विचार: मतदाता सूचियों में घुसपैठ, चुनाव प्रक्रिया में विदेशी हस्तक्षेप पर लगाम जरूरी
भारत अब धीरे-धीरे जनकल्याण सेवाओं का दायरा भी फैला रहा है। नागरिकता रजिस्टर बन जाने से एक तो फर्जीवाड़ा करने वाले लोग और घुसपैठिए न तो योजनाओं का अनुचित लाभ उठा पाएंगे और न ही जनादेश को भी प्रभावित कर पाएंगे। हालांकि इसके लिए चुनाव आयोग को मतदाता सूचियों के निरंतर और वार्षिक अद्यतनीकरण की व्यवस्था भी शुरू करनी होगी।
शिवकांत शर्मा। जनतंत्र में जनता चुनावों के जरिये जनादेश देती है। इसलिए चुनाव जनतंत्र की आधारशिला है और चुनावों की विश्वसनीयता यह सुनिश्चित करने पर निर्भर करती है कि मतदान में वही लोग भाग लें जो उसकी अर्हता रखते हों। मतदाताओं की अर्हता लगभग हर लोकतांत्रिक देश में मतदाताओं की आयु, नागरिकता और जिस क्षेत्र का चुनाव हो रहा हो, वहां निवास के प्रमाण के आधार पर तय की जाती है और मतदाता सूचियां बनाई जाती हैं।
पुनरीक्षण से इन्हें निरंतर अद्यतन रखने के मामले में आस्ट्रेलिया, कनाडा और जर्मनी को विश्व में आदर्श माना जाता है। आस्ट्रेलिया और कनाडा में मतदाता पंजीकरण और मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण का काम भारत के चुनाव आयोग की तरह केंद्रीय एजेंसियां करती हैं। अमेरिका और ब्रिटेन में इसका दायित्व स्थानीय प्रशासन के पास है जो केंद्र सरकारों के निर्देशों के आधार पर उसे निभाते हैं। आस्ट्रेलिया और इटली में मतदान के लिए पंजीकरण कराना और मतदान करना अनिवार्य भी है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की बात करें तो निर्वाचन आयोग के अनुसार पिछले साल तक मतदाता सूची में कुल 96.88 करोड़ लोगों के नाम थे। जबकि देश में 18 साल से अधिक उम्र के लोगों की जनसंख्या केवल 91 करोड़ के आसपास थी। आंकड़ों की इस विसंगति के तीन प्रमुख कारण हो सकते हैं। पहला, पिछले 15 वर्षों से जनगणना न होने के कारण जनसंख्या का अनुमान सही न होना। दूसरा, मतदाता सूचियों में ऐसे लोगों के नाम शामिल होना जिनका निधन हो चुका है।
तीसरा, अयोग्य, फर्जी और घुसपैठियों का शामिल होना। उन्हीं के निवारण के लिए चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण का काम शुरू किया है, जिसके समय को लेकर आइएनडीआइए के दल मुखर विरोध कर रहे हैं। विरोध करने वालों का एक तर्क यह है कि नागरिकता का सत्यापन करना गृह मंत्रालय का काम है, चुनाव आयोग का नहीं। हालांकि नागरिकता के सत्यापन के बिना मतदान करने की अर्हता तय नहीं हो सकती और उसे तय किए बिना सही मतदाता सूची नहीं बन सकती।
मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण का काम चुनाव एजेंसियों का ही है, इसलिए नागरिकता का प्रमाण मांगे बिना वे पारदर्शी मतदाता सूची कैसे तैयार कर पाएंगी? अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रेलिया और कनाडा से लेकर जापान तक हर देश की मतदाता सूची में शामिल होने के लिए नागरिकता का प्रमाण अनिवार्य है। घुसपैठियों की समस्या बढ़ने के कारण नागरिकता सत्यापन के नियम पूरे विश्व में कड़े होते जा रहे हैं।
घुसपैठियों द्वारा मतदान के जरिये जनादेश को प्रभावित करना चुनाव प्रक्रिया में विदेशी हस्तक्षेप जैसा ही है। इसलिए बिहार में मतदाता सूची की पुनरीक्षा को चुनौती देने वालों के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय का कूद पड़ना और यह कहना कि ‘यदि बड़े पैमाने पर लोगों को इस सूची से बाहर किया गया, तो वह हस्तक्षेप करेगा’ हैरत की बात है। शीर्ष अदालत को तो उलटे निर्वाचन आयोग से यह पूछना चाहिए कि उसने बिहार में 2003 से और बंगाल में 2002 से आज तक मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण क्यों नहीं किया?
जिन फर्जी मतदाताओं और घुसपैठियों को मतदाता सूची से निकालने के लिए निर्वाचन आयोग ने पुनरीक्षा का काम शुरू किया है, उन्हें वोट बैंक बनाकर अब वही दल सबसे कड़ा विरोध कर रहे हैं जो इस समस्या को लेकर कभी सबसे मुखर रहे। मसलन, लालू प्रसाद यादव ने सितंबर 1992 में केंद्र सरकार से कहा था कि वह बांग्लादेश से हो रही घुसपैठ को रोकने के कारगर उपाय करे।
उन्होंने ऐसा कानून बनाने की मांग भी रखी थी जो घुसपैठियों को अचल संपत्ति खरीदने से रोके। सीमावर्ती जिलों में भारतीयों को पहचान पत्र देने की सलाह भी दी थी ताकि घुसपैठियों की पहचान हो सके। इसी तरह 2005 में बंगाल की मतदाता सूचियों में घुसपैठियों की समस्या रेखांकित करने के लिए ममता बनर्जी ने तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को बांग्लादेश और बंगाल के उन दो चुनाव क्षेत्रों की मतदाता सूचियां भेंट की थीं, जिनमें अनेक नाम समान थे।
आस्ट्रेलिया, कनाडा और जर्मनी ने मतदाता सूचियों को अद्यतन रखने के लिए निर्वाचन आयोगों को पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, जन्म-मृत्यु पंजीकरण और जनकल्याण जैसी नागरिकों के आंकड़े रखने वाली एजेंसियों से जोड़ रखा है। इसलिए वहां की चुनाव एजेंसियों को अपनी मतदाता सूचियां अद्यतन रखने में कठिनाई नहीं होती। जर्मनी ने अपना पता बदलने पर स्थानीय प्रशासन के दफ्तर में जाकर पंजीकरण कराना अनिवार्य कर रखा है, जिसकी वजह से मतदाता सूची भी अपने आप अद्यतन होती रहती है।
ब्रिटेन और फ्रांस में स्थानीय सरकारें डाक और इलेक्ट्रानिक संपर्क के माध्यम से हर साल मतदाता सूची को अद्यतन करती हैं। लोग जब चाहें आनलाइन जाकर भी नाम दर्ज करा सकते हैं। इसके अलावा हर चुनाव से पहले भी इन्हें अद्यतन किया जाता है। स्वीडन, फिनलैंड और नीदरलैंड्स जैसे छोटे यूरोपीय देशों में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर भी हैं, जिससे फर्जी नाम और घुसपैठिए मतदाता सूचियों में जगह नहीं पा सकते।
नागरिकता रजिस्टर रखने इसलिए भी जरूरी हैं, ताकि घुसपैठिए मुफ्त स्कूली शिक्षा और इलाज, वृद्धावस्था पेंशन और सीमित समय के लिए बेरोजगारी भत्ते आदि का लाभ न उठा सकें। यहां तक कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार जैसे भारत के पड़ोसी देशों ने भी नागरिकता रजिस्टर या पहचान पत्र बना रखे हैं ताकि शरणार्थियों और घुसपैठियों का हिसाब रखा जा सके। क्या ऐसे असफल देशों से घिरे भारत को भी अपनी चुनाव प्रक्रिया को घुसपैठ के प्रभाव से बचाने के लिए नागरिकता रजिस्टर बनाने पर गंभीरता से विचार नहीं करना चाहिए?
भारत अब धीरे-धीरे जनकल्याण सेवाओं का दायरा भी फैला रहा है। नागरिकता रजिस्टर बन जाने से एक तो फर्जीवाड़ा करने वाले लोग और घुसपैठिए न तो योजनाओं का अनुचित लाभ उठा पाएंगे और न ही जनादेश को भी प्रभावित कर पाएंगे। हालांकि इसके लिए चुनाव आयोग को मतदाता सूचियों के निरंतर और वार्षिक अद्यतनीकरण की व्यवस्था भी शुरू करनी होगी।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)
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