आंतरिक शुद्धता
जिस तरह हर प्राणी का स्वभाव भिन्न होता है उसी के अनुसार उसके कार्य करने का तरीका भी पृथक होता है। यही हाल संतों का भी होता है। कुछ संत चमत्कार दिखाते हैं तो कुछ अपने आप में लीन रहते हैं। कुछ उपदेश देते हैं तो कुछ मौन रहना पसंद करते हैं। इसलिए कभी भी किसी को एक नजरिये से नहीं देखना चाहिए। हर व्यक्ति सम्माननीय है। सम्मान व्यक्ति के आचरण, उसके गुणों के कारण होता है, जबकि उसका स्वभाव, रूप व रंग आकर्षण का कारण बनते हैं। वहींआंतरिक शुद्धता जप, भजन और ध्यान से आती है। भले ही जप, भजन और ध्यान देखने में अलग-अलग मालूम पड़ते हों, पर इन सब की पूर्णता मन के विसर्जन या एक ही बिंदु से प्राप्त होती हैं। मन चंचल होता है। वह इधर-उधर भागता है। इससे वह न अपना भला कर पाता है और न ही समाज का। सार्थक सृजन ही मानवता के कल्याण का आधार होता है। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य है। 'चेतन अंश जीव अविनाशी'कह कर तुलसीदास ने मनुष्य की महत्ता की पुष्टि की है। स्वभाव व आचरण से ही हम एक-दूसरे से भिन्न दिखते हैं। यह भिन्नता रूप, रंग और आकृति की भांति ही वाह्य है, पर जब हम जप, भजन या ध्यान के माध्यम से मन को एकाग्र करते हैं तो वहां की चंचलता मिटती है, अद्वैत का अभ्युदय होता है और हम स्वयं को परम सत्ता के सन्निकट पाते हैं।
मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ लक्ष्य है आत्म साक्षात्कार करना। यह आत्मशुद्धि के बगैर संभव नहीं है। स्वार्थ रहित सेवा ही परमात्मा की प्राप्ति में सहायक होती है। जो व्यक्ति ध्यान की जितनी गहराई में उतरता है उतना ही वह आनंद का अनुभव करता है। वह आनंद ही ईश्वर के समीप होने का प्रमाण है। संसार का कानून भय से व्यक्ति को सुधारने का प्रयास करता है, पर सतत स्मरण जप, भजन और ध्यान व प्रेम से जुड़ा व्यक्ति किसी दबाव के बगैर सिर्फ स्वत: सुधरता ही नहीं है, बल्कि वह औरों के लिए भी आदर्श बनता है। समाज में भ्रष्टाचार, अराजकता और संवेदनहीनता तभी बढ़ती है जब आत्म-अनुशासन की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है। इसलिए आंतरिक शुद्धता की ओर ध्यान देना ही अभीष्ट है।
[जीवन शुक्ल]
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