संजय कुमार

गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए मतदान में अब कुछ ही दिन शेष हैैं, फिर भी यह अभी कहना खासा मुश्किल है कि इस बार गुजरात में सत्ता का ऊंट आखिर किस करवट बैठेगा? अगर जमीनी हकीकत और विकासशील समाज अध्ययन पीठ यानी सीएसडीएस के कुछ शुरुआती चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों पर गौर करें तो एक बात स्पष्ट रूप से नजर आएगी कि दो दशकों में पहली बार कांग्रेस भाजपा को चुनौती पेश करती दिख रही है। पिछले कुछ हफ्तों के चुनाव अभियान के दौरान कांग्रेस के हौसले ने उसके पक्ष में गोलबंदी को तेज किया है। हालांकि कुछ समय पहले तक वह भाजपा से पिछड़ती नजर आ रही थी। यदि कांग्रेस मौजूदा रुझान को कायम रखती है तो वह भाजपा के गढ़ में ही उसका गणित बिगाड़कर सियासी उलटफेर कर सकती है। इस राज्य में भाजपा की साख इसी तथ्य से लगाई जा सकती है कि यह केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं, बल्कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का भी गृह राज्य है। भाजपा न केवल राज्य के पिछले चार विधानसभा चुनाव जीतने में सफल रही है, बल्कि अधिकांश चुनावों में उसने कांग्रेस को बड़े भारी अंतर से मात दी। पिछले यानी वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले 10 फीसद अधिक वोट मिले थे। यह बढ़त 2014 के लोकसभा चुनावों में और ज्यादा बढ़ गई। यह सच है कि लोकप्रिय जनसमर्थन के मामले में कांग्रेस इस समय भाजपा की बराबरी करती नहीं दिखती, लेकिन तमाम संकेत यह इशारा करते हैं कि कांग्रेस भाजपा के लोकप्रिय समर्थन में सेंध लगाकर इस अंतर को कम कर जरूर कर सकती है।


भाजपा और कांग्रेस के बीच कम हो रहे इस अंतर की मुख्य वजह यह मानी जा रही है कि परंपरागत रूप से भाजपा के लिए मतदान करते आए पाटीदार जैसे समूह अब उससे छिटककर कांग्रेस के पाले में जाते दिख रहे हैं। गुजरात में संख्याबल के लिहाज से खासी अहमियत रखने वाला यह तबका भाजपा से इस बात को लेकर नाराज है कि ओबीसी के तहत आरक्षण की मांग से जुड़ी उनकी मुहिम का भाजपा ने दमन किया। या यूं कहें कि सत्तारूढ़ भाजपा इस मसले को सही तरह से नहीं संभाल पाई। ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं कि कांग्रेस न केवल भाजपा के साथ इस अंतर की खाई को पाट रही है, बल्कि सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात जैसे इलाकों में भी अपनी पैठ मजबूत बना रही है जहां पाटीदारों की अच्छी-खासी तादाद है। हार्दिक पटेल से उसका समझौता भी हो गया है। हार्दिक कांग्रेस को समर्थन देने का एलान करने की तैयारी में हैैं। हार्दिक पटेल को अपने पाले में लाने के साथ ही कांग्रेस दलित और ओबीसी तबकों को साधने में भी पूरा जोर लगा रही है। माना जाता है कि भाजपा के पिछले कुछ वर्षों के शासन में ये दोनों वर्ग अमूमन नाखुश ही रहे। केवल पाटीदार, दलित और ओबीसी के रुख में ही बदलाव होता नहीं दिख रहा, बल्कि किसानों का मन भी कुछ डांवाडोल हो रहा है जिन्हें कुछ वजहों से कांग्र्रेस रास आ सकती है। वहीं नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी जैसे सरकार के कदमों से भी व्यापारियों में भाजपा को लेकर नाराजगी बढ़ी है। यहां यह गौर करना बेहद जरूरी है कि कारोबारी तबका लंबे अरसे से भाजपा के समर्थन की अहम कड़ी रहा है। ऐसे में गुजरात ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस के लिए बेहतर होते हालात निश्चित रूप से भाजपा के लिए खतरे की घंटी होनी चाहिए।
असल में नोटबंदी और जीएसटी के अलावा महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे भी भाजपा का खेल और ज्यादा खराब कर रहे हैं, क्योंकि इनकी वजह से लोगों में बहुत नाराजगी है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण साफ तौर पर संकेत करते हैं कि बेरोजगारी, महंगाई, जीएसटी और नोटबंदी की वजह से बड़ी संख्या में लोग भाजपा से नाराज हैं। इसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि चुनाव परिणाम केवल जातिगत समीकरणों से ही तय नहीं होगा। इसमें आर्थिक मुद्दों की भी महती भूमिका होगी।
कांग्रेस के लिए बढ़ते समर्थन के बावजूद उसे भाजपा पर बढ़त हासिल नहीं हो जाती, क्योंकि एक तो इन समुदायों के रुख में बहुत बड़े पैमाने पर परिवर्तन नहीं हो रहा है। जो हो रहा है वह इतना भी नहीं है कि कांग्रेस को निर्णायक बढ़त दिला दे। फिर भाजपा ने भी नुकसान की भरपाई के लिए कोशिशें शुरू कर दी हैं और उसने आदिवासियों के बीच अपनी पकड़ मजबूत बनाई है जो मध्य और दक्षिण गुजरात में बड़ी तादाद में हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की लोकप्रियता में भले ही कुछ कमी आई हो, लेकिन वे अभी भी कांग्रेस खेमे के किसी भी नेता की तुलना में बहुत ज्यादा लोकप्रिय हैं।
कांग्रेस में कोई नेता नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के आसपास भी नहीं है और न ही कोई ऐसा नेता है जो अमित शाह की चुनावी रणनीति से बने चक्रव्यूह की काट तैयार कर सके। इन दोनों पहलुओं को देखते हुए भाजपा अभी भी इक्कीस नजर आती है। मुख्यमंत्री पद से नरेंद्र मोदी की विदाई के बाद गुजराती भले ही राज्य सरकार के कामकाज से उतने खुश नहीं हों, फिर भी सरकार के कामकाज से संतुष्ट जरूर हैं। हालांकि राज्य सरकार के कामकाज से संतुष्टि का भाव वैसा भी नहीं है जैसा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे कुछ दूसरे राज्यों में है, लेकिन यह इतना जरूर है कि लोगों को मौजूदा सरकार के पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित कर सके। भले ही आज की तस्वीर में भाजपा कांग्र्रेस से आगे दिख रही हो, लेकिन भाजपा को भी इस बात की फिक्र जरूर होनी चाहिए कि पिछले कुछ हफ्तों में कांग्रेस के पक्ष में हवा कैसे बनी? कांग्रेस के पक्ष में बन रही यह हवा मतदाता के मन को प्रभावित कर सकती है विशेषकर उन मतदाताओं को जो अपनी पसंद को लेकर अभी तक अनिर्णय की स्थिति में हैं। अपने ‘कांग्रेस आवे छे’ यानी कांग्रेस आ रही सरीखे अभियान के जरिये पार्टी ने राज्य में भाजपा की अजेय छवि को चुनौती देकर दर्शाया है कि भाजपा अपराजेय नहीं है।
यह भी एक तथ्य है कि कांग्रेस के पक्ष में बन रही हवा भी कुछ इलाकों तक ही सीमित है और उसका असर फिलहाल पूरे राज्य में नहीं है और केवल इसके दम पर ही भाजपा को मात नहीं दी जा सकती। भाजपा को केवल तभी पराजित किया जा सकता है जब यह हवा पूरे राज्य में फैलकर लहर का रूप अख्तियार कर ले।
[ लेखक नई दिल्ली स्थित विकासशील समाज अध्ययन पीठ-सीएसडीएस में निदेशक हैं ]