विवेक काटजू। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के निधन के बाद मध्य वर्ग से लेकर कारोबार जगत और औद्योगिक एवं राजनीतिक गलियारों में शोक जताया गया। खांटी नेता न होते हुए भी उन्होंने राजनीतिक मोर्चे पर इतना कुछ हासिल किया, जिसकी कुछ लोग सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं। डा. सिंह एक बुद्धिजीवी भी थे और उन्होंने भारतीय नीतिगत परिदृश्य पर अपनी व्यापक छाप छोड़ी।

हालांकि इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक पटल के शीर्ष पर बैठे लोग जिस प्रकार नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं, उसमें डा. सिंह अपेक्षित रूप से असर नहीं छोड़ पाए। चाहे प्रधानमंत्री का दायित्व हो या फिर उससे पहले वित्त मंत्री का, उनकी भूमिका मुख्य रूप से वास्तविक राजनीतिक शक्ति से लैस दिग्गजों के सहायक-सलाहकार की ही रही, जिन्होंने स्वीकार्य नीतियों को नौकरशाही के जरिये लागू करने का काम किया।

जब वह प्रधानमंत्री थे तो पूरी राजनीतिक शक्ति सोनिया गांधी के पास थी, जो उस समय तमाम निर्णायक फैसलों से जुड़ी रहीं। उनके पास ही वह शक्ति थी, जिससे वह मनमोहन सिंह को कोई भी फैसला लेने के लिए प्रोत्साहित करने के साथ ही उन्हें किसी निर्णय को लेने से रोक भी सकती थीं। इसी तरह जब डा. सिंह वित्त मंत्री थे, तब वस्तुतः प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने ही अर्थव्यवस्था के उदारीकरण को हरी झंडी दिखाई। यह एक विडंबना ही है कि राव को भारतीय इतिहास में वह सम्मान और स्थान नहीं मिला, जिसके वह सर्वथा सुपात्र थे।

उन्होंने शीत युद्ध के बाद अस्थिरता वाले वैश्विक दौर में भारत को सही राह दिखाई और 6 दिसंबर, 1992 की घटना को लेकर उन पर चाहे जितने सवाल उठें, इससे उनकी विरासत संदिग्ध नहीं हो जाती। राजनीति में सक्रिय लोगों की यात्रा उतार-चढ़ाव वाले विभिन्न पड़ावों से होकर गुजरती है। बेशक राजनीतिक परिवारों से आने वालों की राह भी आसान नहीं रहती, लेकिन जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं होती, उनके लिए यह यात्रा और कठिन हो जाती है।

जो किसी तरह के प्रत्यक्ष चुनाव के जरिये आगे बढ़ते हैं, वही असल राजनीतिक राह के पथिक बनते हैं। चुनावों के जरिये मिलने वाले राजनीतिक सबक ही किसी को खांटी नेता के रूप में ढालते हैं। उससे उन्हें समझ आता है कि जनता की नब्ज को कैसे भांपना है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि ऐसे नेता जनता का भरोसा जीतने में सफल होते हैं, क्योंकि वे लंबे समय तक उनके साथ संवाद से जान जाते हैं कि लोगों के मन में क्या है और वे क्या चाहते हैं? वे लोगों के सुख-दुख के साथी बन जाते हैं।

यह कुछ ऐसा अनुभव है, जिसे अकादमिक जगत के लोग, टेक्नोक्रेट और निजी क्षेत्र के पेशेवर शायद कभी अर्जित नहीं कर पाएं। इसलिए यह पूरी तरह उचित ही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में वही लोग उच्च राजनीतिक पदों पर बैठने के योग्य हैं, जो लोगों का भरोसा जीत पाएं। प्रधानमंत्री के मामले में यह पहलू और भी उल्लेखनीय हो जाता है। यह ऐसा पद नहीं, जिसे कभी आउटसोर्सिंग से भरा जाना चाहिए।

यह मनमोहन सिंह की उपलब्धियों, अनुभव और व्यक्तित्व का अवमूल्यन करने का प्रयास नहीं, बल्कि इसका सरोकार भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के व्यापक हित से जुड़ा है। लोग जनादेश के जरिये ही अपना भाग्य-विधाता चुनते हैं और ऐसा व्यक्ति किसी अन्य को अपने अधिकार नहीं सौंप सकता। भले ही वह व्यक्ति लंबे समय से राज्यसभा में ही क्यों न रहा हो। देश 2004 से 2014 के बीच इन्हीं स्थितियों का साक्षी रहा।

जनादेश की यह कसौटी जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी और नरेन्द्र मोदी तक लागू होती है। मोदी जनादेश के दम पर ही राजग का नेतृत्व कर रहे हैं। क्या यह उचित रहता कि वह पर्दे के पीछे से सक्रिय रहकर किसी पेशेवर को प्रधानमंत्री का पद सौंप देते? इस बिंदु पर विचार तक नहीं किया जा सकता, क्योंकि लोगों की ही यही अपेक्षा है कि जब तक उनकी चाहत है, तब तक मोदी ही नेतृत्व करें।

निःसंदेह यह नहीं कहा जा सकता कि नेताओं या प्रधानमंत्री की राजनीतिक मजबूरियां या आग्रह नहीं होते। निःसंदेह ऐसा होता है और वे उन्हीं के दायरे में अपने विकल्प चुनते हैं। माना जाता है कि अटल बिहारी वाजपेयी जसवंत सिंह को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन संघ परिवार के दबाव में ऐसा नहीं कर पाए। बहुत बाद में जाकर 2002 में वह जसवंत सिंह को वित्त मंत्रालय का जिम्मा सौंप सके।

यह दर्शाता है कि तब सत्ता समीकरण अटलजी के अधिक अनुकूल हो गए थे। राजनीति का यही चरित्र और प्रकृति है। इसी तरह, स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक दौर में जवाहरलाल नेहरू को अपनी ही पार्टी के परंपरावादी तबके के दबाव से जूझना पड़ा, लेकिन बाद में चुनावी जीत के जरिये ही वह अपनी पकड़ मजबूत बनाने में सफल रहे। यही बात इंदिरा गांधी के बारे में कही जा सकती है, जिन्होंने कांग्रेस को दोफाड़ कर अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित किया।

महान प्रशासक, रणनीतिक विशेषज्ञ, सैनिक, अकादमिक, उद्यमी, राजनयिक, कलाकार और अन्य विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय लोग देश के प्रति अपने-अपने स्तर पर योगदान देते हैं। वे सम्मान और प्रतिष्ठा के पात्र हैं। इसके बावजूद उन्हें शीर्ष राजनीतिक पद की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए और यदि जनादेश प्राप्त लोग अपने हितों को देखते हुए उन्हें ऐसी कोई जिम्मेदारी सौंपते हैं तो फिर उस दौरान लिए गए अच्छे-बुरे फैसलों का दारोमदार भी उन्हीं राजनीतिक लोगों का होना चाहिए, जो उन्हें सत्ता सौंपते हैं।

उन लोगों के बीच स्पष्ट रूप से अंतर किया जाए, जिन्हें चुनावी प्रक्रिया के जरिये लोगों का भरोसा प्राप्त होता है और जिन्हें जनादेश हासिल करने वाले तोहफे में सत्ता सौंप देते हैं। भारतीय संवैधानिक ढांचे और राजनीतिक प्रणाली की भावना ऐसी तोहफे वाली व्यवस्था में निहित नहीं है। अमेरिका जैसे देशों में तो यह असंभव सा है। डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुने गए हैं और यह जनादेश वह किसी और को हस्तांतरित नहीं कर सकते।

(लेखक पूर्व राजनयिक हैं)