आम चुनाव की तारीखें घोषित हो चुकी हैं और राजनीतिक युद्ध का बिगुल बज चुका है। तमाम राजनीतिक दल आने वाले चुनावों में सबसे बड़े सिंहासन पर नजर गड़ाए हुए हैं। भारत में लगभग 81 करोड़ 14 लाख मतदाता 2014 के इस चुनावी उत्सव में अपना मत डालेंगे। इनमें से लगभग 10 करोड़ नौजवान पहली बार अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। राजनीतिक रैलियों और घर-घर में जाकर मुलाकात करने के पारंपरिक तरीकों के अलावा तमाम राजनीतिक दल अपनी आस्तीन चढ़ाकर वोटरों को लुभाने के लिए सोशल मीडिया के कई मंचों का इस्तेमाल कर रहे हैं। आज भारत में लगभग 20 प्रतिशत लोग इंटरनेट पर मौजूद हैं और इस अनुभाग के वोटों को अपनी तरफ करने के लिए पार्टियां फेसबुक, ट्विटर इत्यादि सोशल मीडिया के मंचों का उपयोग कर रही हैं।

'आइरिस नॉलेज फाउंडेशन' एवं इंटरनेट और मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार लोकसभा की 543 सीटों में से 160 सीटें ऐसी हैं जिन पर सोशल मीडिया का भारी प्रभाव पड़ेगा। भारत जैसे देश में जो राजनीतिक दल 15-20 सीटें लाते हैं वे कौन सा दल सत्ता पर रहेगा, यह तय करने का दम रखते हैं। ऐसी स्थिति में आइरिस रिपोर्ट के नतीजों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भारत में नेता और राजनीतिक दल पहली बार सोशल मीडिया के प्रति जागे हैं, पर अन्य गणतंत्र राज्यों में सोशल मीडिया अहम् भूमिका निभा रहा है। इसका एक अनोखा उदाहरण है 2008 का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव। इस चुनाव में एक अनजान मध्यम वर्गीय उम्मीदवार ने सोशल मीडिया माध्यमों का उपयोग लाखों छोटे मतदाताओं से चंदा एकत्रित करने के लिए समर्थकों को जुटाने में और स्वयंसेवकों का कैडर बनाने के लिए किया और चुनावी जंग में प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा समर्थित दिग्गज उम्मीदवारों को पराजित किया।

बहरहाल सोशल मीडिया के कई आलोचक यह मानते हैं कि 2008 में अमेरिका की 73 प्रतिशत जनता इंटरनेट का इस्तेमाल कर रही थी और उसके एक तिहाई लोगों के पास ब्रॉडबैंड कनेक्शन था। उसकी तुलना में भारत में केवल 20 प्रतिशत लोग इंटरनेट पर मौजूद हैं और बहुत कम लोगों के पास ब्रॉडबैंड कनेक्शन है। नाबालिगों को हटा दिया जाए तो बचे हुए इंटरनेट प्रेमियों का चुनावों पर प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके साथ-साथ आलोचक यह भी सवाल उठाते हैं कि इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले कितने लोग अन्य वोटरों की तुलना में मत डालने की जहमत उठाएंगे? मेरे मुताबिक इसी सब से सोशल मीडिया की भूमिका दिलचस्प होती है। हालांकि सामान्य इंटरनेट का उपयोग अपने आप में क्रांतिकारी है, लेकिन वह सोशल मीडिया का आकर्षक रूप-स्वरूप ही है जो सभी प्रकार की सामाजिक सक्रियता को बदल रहा है। 2011 में किए गए एक अध्ययन में दावा किया गया है कि सामान्य इंटरनेट के उपयोगकर्ता और विशेष रूप से सोशल मीडिया के उपयोगकर्ता सामाजिक और नागरिक मुद्दों पर ज्यादा सक्रिय होते हैं।

इन टिप्पणियों को आइरिस के अध्ययन के मुताबिक देखना चाहिए, जो सोशल मीडिया के मतदान पर होने वाले सीधे प्रभाव के बारे में और उससे भी च्यादा कार्यकर्ता और समर्थकों को जुटाने के बारे में ठोस तर्क प्रस्तुत करता है। आइरिस के अध्ययन के अनुसार उच्च प्रभाव के रूप में नामित 160 निर्वाचन क्षेत्रों में फेसबुक जैसे मंच का उपयोग करने वाले जनसंख्या के 10 प्रतिशत हैं। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में ठाणे निर्वाचन क्षेत्र में 400,000 से अधिक पात्र मतदाता हैं, जो फेसबुक का उपयोग करने वाले भी हैं। यह आंकड़ा वर्तमान में जीते हुए सांसद के मार्जिन से बहुत च्यादा है। जाहिर सी बात है कि ठाणे के उम्मीदवारों को इस पहलू पर गौर करना होगा। आइरिस रिपोर्ट के अनुसार कांग्रेस पार्टी की मौजूदा 206 सीटों में से 75 इसी प्रकार उच्च प्रभाव वाली हैं और जिन 244 क्षेत्रों में इस पार्टी के प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे थे उनमें 43 निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं जहां सोशल मीडिया का निर्णायक प्रभाव होगा। भाजपा के लिए पिछली बार जीती गई 116 सीटों में 44 इस तरह की हैं जिनमें इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की अच्छी-खासी तादात है। इसी तरह जिन 110 सीटों पर भाजपा प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे थे उनमें 44 सीटें इस तरह की हैं। आंकड़ों को छोड़ भी दें तो बीते कुछ वषरें की घटनाओं से यह कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया खेल के नियम और कायदे जरूर बदल रहा है। हालांकि इसका प्रभाव कई मायनों में देखा जा सकता है, दो चीजें विशेष रूप से प्रासंगिक हैं। पहली है सोशल मीडिया की तेजी से लोगों को जुटाने की क्षमता। उदाहरण के लिए हमने पिछले दो सालों में अन्ना हजारे के आंदोलनों और दुष्कर्म विरोधी प्रदर्शनों इत्यादि के दौरान सोशल मीडिया की क्षमता को देखा है। इसके अतिरिक्त राजनीतिक दल सोशल मीडिया का उपयोग कर उत्साही स्वयंसेवकों, समर्थकों और दाताओं को अपने पक्ष में जुटाने में भी सक्षम रहे हैं।

दूसरा है मध्यस्थता का तथ्य। इसके द्वारा राजनीतिक दल सोशल मीडिया के मंचों के इस्तेमाल से मतदाताओं के सीधे संपर्क में आकर उनकी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया उत्तरदायित्व और पारदर्शिता को बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिए एक तरफ हमें कई नेता चाय पर चर्चा करते नजर आएंगे तो दूसरी ओर कुछ नेता जनसंपर्क एवं गूगल हैंगआउट को आयोजित करके जनता से सीधे जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं। सोशल मीडिया का इन चुनावों पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह तो आने वाले कुछ हफ्तों में ही हमें पता चलेगा, लेकिन आशावाद और निराशावाद के तकरें के बीच यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि इसका पूरा प्रभाव देखने के लिए हमें और 5 साल इंतजार करना होगा। 2014 के चुनावों में इसका प्रभाव कुछ न कुछ अवश्य महसूस किया जाएगा।

[लेखक बैजयंत जय पांडा, लोकसभा सदस्य हैं]