मुनि शंकर। जब-जब बाजार के नियमों को राजनीतिक चाबुक से हांकने की कोशिश की जाएगी, तब-तब अर्थव्यवस्था को संकटों का सामना करना पड़ेगा। बैंकिंग सेक्टर का वर्तमान संकट इसी राजनीतिक अवसरवादिता का एक प्रमाण है। उदारीकरण के बाद भारत के विकास में वृद्धि तो हुई, लेकिन बैंकों के कर्ज देने का ढांचा नहीं बदला। भारत दुनिया के उन गिने-चुने देशों में से है जिसके अधिकतर उद्योगपति अपने व्यवसाय के लिए बैंकों से वित्त हासिल करते हैं, यही कारण है कि उनकी असफलता का दंश बैंकों को झेलना पड़ता है। बैंकिंग व्यवस्था की सुदृढ़ता किसी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है। बैंकों का कमजोर होना अर्थव्यवस्था में संकट की आहट है।

याद करिये वर्ष 2008 से शुरू हुए सबप्राइम संकट और लीमैन ब्रदर्स जैसे बड़े बैंकों के डूबने की घटनाओं को और किस तरह से अमेरिका समेत दुनिया के अनेक देशों को भी आर्थिक मंदी के दौर से गुजरना पड़ा था। इसमें कई मजबूत अर्थव्यवस्थाएं भी थीं। भारत का वर्तमान बैंकिंग क्षेत्र कमोबेश बहुत ही संकट के दौर से गुजर रहा है, किंतु राहत की बात यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी विश्व की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है, जिसका कारण भारतीय अर्थव्यवस्था के आधारभूत ढांचा का मजबूत होना रहा है। साथ ही भारतीय बाजार में मांग का लगातार बने रहना है।

अब बात करें एनपीए की। एनपीए अर्थात नॉन परफॉर्मिग एसेट्स उसे माना जाता है, जिसे कर्ज का तय तिथि से 90 दिनों के अंदर उस पर बकाया ब्याज तथा मूलधन की किस्त नहीं चुकाई जाती। धीरे-धीरे इन कर्जों का बैंकिंग व्यवस्था में वापस आने की संभावना क्षीण हो जाती है। भारतीय बैंकों के एनपीए ज्यादातर बड़े उद्योगपतियों के पास है, जो पिछले एक दशक में 10 गुने से ज्यादा हो गए हैं। दिसंबर 2017 में बैंकों का कुल एनपीए 8,40,958 करोड़ रुपये था, जिसमें उद्योगों का लोन 6,09,222 करोड़ रुपये, सेवा क्षेत्र का 1,10,520 करोड़ रुपये, कृषि और संबंधित क्षेत्र का 14,986 करोड़ रुपये का रहा। इसके अलावा गैर खाद्य गतिविधियों में 36,630 करोड़ रुपये का एनपीए रहा है। भारत में लगातार बढ़ रहे एनपीए का दो कारण रहा है।

एक तो कर्ज लेने वालों के क्रेडिट एनालिसिस का पर्याप्त न होना और दूसरा बैंकों के पास कर्ज वसूली के प्रभावी कानूनी उपायों का अभाव। हाल ही में मोदी सरकार ने इन्सोल्वेंसी एंड बैंक्रप्सी कोड (आइबीसी) 2016 को लागू करके बैंकों को कर्ज वसूल करने का प्र्याप्त कानूनी साधन उपलब्ध कराया है, जिसका असर दिखना अभी शेष है। गौरतलब है कि भारत विश्व के सबसे कम क्रेडिट-जीडीपी अनुपात वाले देशों में से है। विश्व बैंक की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत का क्रेडिट जीडीपी अनुपात 50 प्रतिशत है तो वहीं अमेरिका का 70.9 प्रतिशत, दक्षिण अफ्रीका का 144 प्रतिशत तो विश्व की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था चीन का 157 प्रतिशत है।

अर्थव्यवस्था में क्रेडिट का ज्यादा होना औद्योगिक एवं व्यापारिक गतिविधियों की सघनता से जुड़ा है। अर्थव्यवस्था की गति में आई मौजूदा तेजी के हिसाब से देखा जाए तो अगले दशक तक हमारा देश 10 टिलियन की अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। ऐसे में ज्यादा क्रेडिट जीडीपी अनुपात की ओर बढ़ना होगा। और ऐसा होने पर एनपीए के बढ़ने से बैंकों को लोन देना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि विगत चार वर्षो में जनधन योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना जैसे सरकारी प्रयासों से वंचित एक बड़ा तबका भारत की बैंकिग व्यवस्था से न केवल लाभान्वित हो रहा, बल्कि बैंकिंग व्यवस्था में नए तरीके से धन का प्रवाह भी बना है। उदाहरण के लिए जनधन योजना के माध्यम से 32 करोड़ से ज्यादा ग्राहक बैंकों को मिले तो इन खातों में 79,372 करोड़ रुपये की नगदी भी बैंकिंग व्यवस्था में आई।

इसके अतिरिक्त डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) को आधार और बैंक खाते से लिंक करवाने के बाद जिस तरह से सरकारी योजनाओं को सीधे लाभान्वितों से जोड़ा गया है, उससे न केवल भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में सरकार को कामयाबी मिली है, बल्कि उचित पात्रों को इसका लाभ मिला। वहीं प्रधानमंत्री मुद्रा योजना से लगभग तीन लाख करोड़ रुपये के लोन वितरित किए गए। इसकी एक बड़ी विशेषता यह भी रही कि यह एक तरह से उन क्षेत्रों के संदर्भ में दिए गए, जो अभी तक बैंकिंग व्यवस्था में लोन से वंचित रहे हैं। एक और बात ध्यान रखने वाली है कि मुद्रा लोन अति लघु और छोटे उद्योगों को दिए गए हैं, जो सबसे कम मशीनी और ज्यादा रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने वाले होते हैं। साथ ही इनका क्रेडिट रिटर्न भी बड़े उद्योगों के मुकाबले ज्यादा लगभग 92 प्रतिशत होता है।

मतलब स्पष्ट है कि छोटे लोन के एनपीए बनने की आशंका कम होती है और भारत जैसे बड़े आबादी वाले देश में स्वरोजगार के लिए यह जरूरी भी है। देश में स्वरोजगार को प्रोत्साहित करने में बैंकों को योगदान देना होगा और इस दिशा में सरकार को भी ध्यान देना होगा। ऐसा नहीं है कि एनपीए से उद्योगों को बाहर निकालने के पर्याप्त रास्ते नहीं हैं। हाल ही में सरकार की सही नीतियों और सुधारों को लागू करने की दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण सड़क परिवहन क्षेत्र के एनपीए की स्थिति में सुधार किया गया, जिसके लिए वित्त प्रबंधन के नवीन रास्तों को अपनाया गया।

उल्लेखनीय है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने पिछले बजट भाषण में कहा था कि अवसंरचना से जुड़ी कंपनियों को अपने लोन का 25 प्रतिशत हिस्सा बॉन्ड मार्केट से लेना चाहिए। सर्वविदित है कि भारत में स्थानीय बॉन्ड मार्केट की असीम संभावना है, जिसे सही नीतियों के माध्यम से विकसित किया जा सकता है। बैंकिंग व्यवस्था को एनपीए संकट से निकालने के लिए आइबीसी 2016 को सख्ती के साथ लागू करना होगा। साथ ही पुराने कर्जो को बॉन्ड, शेयर और इक्विटी जैसे तरीकों से हल करना होगा। बैंकों को क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के साथ समन्वय कर यह सुनिश्चित करना होगा कि एक भी अपात्र व्यक्ति या संस्था को भविष्य में कर्ज नहीं मिल सके।

(लेखक सेंटर फॉर इकोनोमिक पॉलिसी रिसर्च में प्रोग्राम डायरेक्टर हैं)