डॉ. एके वर्मा

नव वर्ष की पूर्व संध्या पर सुपर स्टार रजनीकांत ने राजनीति में प्रवेश की घोषणा कर दी। हालांकि उन्होंने ‘अच्छा करो, बोलो और केवल अच्छा होगा’ को अपना मार्गदर्शक नारा बताया, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं कि वह किस तरह की राजनीति करने वाले हैं। इधर दिल्ली में नई तरह की राजनीति के दावे के साथ राजनीति में उतरी आम आदमी पार्टी यानी आप के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने राज्यसभा के तीन में से दो बाहरी उम्मीदवार तय करके यह स्पष्ट कर दिया कि पार्टी में कोई और नेतृत्व उभरे, यह उन्हें स्वीकार नहीं।

मुख्य चेहरों के सामने हाशिये पर जाते अन्य नेता

इसके पहले राहुल गांधी जिस तरह कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए वह सबको पता ही है। कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए कुल 89 नामांकन भरे गए और सभी केवल एक प्रत्याशी राहुल गांधी के थे। महाराष्ट्र से एक कांग्रेसी शहजाद पूनावाला अध्यक्ष पद का नामांकन पत्र भरना चाहते थे, लेकिन वह ऐसा न कर सके, लेकिन नेतृत्व संरचना के मामले में अन्य पार्टियों का रिकॉर्ड भी अच्छा नहीं है। कांग्रेस को तो नेहरू-गांधी परिवार के वर्चस्व के लिए जाना जाता था, पर सबसे बड़ा परिवर्तन भाजपा में देखने को मिल रहा है। 2013 में भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किए जाने के बाद जनता को ऐसा लग रहा है कि पार्टी में सामूहिक नेतृत्व में गिरावट आई है। 2014 का चुनाव मोदी के नेतृत्व में लड़ा गया और उसमें प्रचंड जीत के बाद मोदी सरकार बनने पर ऐसा लगता है जैसे पार्टी के और नेता हाशिये पर चले गए हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान ऐसा महसूस नहीं हुआ था। 

सरकार पर आता संकट 

यह ठीक है कि प्रधानमंत्री मोदी की शासन के प्रति प्रतिबद्धता और कर्मठता का कोई सानी नहीं, लेकिन क्या संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री को सभी अच्छे-बुरे का उत्तरदायित्व केवल स्वयं ही वहन करना ठीक होगा? क्या सरकार और दल के पास वरिष्ठ मंत्रियों और नेताओं का कोई ‘बफर-जोन’ नहीं होना चाहिए जो किसी विषम परिस्थिति में प्रधानमंत्री को ‘कवर’ दे सके? इससे भाजपा और मोदी सरकार के सामने दो संकट आ रहे हैं। 

एक तो प्रत्येक राज्य के चुनाव में प्रधानमंत्री को उतरना पड़ रहा है जो उनके समय, स्वास्थ्य और ऊर्जा का बहुत अंश ले लेता है जिसका प्रयोग पूरे देश और दूसरे अन्य कार्यों के लिए होना चाहिए और दूसरा यह कि लोकतंत्र में अनेक कठिन परिस्थितियां आती रहती हैं और उन सभी से निपटने की जिम्मेदारी केवल प्रधानमंत्री ही क्यों उठाएं? अन्य मंत्री धीरे-धीरे कतराने लगेंगे, उनमें आत्मविश्वास की कमी होती जाएगी और वे हर चीज के लिए प्रधानमंत्री की ओर देखेंगे। इससे न केवल प्रधानमंत्री हमेशा अनावश्यक दबाव में रहेंगे, वरन सामूहिक नेतृत्व का भी ह्रास होगा। 

एक लंबी पारी खेलने के लिए संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होता है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं को जिस तरह शासन, दल-संचालन और चुनावी स्पर्धाओं में पूरी तरह झोंक सा दिया है वह वांछनीय नहीं। कांग्रेस और भाजपा देश की दो महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टियां हैं और दोनों को इस पर ध्यान देना चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक नेतृत्व और सामूहिक उत्तरदायित्व को वास्तविकता कैसे बनाया जाए? कि राज्यों के स्तर पर उनके नेता तो होते हैं, लेकिन प्रादेशिक नेतृत्व नहीं होता।  

बड़े चेहरों के सहारे चुनाव लड़तीं बड़ी पार्टियां 

दलों में नेतृत्व निर्धारण की कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं जिससे जनता को पता चल सके कि प्रदेश स्तर पर किसी पार्टी का मुख्य चेहरा कौन है? ये दोनों पार्टियां चुनाव के दौरान इसका खामियाजा भुगतती हैं, क्योंकि प्राय: उनको मोदी या राहुल के चेहरे पर ही चुनाव लड़ना पड़ रहा है। हाल के गुजरात चुनाव में भी यही देखने को मिला। यही हाल इसके पहले दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र आदि राज्यों में रहा। 

कांग्रेस में ‘आलाकमान’ संस्कृति है जो राज्यों में नेतृत्व को पनपने नहीं देती और भाजपा में यह दुहाई दी जाती है कि वह ‘कैडर’ वाली पार्टी है जिसमें सभी में नेतृत्व की क्षमता है और समय आने पर किसी को भी प्रदेश नेतृत्व के लिए चुना जा सकता है। यह भ्रामक स्थिति है और नेताओं को स्थानीय और प्रादेशिक स्तर पर प्रतिबद्ध होकर काम करने से विचलित करती है एवं जनता के मन-मस्तिष्क में पार्टियों के प्रादेशिक नेता की छवि स्थापित नहीं होने देती। यह अनेक क्षेत्रीय नेताओं को अपनी पार्टी छोड़ने और नई पार्टी बनाने को विवश करती है। कांग्रेस में तो इसके अनेक उदाहरण हैं और भाजपा भी पीछे नहीं।

लोकतांत्रिक पद्धति से चयन क्यों नहीं? 

आखिर क्यों राजनीतिक दलों द्वारा कोई ऐसी संस्थात्मक व्यवस्था नहीं की जाती जिससे लोकतांत्रिक पद्धति से नेतृत्व चयन हो सके? क्यों इसे केंद्रीय नेताओं की कृपा पर छोड़ा जाता है? क्यों देश में स्थानीय से लेकर राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों का चयन पार्टियों के कुछ बड़े नेता करते हैं? क्या यही लोकतंत्र का तकाजा है? क्षेत्रीय दलों का तो कहना ही क्या? बसपा कहने को तो राष्ट्रीय दल है, लेकिन मायावती उसे अपनी व्यक्तिगत पार्टी के रूप में देखती हैं। न राष्ट्रीय स्तर पर और न ही प्रांतीय स्तर पर उनके बाद कोई भी किसी बसपा नेता को जानता है। बाबूसिंह कुशवाहा, स्वामीप्रसाद मौर्य और नसीमुद्दीन जैसे जो इक्का-दुक्का नेता थे उन्हें भी मायावती ने निकाल बाहर किया। 

मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की सपा प्रादेशिक पार्टी है, लेकिन उसमें भी समाजवाद के ऊपर परिवारवाद हावी है और जैसी कलह परिवार में विगत एक वर्ष में देखने को मिली उससे पार्टी की उत्तर प्रदेश के चुनावों में दुर्गति हुई। देखना है कि अध्यक्ष अखिलेश यादव सपा को आगे किस तरह ले जाते हैं। कमोबेश यही हाल तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक, ओडिशा में बीजद और बिहार में राजद का है। राजनीतिक दलों का ‘कारपोरेटीकरण’ सा हो गया है और उनके मुखिया ‘सीईओ’ की तरह आचरण कर रहे हैं।

पार्टी कार्यकर्ताओं का हो रहा नुकसान 

इसमें सबसे ज्यादा नुकसान आम कार्यकर्ता का हो रहा है। उनके हिस्से में केवल दरी बिछाना और झंडा लेकर नारे लगाने का काम रह गया है। उनके अच्छे काम का पुरस्कार कोई और हड़प लेता है जो केंद्रीय नेतृत्व या आलाकमान का चहेता होता है। इससे दलों के आम-कार्यकर्ता का मनोबल टूटता है और पार्टियां जमीन पर

कमजोर होती जाती हैं। आम आदमी पार्टी इसका ताजा उदाहरण है जहां केजरीवाल ने अपने लोगों को किनारे करके दो बाहरी नेताओं को राज्यसभा भेजना बेहतर समझा।

भारत जैसे त्रि-स्तरीय संघात्मक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में राजनीतिक दलों को भी त्रि-स्तरीय नेतृत्व व्यवस्था अपनानी होगी। राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय नेतृत्व स्पष्ट रूप से घोषित होना चहिए। ऐसा कैसे हो, इस पर सभी दलों को गंभीर विचार-विमर्श करना पड़ेगा। चुनाव जीतना एक बात है, लेकिन दलों को अपने-अपने नेताओं के माध्यम से प्रत्येक स्तर पर जनता का दिल जीतना होगा। फिर चुनाव तो वे खुद-ब-खुद जीत जाएंगे, मगर जनता का दिल जीतने के लिए दलों और नेताओं को संपर्क, संवाद और समाधान की त्रिवेणी प्रवाहित करनी पड़ेगी। प्रश्न यह है कि क्या वे ऐसा करना भी चाहते हैं?

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं)