की गिनती करना कठिन है।
पहलगाम की भयावह आतंकी घटना के बाद भी देश में सांप्रदायिक बैर देखने को नहीं मिला। खुद कश्मीरी मुसलमान आतंक के खिलाफ खड़े हुए। देश भर में एकजुटता दिखी। ऑपरेशन सिंदूर से पस्त पाकिस्तान की सरकार, सेना और वहां के मीडिया ने झूठ-कपट के सहारे कश्मीरी मुसलमानों के साथ सिखों को उकसाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहा। ऑपरेशन सिंदूर एक तरह का युद्ध था। युद्ध के समय सूचना युद्ध से भी लड़ना होता है।
भारत ने फर्जी और झूठी खबरों के खिलाफ तो लड़ाई करीब-करीब अच्छे से लड़ी, लेकिन विदेशी मीडिया के झूठे नैरेटिव की काट में पर्याप्त सक्षम नहीं रहा। न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, टेलीग्राफ, द इकोनमिस्ट, साउथ चाइना मार्निंग पोस्ट, सीएनएन, बीबीसी, रायटर्स, ब्लूमबर्ग आदि के साथ पाकिस्तानपरस्त तुर्किये के टीआरटी और अलकायदा के भोंपू रहे कतर के अलजजीरा जैसे चैनल भारत के खिलाफ माहौल बनाते रहे। अब भी बना रहे हैं।
इन्होंने बड़ी बेशर्मी से यह बताने की कोशिश की कि पाकिस्तानी सेना भारत पर भारी पड़ी। यदि ऐसा था तो वह अपने एयरबेस क्यों नहीं बचा पाई? न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट तबाह हुए पाकिस्तानी एयरबेस की सेटेलाइट इमेज देखकर मन मारकर यह लिखने को मजबूर तो हुए कि भारतीय सेना ने पाकिस्तान को पस्त कर दिया, लेकिन उनके संग अधिकांश पश्चिमी मीडिया बिना प्रमाण यह ढोल बजाने से बाज नहीं आया कि भारत ने अपने विमान गंवा दिए।
चलिए माना भी कि हमारे एक-दो विमानों ने नुकसान उठाया तो क्या यह सच नहीं कि हमारी सेनाओं ने पाकिस्तान को धूल चटाने के साथ तुर्किये एवं चीन के हथियारों और उनके डिफेंस सिस्टम की पोल खोल दी?
यदि किसी निर्णायक मैच में कोहली या रोहित शर्मा के सस्ते में आउट होने के बाद भी भारत पाकिस्तानी गेंदबाजों की धज्जियां उड़ाकर आसानी से जीत जाए तो क्या कोई यह हेडलाइन बनाएगा-पाकिस्तान के सामने नाकाम रहे विराट-रोहित। पश्चिमी मीडिया पाक-चीन को शर्मिंदगी से बचाने के लिए ऐसा ही कर रहा है।
हम ऐसी खबरों की हेडलाइन तो देखते हैं, लेकिन खबर-लेख लिखने वाले की पड़ताल नहीं करते और यह सोचने लगते हैं कि ये सब कह रहे हैं तो कुछ तो सच होगा ही। यह हमारा मनोबल तोड़ने, संशय में डालने वाला साइकोलाजिकल वार है। हमें यह मानना होगा कि इसका सामना करने में हम अभी पूरी तरह सक्षम नहीं हो सके हैं।
ऑपरेशन सिंदूर के समय पश्चिमी मीडिया में भारत विरोधी अधिकांश खबरें-लेख लिखने वाले पाकिस्तानी ही थे। इनके लिखे की फैक्ट चेकिंग तो दूर रही, पुष्टि भी नहीं की गई। नतीजा स्काई न्यूज पीटीवी के हवाले से और पीटीवी स्काई न्यूज के जरिये बता रहा था कि भारत के दो विमान मार गिराए गए। पश्चिमी मीडिया ने यह सर्कुलर गेम खूब खेला। वहां तमाम भारत विरोधी खबरें भारत को नापसंद करने वाले अमेरिकियों, यूरोपीयों के साथ भारतीय भी लिखते हैं।
भारत विरोधी और वामपंथी एजेंडे वाली द इकोनमिस्ट का डिफेंस एडिटर एक भारतीय ही है, जो भारत को कमतर बताने में लगा रहा। देश-विदेश में ऐसे ‘ब्राउन सिपाहियों’ की कमी नहीं। इन्हें भारत का कुछ भी नहीं भाता है। इसका कारण वैचारिक कट्टरता, सनक भरे लिबरलिज्म के साथ भारत के प्रति दुराग्रह और व्यावसायिक हित भी हैं। पश्चिमी मीडिया की बात कौन करे, अपने कुछ अंग्रेजी अखबार चीन सरकार के विज्ञापन बिना किसी शर्म-संकोच छापते हैं। आखिर चीन या पश्चिमी देशों के पैसे पर पलने वाला देसी-विदेशी मीडिया भारत के हित की बात कैसे लिखेगा?
भारत विरोधी मोर्चे का हिस्सा बना देसी-विदेशी मीडिया यह बताने को भी उतावला रहता है कि मोदी के पीएम बनने के बाद भारत में मुसलमानों पर आफत टूट पड़ी है। क्या वाकई? क्या वे भारत से भाग रहे हैं? बांग्लादेशी-रोहिंग्या तो घुसे चले आ रहे हैं और बड़े-बड़े वकील उन्हें देश में अच्छे से रहने-बसने देने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खुलवाने में सक्षम हैं। इससे इन्कार नहीं कि बड़ी आबादी वाले भारत में हिंदू-मुस्लिम के बीच बैर, तनाव, हिंसा की घटनाएं होती रहती हैं।
कभी मुस्लिमों के साथ कुछ हिंदू गलत करते हैं और कभी कुछ मुस्लिम हिंदुओं के साथ, लेकिन क्या ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि में मुस्लिम-ईसाई भाईचारे के तराने गाते रहते हैं? क्या वहां लोग ‘नो गो जोन’ से आजिज नहीं? सरकार के साथ समाज को यह समझना होगा कि इस भारत विरोधी बड़े गठजोड़ से चौकन्ना रहने की जरूरत बढ़ गई है।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो एवं पाकिस्तान मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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