हास्य-व्यंग्य: न्यूनतम सम्मान की भी गारंटी मिले, लिखना और सम्मानित होना दो अलग चीजें
लिखना और सम्मानित होना दो अलग चीजें हैं। केवल लिख भर देने से सम्मान मिलता तो मुझे अब तक दर्जनों बार मिल चुका होता। पिछले पांच वर्ष में ही मेरी 25 किताबें आई हैं। नकद मिलने की कौन कहे हमें अपने पल्ले से हजारों रुपये लगाने पड़े।
संतोष त्रिवेदी: सुबह की सैर से लौटा ही था कि श्रीमती जी ने बम फोड़ दिया, ‘यह देखो, तुम्हारे मित्र अज्ञात जी को पूरे चार लाख रुपये का सम्मान मिला है। तुम भी तो लिखते हो। कभी तुम्हारे हिस्से कुछ आया?’ यह कहकर श्रीमती जी ने अखबार मेरी ओर बढ़ा दिया। मैं अभी अपनी उखड़ी हुई सांसों पर काबू पाने की कोशिश में था कि इस खबर से धड़कनें और तेज हो गईं। उस वक्त को कोसने लगा, जब मैंने श्रीमती जी को रोज अखबार पढ़ने की सलाह दी थी। आदमी कहीं भी, कितना भी गिर ले, मगर अपनी पत्नी के सामने गिरता हुआ दिखना उसे नागवार गुजरता है। मैंने सामान्य होने का ढोंग करते हुए श्रीमती जी के सवाल का उत्तर दिया, ‘वे सदैव से सम्मान-प्रेमी रहे हैं। लोग देते हैं, वे ले लेते हैं। एक और मिल गया तो क्या हुआ? और हां, तुम्हें कुछ पता भी है? अज्ञात जी के तगड़े कनेक्शन हैं। उसी का नतीजा है। रही बात मेरी तो मैं सम्मान के लिए नहीं लिखता।’ अखबार को बिना पढ़े ही मैंने उसे मेज के नीचे सरका दिया।
मामला तूल न पकड़े, इसलिए मैंने ऐसा ठंडा रिस्पांस दिया, पर श्रीमती जी जैसे निपटने के मूड में थीं। वैसे सच बताऊं, अंदर ही अंदर मैं खुद निपट चुका था। चार लाख रुपये की रकम थोड़ी नहीं होती। सम्मान देने वाले इस राशि को गुप्त भी रख सकते थे, लेकिन फिर दूसरे लेखकों के दिल में सांप कैसे लोटते! सम्मानदाताओं ने दो गलतियां कीं। एक यह कि जो पहले से खूब सम्मानित है, उसे ही ‘सम्मान’ दिया और दूसरा यह कि इनामी-राशि उजागर कर दी। इससे तो साहित्यिक-समाज में विषमता फैलेगी। अगर क्रिकेट की तरह ग्रेड-सिस्टम यहां भी लागू हो जाए तो न्यूनतम सम्मान की गारंटी तो होगी!
लेखक भले समाज में समता लाने के लिए लिखता हो, पर खुद लेखकों की कैटेगरी होने में कोई बुराई नहीं। मैं यह सोच ही रहा था कि श्रीमती जी ने अगला धमाका किया, ‘आखिर क्या खूबी है उनके लेखन में जो तुम्हारे में नहीं है? पिछले कई वर्षों से तुम भी तो लिखे जा रहे हो। कोई इन्हें पढ़ता क्यों नहीं? और तो और, शहर की हो या बाहर की, हर गोष्ठी में पहुंचते हो। तीन-तीन ग्रुपों में एडमिन भी बने हुए हो। फिर भी किसी को तुम्हारा नाम क्यों नहीं सूझता?’श्रीमती जी गुगली के साथ-साथ बाउंसर भी फेंक रही थीं। मैं उनसे इस तरह के साहित्यिक-हमले की उम्मीद नहीं कर रहा था।
मैं पत्नी के सामने खुद को बेहद अपमानित महसूस करने लगा। सोचने लगा, दूसरे का सम्मान, अपना अपमान कैसे हो सकता है, पर यह हो रहा था। फिर भी उसका घूंट पीते हुए सोच को नई दिशा दी और दिल को तसल्ली।
लिखना और सम्मानित होना दो अलग चीजें हैं। केवल लिख भर देने से सम्मान मिलता तो मुझे अब तक दर्जनों बार मिल चुका होता। पिछले पांच वर्ष में ही मेरी 25 किताबें आई हैं। नकद मिलने की कौन कहे, हमें अपने पल्ले से हजारों रुपये लगाने पड़े। यह सब मैंने साहित्य-सेवा की भावना से किया। ऐसा भी नहीं है कि मुझे सम्मान नहीं मिलता। अभी गुजरे पुस्तक-मेले में ही मैंने 10 विमोचन और 20 लोकार्पण किए हैं। पचासों लेखकों को आटोग्राफ की हुई अपनी पुस्तकें भेंट कीं। पूरा इंटरनेट मीडिया मेरी तस्वीरों से भर गया था। मगर ये खबरें तुम तक नहीं पहुंचीं। इसमें मेरा क्या दोष? मैं यह सब कहना चाह रहा था, पर कहा नहीं। आगे और कठिन सवाल हो सकते थे। और जवाब देने का मेरा मूड कतई नहीं था, पर मन तो खराब हो ही गया था। बहलाने के खयाल से मैंने इंटरनेट मीडिया का रुख किया। शायद कोई हो जिसकी भावनाएं मेरी तरह आहत हुई हों।
सबसे पहले पथिक जी की पोस्ट पर नजर गई। वे अल्ट्रा-वरिष्ठ हैं। उन्होंने अज्ञात जी को दिल खोलकर बधाई दी थी। मेरा दिल एकदम से बैठ गया। उनसे तो यह उम्मीद नहीं थी। फोन पर जब भी उनसे बात होती, उनके लेखन में हजार कमियां निकालते। आज कह रहे हैं कि अज्ञात जी ने लेखकों के लिए नया रास्ता खोल दिया है। मैंने दूसरे मित्र को फोन किया, जो वर्षों से इस सम्मान की लाइन में खड़े हैं। उन्होंने बताया कि पथिक जी यह सब इसलिए लिख रहे हैं, क्योंकि सम्मानदाता उसकी मित्र-सूची में हैं। यह सुनते ही मेरा दिमाग ठिकाने आ गया। शायद सम्मानदाताओं की दृष्टि मुझ पर भी पड़े, मैंने भी टिप्पणी जोड़ दी, ‘अज्ञात जी का अभी सही मूल्यांकन शेष है। ये इससे भी बड़े इनाम के हकदार हैं। उन्हें सम्मान देने का निर्णय ऐतिहासिक है।’
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