रसातल में वैचारिक धरातल
अब तो संसद का चलना ही मुश्किल हो गया है, लेकिन जब कभी वह चलती है और हंगामे से बची रहती है तो यही सुनने-देखने को मिलता है कि अब वहां बहस का वैसा स्तर नहीं रह गया है जैसा पहले कभी हुआ करता था।
अब तो संसद का चलना ही मुश्किल हो गया है, लेकिन जब कभी वह चलती है और हंगामे से बची रहती है तो यही सुनने-देखने को मिलता है कि अब वहां बहस का वैसा स्तर नहीं रह गया है जैसा पहले कभी हुआ करता था। दुर्भाग्य से ऐसी ही स्थिति संसद के बाहर भी है। समस्या केवल महत्वहीन मसलों पर छिछली चर्चा की ही नहीं है। इसकी भी है कि महत्वपूर्ण मसलों पर भी स्तरहीन चर्चा होती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा के सुझाव पर बहस के स्तर पर गौर करें तो यही पाएंगे कि इस देश में चुनाव के वक्त किसी गंभीर मसले पर चर्चा हो ही नहीं सकती। उक्त सुझाव पर लालू यादव, नीतीश कुमार, मायावती आदि जानबूझकर यह साबित करने पर तुल गए हैं कि आरक्षण खत्म करने की कोशिश की जा रही है। लालू तो बाकायदा यह चुनौती देने में लगे हुए हैं कि किसी में दम है तो आरक्षण खत्म करके दिखाए। आश्चर्यजनक रूप से नीतीश कुमार भी उनके ही सुर में बोल रहे हैं। वह उथली बातों के लिए नहीं जाने जाते, लेकिन इन दिनों वह लालू के रंग में रंगे नजर आ रहे हैं। यह तय है कि आने वाले दिनों में बिहार में उथली-छिछली बातों का शोर और बढ़ेगा। इसमें सभी दलों के नेताओं की भागीदारी के प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है। मुश्किल यह है कि अब राजनीतिक दल हर वक्त चुनावी माहौल वाले मूड में नजर आते हैं। वे गंभीर मसलों पर सतही चर्चा करने के साथ ही उन्हें सतही रूप देने में भी माहिर हो गए हैं।
कांग्रेस नेताओं को मोदी सरकार की आलोचना करते हुए सुनें तो ऐसा आभास होगा कि 2015 खत्म होते ही 2019 आ जाएगा और आम चुनाव का ऐलान हो जाएगा। भूमि अधिग्रहण विधेयक ठंडे बस्ते में जा चुका है, लेकिन राहुल गांधी पिछले दिनों एक बार फिर यह प्रचारित करने के बाद ही रहस्य भरी विदेश यात्रा पर गए कि नरेंद्र मोदी अपने मित्र उद्योगपतियों के लिए किसानों की जमीनें छीनने की कोशिश में लगे हैं। इसके आसार कम हैं कि विदेश से लौटने के बाद वह अपनी यह रट छोड़ेंगे कि भइया, देखो मोदी तो किसानों की जमीन छीनने पर आमादा हैं और सावधान रहना, गुजरात से सूट-बूट पहने कुछ लोग आएंगे और आपकी जमीन ले जाएंगे। गंभीर मसलों पर सतही बहस का एक बड़ा दुष्परिणाम यह है कि छिछली बातों को गंभीर मुद्दों की तरह पेश करने की प्रवृत्ति का प्रदर्शन हर कहीं होने लगा है-सोशल मीडिया से लेकर संसद तक में। यह प्रवृत्ति एक परिपक्व राष्ट्र के रूप में भारत की छवि पर तो प्रहार करने वाली है ही, संवाद के स्तर और वैचारिक धरातल को भी दूषित करने वाली भी है।
इस पर दुनिया हंसी ही होगी कि भारत में इस पर कलह मच गई कि विदेश यात्रा पर गए भारतीय प्रधानमंत्री की ओर से तिरंगे की छवि वाली एक कृति पर हस्ताक्षर को राष्ट्रीय ध्वज के अपमान का मसला बना दिया गया। पहले कुछ खुराफाती लोगों ने सोशल मीडिया पर इसे एक मुद्दा बनाया। जल्द ही कांग्रेस के कई नेताओं ने उसे लपक लिया और देश को यह समझाने की कोशिश करने लगे कि किस तरह मोदी से ऐसा ही अपेक्षित था। किसी कांग्रेसी नेता ने यह जानने-समझने की कोशिश नहीं कि मोदी ने जिस कृति पर हस्ताक्षर किए वह राष्ट्रीय ध्वज था या नहीं और अगर वह था भी तो क्या उन्होंने तैश में आकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर रद्दी की टोकरी में फेंक दिए? कांग्रेसी नेताओं समेत कई लोगों ने ध्वज संहिता के हवाले से यह भी बताने की कोशिश की कि राष्ट्रीय ध्वज पर हस्ताक्षर करना अपराध है। पता नहीं ऐसा है या नहीं, लेकिन अगर वाकई है तो ऐसे प्रावधान को तत्काल प्रभाव से संशोधित किया जाना चाहिए, अन्यथा लोग राष्ट्रीय ध्वज को स्पर्श करने से भी डरेंगे।
मोदी की मौजूदा अमेरिका यात्रा उनकी पिछली यात्रा से भी महत्वपूर्ण है, लेकिन इस यात्रा के दौरान सामने आए जिन मसलों पर गंभीरता से बहस होनी चाहिए उनके बजाय छिछली बातों पर क्षुद्र चिंतन किया जा रहा है। कांग्रेस ने राष्ट्रीय ध्वज के अपमान का मसला उठाने के साथ ही यह रुदन किया कि डिजिटल इंडिया पर बात करते समय मोदी यह ध्यान रखें कि राजीव गांधी ही कंप्यूटर लेकर आए थे। नि:संदेह यह श्रेय राजीव गांधी के ही खाते में जाता है, लेकिन क्या किसी ने उनसे यह श्रेय छीनने की कोशिश की है? दिल्ली सरकार चलाने में नाकामी का सामना कर रहे केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी को सलाह दी कि विदेश में गिड़गिड़ाने से कुछ नहीं होगा। दरअसल वह कहना चाह रहे थे-प्रधानमंत्री जी हमसे पूछिए कि देश कैसे चलाया जाना चाहिए? कांग्रेस के प्रवक्ता आनंद शर्मा ने मां का जिक्र करते समय नरेंद्र मोदी के भावुक हो जाने को भी मुद्दा बनाने से परहेज नहीं किया। यह संभव है कि उन्हें मोदी का भावुक होना रास न आया हो, लेकिन उसकी इस रूप में व्याख्या अरुचिकर और अशोभनीय है कि ऐसा करके वह अपनी मां का अपमान कर रहे हैं। आनंद शर्मा को खुद से पूछना चाहिए कि वह मोदी के अंध विरोध में किस हद तक जाएंगे?
भारतीय राजनीति के वैचारिक स्तर में गिरावट शुभ संकेत नहीं। इस गिरावट को रोकने की कोशिश सभी दलों को करनी होगी, लेकिन शायद भाजपा को सबसे अधिक, क्योंकि केंद्रीय सत्ता की बागडोर उसके हाथ में है। उसके नेताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे न तो गंभीर मसलों को सतही बनाएंगे और न ही सतही बातों पर विरोधी दलों के नेताओं से व्यर्थ के वाद-विवाद में उलझेंगे। ऐसा होने पर ही भाजपा खुद को एक बेहतर दल के रूप में ढाल पाएगी। वह बड़ा दल है, लेकिन अभी उसका बेहतर बनना शेष है। अच्छा होता कि भाजपा प्रवक्ता कांग्रेसी नेता आनंद शर्मा की अमर्यादित टिप्पणी का जवाब देने के बजाय खुद को इतना कहने तक ही सीमित रखते कि ऐसे ओछे बयान का जवाब जरूरी नहीं।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]
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