डॉ ए के वर्मा

इस समय उत्तर प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव प्रचार पूरे शबाब पर है। पहले चरण के लिए मतदान हो चुका है। दूसरे-तीसरे चरण के लिए तैयारी हो रही है। एक दिसंबर को मतगणना होनी है। वर्ष 1992 में 74वें संविधान संशोधन से नगरीय निकायों अर्थात नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा मिला था। तबसे कभी भी न चुनावों को न तो जनता ने और न ही राजनीतिक दलों ने ज्यादा महत्व दिया। ऐसा पहली बार हो रहा है कि दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दल-भाजपा और कांग्रेस-पूरे दम-खम के साथ यह चुनाव लड़ रहे हैं। यही नहीं, प्रदेश में क्षेत्रीय महत्व के दोनों दल सपा और बसपा भी पिछले 22 वर्षो में पहली बार अपनी-अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ रहे हैं। न राजनीतिक दलों का नगरीय निकाय चुनावों के प्रति ऐसा प्रेम अचानक क्यों उमड़ा? यह भारतीय राजनीति और शासन के लोकतंत्रीकरण का संकेतक है।

काफी समय से देखा जा रहा है कि चुनाव चाहे नगरपालिकाओं, पंचायतों या फिर विधानसभा अथवा लोकसभा केक्यों न हों, मुद्दे वही होते हैं। मुद्दों का स्थानीयकरण होता जा रहा है। जनता को बिजली, पानी, सड़क, नाली, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, रोजगार आदि अपने क्षेत्र में चाहिए, चाहे वह छोटे शहर में रह रही हो या बड़े नगर में, गांवों में हो या कस्बों में। न्हीं क्षेत्रों से मिलकर ही तो पूरा देश बना है और न्हीं छोटे-छोटे क्षेत्रों में रहने वालों की संख्या प्रदेश और देश की सरकार एवं राजनीति को बदलने की बड़ी क्षमता रखती है। शायद यह बात राष्ट्रीय राजनीति पर लंबी-लंबी बहस करने वाले राजनीतिक दलों को अब समझ में आने लगी है। 8 नवंबर 2016 में जब मोदी सरकार ने नोटबंदी की अचानक घोषणा की तो तमाम राजनीतिक दलों, मीडिया और विश्लेषकों ने उसके दुष्परिणामों को तना बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया कि लगा कि अब तो मोदी सरकार के ‘बुरे-दिन’ आ ही गए, पर तभी ओडिशा, महाराष्ट्र, चंडीगढ़, दिल्ली आदि के स्थानीय चुनावों में जनता ने भाजपा के पक्ष में जबरदस्त मतदान कर सबको स्तब्ध कर दिया। स्पष्ट हो गया कि जनता को नोटबंदी से कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि शायद उसे ख़ुशी हुई। इस पर उत्तर प्रदेश की जनता ने तो जैसे पक्की मुहर ही लगा दी जब उसने विधानसभा चुनावों में भाजपा गठबंधन को 325 सीटें देकर उसे ऐतिहासिक विजय प्रदान की।

यह ऐसा समय था जब मोदी सरकार बचाव की मुद्रा में थी और उसके पास नोटबंदी की ‘मार्केटिंग’ का कोई अवसर भी न था। शायद सी प्रवृत्ति को भांपकर भाजपा उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों को दिसंबर 2017 में होने वाले गुजरात के विधानसभा चुनावों से जोड़ कर देख रही है। उसका मानना है कि एक दिसंबर को उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव परिणाम आने के बाद 9 और 14 दिसंबर को जब गुजरात में मतदान होगा तो उसके अच्छे प्रदर्शन का सकारात्मक प्रभाव निश्चित पड़ेगा। कांग्रेस का भी यही मानना है कि यदि वह उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों में भाजपा को पटखनी दे सकी तो गुजरात चुनाव में उसके पक्ष में माहौल और बेहतर हो सकेगा जिसका लाभ उसे 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में मिल पाएगा। ऐसा देश में पहली बार है कि राजनीतिक दल स्थानीय चुनावों को विधानसभा और लोकसभा के चुनावों से सीधे-सीधे जोड़ कर देख रहे हैं। संभवत: सीलिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को पहली बार नगरीय निकाय चुनावों में स्टार-प्रचारक की भूमिका में उतरना पड़ा। यह चुनाव उनके आठ महीने के कार्य-काल पर एक जनमतसंग्रह सा भी होगा। से गंभीरता से लेते हुए भाजपा ने पहली बार निकाय चुनावों में अपना संकल्प-पत्र जारी किया है, जिसमें नगरपालिकाओं को ‘छोटी-सरकार’ मानते हुए नागरिकों को ‘विश्व स्तरीय सुविधाएं’ मुहैया कराने का आश्वासन दिया गया है।

मुख्यमंत्री योगी के साथ-साथ सांसद मनोज तिवारी और हेमामालिनी की भी मांग हो रही है। कांग्रेस ने भी अपने स्टार प्रचारकों को उतारा है और अपनी वाकपटुता के चलते नवजोत सिंह सिद्धू की मांग बढ़ गई है, पर ताज्जुब है कि पहली बार चुनाव चिन्ह पर उतरने के बावजूद अखिलेश और मायावती न चुनावों में प्रचार नहीं कर रहे। संभवत: उन्हें शंका है कि कहीं पिछले विधानसभा चुनाव परिणामों की पुनरावृत्ति न हो जाए जिसमें सपा को 403 सीटों में केवल 47 और बसपा को मात्र 19 सीटें मिली थीं। जिस प्रकार इस वर्ष हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा नोटबंदी को लेकर बचाव की मुद्रा में थी उसी तरह वह निकाय चुनावों में जीएसटी को लेकर बैकफुट पर है, पर अच्छी बात यह है कि जीएसटी को भाजपा ने प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया और जीएसटी काउंसिल के माध्यम से लगातार उसमें संशोधन और परिवर्तन करती जा रही है जिससे व्यापारी और ग्राहक, दोनों लाभान्वित हो रहे हैं। ससे भले ही सरकारी खजाने को नुकसान हो रहा हो, जिसकी तरफ भाजपा के बागी नेता यशवंत सिन्हा ने इशारा भी किया है, लेकिन जब सरकारी खजाना भी जनता का ही है तो फिर क्या गम है?

हां, कांग्रेस जरूर सका राजनीतिक लाभ लेना चाहती है और राहुल गांधी पूरे देश में नोटबंदी और जीएसटी के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। गुजरात में व्यापारियों का अच्छा खासा वर्ग है, लेकिन देखना है कि जिस तरह पूरे देश और सभी राज्यों को साथ लेकर मोदी सरकार जीएसटी के मामले में आगे बढ़ रही है उसके विरोध का कांग्रेसी दांव कहीं उल्टा न पड़ जाए?1अभी हाल में अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग संस्था मूडीज ने 13 वर्षो के बाद भारत की रेटिंग बेहतर की है और सके कुछ समय पहले विश्वबैंक ने भी भारत में ‘ज ऑफ डूंग बिजनेस’ में भारत को 30 अंकों की लंबी छलांग देकर प्रथम 100 देशों में स्थान दिया था। अफसोस कि यह तब न हो पाया जब देश में एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री रहा। कहीं गुजरात की मिट्टी में ही कुछ अर्थ-ज्ञान के संस्कार तो नहीं? पहले बापू के चरखे ने मैनचैस्टर और ब्रिटिश साम्राज्य को शिकस्त दी और अब प्रधानमंत्री मोदी ने जन-धन, नोटबंदी, जीएसटी, आधार, ‘डायरेक्ट-बेनिफिट-ट्रांसफर’, काले-धन पर लगाम, बिचौलियों का अंत आदि अनेक नए-नए प्रयोगों से एक विशेष आर्थिक-मौद्रिक पर्यावरण बनाने की कोशिश की है, जो आगे क्या गुल खिलाएगा, उसका अभी से अनुमान लगाना मुश्किल है।

ये सभी उपाय आज किसी दवा की कड़वी घूंट की तरह लग सकते हैं, लेकिन जिस दिन ससे समाज अपने को पहले से बेहतर महसूस करने लगेगा उसी दिन वह समझ जाएगा कि एक विकसित और खुशहाल समाज का रास्ता कठिन आर्थिक निर्णयों से होकर जाता है। लोकतंत्र में कोई भी पार्टी सत्ता में हमेशा नहीं रह सकती और चूंकि आम आदमी के लिए उसके गांव, कस्बे और छोटे-बड़े शहर की छोटी-छोटी सुविधाएं ही अच्छी लोकतांत्रिक व्यवस्था और सुशासन का पैमाना होती हैं सलिए जब कभी उनके शासन की बारी आए तो वे ‘लॉलीपॉप-पॉलिटिक्स’ छोड़कर व्यक्ति, समाज और देश के हित में निर्भीक होकर कठोर निर्णय लें। राजनीतिक दल आम आदमी की अपेक्षाओं को जितनी जल्दी समङों, उनके लिए उतना ही बेहतर होगा।

[लेखक सेंटर फॅार द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं]