विचार: कश्मीर को लेकर सतर्क रहें, वास्तविक शांति तभी आएगी, जब कश्मीरी हिंदू सुरक्षित रूप से अपने घर वापस लौट सकेंगे
विधानसभा चुनावों का शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न होना और भारी संख्या में लोगों की भागीदारी भी उत्सावर्धक रही। इस सबसे पाकिस्तान का विचलित होना स्वाभाविक है। पहलगाम का आतंकी हमला इसी खीझ का परिणाम रहा जिसका भारत ने कूटनीतिक और सैन्य मोर्चे पर आपरेशन सिंदूर के रूप में बेहद कड़ा जवाब दिया।
ध्रुव सी. कटोच। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटे छह वर्ष हो गए। इस अवसर पर अनेक आयोजन हुए, लेकिन इसके थोड़ा पहले इस केंद्रशासित प्रदेश में सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस ने 13 जुलाई को शहीदी दिवस आयोजन की अनुमति मांगी। यह अनुमति एक तरह के उकसावे की कार्रवाई थी। अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के अलग केंद्रशासित प्रदेश बनने और संवैधानिक परिवर्तन के बाद शहीदी दिवस आयोजन पर रोक लग गई थी, क्योंकि एक बड़ी आबादी और खासकर गैर-मुस्लिम इसे लेकर असहज रहते थे। ऐसे में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला द्वारा शहीदी दिवस आयोजन की मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। जब चीजें सामान्य हो रही हैं तब वे ऐसा कुछ क्यों करना चाहते हैं, जिससे तनाव बढ़ जाए?
इतिहास के पन्ने पलटें तो जम्मू-कश्मीर में 13 जुलाई, 1948 को पहली बार शहीदी दिवस आयोजित किया गया। इस आयोजन की जड़ें 1931 की एक घटना से जुड़ी हैं। नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्राविंस में एक अंग्रेज अधिकारी के यहां अब्दुल कादिर नाम का रसोइया था। उस रसोइये ने महाराजा के विरुद्ध विद्रोह किया। राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी के बाद उसे श्रीनगर केंद्रीय कारागार में डाल दिया गया। इससे एक शंका गहराई कि नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्राविंस का एक मुस्लिम जम्मू-कश्मीर के महाराजा को आखिर क्यों अपदस्थ करना चाहता था? इसमें उसका क्या दांव लगा था या फिर वह एक बड़ी ब्रिटिश साजिश का महज एक मोहरा था? कादिर की गिरफ्तारी के विरोध और रिहाई की मांग को लेकर लोग सड़कों पर उतर आए।
जेल के बाहर 13 जुलाई, 1931 को जुटे प्रदर्शनकारी हिंसक होकर हिंदुओं की संपत्ति लूटने और उसके विध्वंस पर आमादा हो गए। राज्य को हस्तक्षेप करना पड़ा, जिसमें कुछ प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई। इसके बाद हिंसा ने शहर के अन्य हिस्सों को भी अपनी चपेट में ले लिया। महाराजगंज इलाके में सबसे अधिक नुकसान हुआ। दंगाइयों ने जिस तरह टेलीफोन और बिजली के तार काटे, उससे यही संदेह पुख्ता हुआ कि यह सब सुनियोजित था। हिंदुओं की दुकानें और घर आग के हवाले कर दिए थे। महिलाओं का उत्पीड़न किया गया। पुलिस की रक्षात्मक कार्रवाई में 22 दंगाई मारे गए थे। इस घटना की आड़ में अंग्रेजों ने महाराजा पर दबाव डालकर उनसे गिलगिट का इलाका लीज पर लेने में सफल रहे। इस साजिश का तानाबाना ही संभवत: अंग्रेजों ने बुना था। तब अंग्रेज रूसी विस्तारवाद से चिंतित थे और गिलगिट पर नियंत्रण चाहते थे।
गिलगिट रणनीतिक रूप से रूस, चीन और अफगानिस्तान के बीच में स्थित है, जिसे अंग्रेज रूसी विस्तार को देखते हुए बफर के रूप में इस्तेमाल करना चाहते थे। वर्ष 1935 में गिलगिट को 60 वर्षों के लिए लीज पर लेकर अंग्रेजों ने इस क्षेत्र का प्रत्यक्ष प्रशासनिक नियंत्रण हासिल कर लिया। यह लीज 1947 में भारत विभाजन के बाद प्रभावी नहीं रह गई। उस दौर में शेख अब्दुल्ला सांप्रदायिक विभाजन को भुनाना चाहते थे। उन्होंने 1932 में जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस नाम से नई पार्टी बनाई थी। उसका दायरा बढ़ाने के लिए 1939 में उसका नाम बदलकर जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस किया। अक्टूबर 1947 में भारत के साथ विलय के बाद महाराजा हरि सिंह ने प्रधानमंत्री नेहरू के जोर देने पर शेख अब्दुल्ला को 5 मार्च, 1948 को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त किया। उसी साल शेख अब्दुल्ला ने उन मारे गए लोगों की स्मृति में 13 जुलाई को यौम-ए-शुहादा यानी शहीदी दिवस के रूप में मनाने और सार्वजनिक अवकाश की परंपरा शुरू की। यह राजनीतिक पैठ बढ़ाने के उद्देश्य से उठाया गया कदम था। सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए शेख ने सांप्रदायिक भावनाओं का सहारा लिया।
कश्मीर रियासत की बात करें तो डोगरा शासन उसके लिए सबसे अधिक समृद्धि वाला रहा। उसके किसी राजा को गद्दी से हटाने के लिए सुनियोजित षड्यंत्र को आजादी के आंदोलन के रूप में चित्रित करना तत्कालीन परिस्थितियों का नितांत गलत आकलन होगा। प्रदर्शनकारियों ने अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय को निशाना बनाकर लूटपाट की। ऐसे लोगों को कभी शहीद का दर्जा दिया ही नहीं जाना चाहिए। यही कारण है कि जम्मू संभाग में 13 जुलाई एक काले दिन के रूप में देखा जाता है। क्या वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी अपने दादा के पदचिह्नों पर चलते हुए शहीदी दिवस के बहाने सांप्रदायिक तनाव को भड़काने की जुगत में थे?
अनिश्चित भू-राजनीतिक परिदृश्य में इसके और जोखिम बढ़ जाते हैं, क्योंकि यह किसी से छिपा नहीं कि उमर इसके माध्यम से पता नहीं किसके हितों को आगे बढ़ा रहे हैं। इस क्षेत्र में चीन से लेकर अमेरिका और पाकिस्तान तक अपनी चालें चलते रहते हैं। इसलिए इस कदम की जरा भी अनदेखी न की जाए। इससे उन प्रयासों को पलीता लग सकता है, जिनके चलते बीते कुछ समय से जम्मू-कश्मीर में स्थितियां सुधरी हैं। पिछले साल यहां पत्थरबाजी की एक भी घटना नहीं देखने को मिली। आतंकी वारदातों की संख्या भी घटी है। राज्य में सामान्य होती स्थिति का एक बड़ा प्रमाण पर्यटकों की आवक में तेज बढ़ोतरी भी है।
विधानसभा चुनावों का शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न होना और भारी संख्या में लोगों की भागीदारी भी उत्सावर्धक रही। इस सबसे पाकिस्तान का विचलित होना स्वाभाविक है। पहलगाम का आतंकी हमला इसी खीझ का परिणाम रहा, जिसका भारत ने कूटनीतिक और सैन्य मोर्चे पर आपरेशन सिंदूर के रूप में बेहद कड़ा जवाब दिया। इस सैन्य कार्रवाई के साथ ही हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि पहलगाम में हमले को अंजाम देने वालों को स्थानीय लोगों का समर्थन-सहयोग मिला।
बेहतर यह होगा कि जम्मू-कश्मीर में 19 जनवरी का दिन चेतना दिवस के रूप में मनाया जाए। 1990 में इसी दिन कश्मीर घाटी में हिंदुओं का नरसंहार हुआ और उन्हें बेदखल किया गया। यह राष्ट्र की सामूहिक चेतना पर बड़ा आघात था। जम्मू-कश्मीर में वास्तविक शांति तभी आएगी, जब कश्मीरी हिंदू सुरक्षित रूप से घर वापस लौट सकें, लेकिन यह किसी तरह के ध्रुवीकरण वाले माहौल में नहीं हो सकता।
(लेखक सेवानिवृत्त मेजर जनरल और इंडिया फाउंडेशन के निदेशक हैं)
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