[कैलाश बिश्नोई]। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को झकझोर कर रख देने वाले निर्भया दुष्कर्म मामले में दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने चारों दोषियों को मौत की सजा के लिए डेथ वारंट जारी कर दिया है। इस जघन्य घटना के सात साल बाद बहुप्रतीक्षित न्याय का मार्ग प्रशस्त हो गया है। अदालत के फैसले के मुताबिक 22 जनवरी को सुबह सात बजे दिल्ली की तिहाड़ जेल में निर्भया के चारों दुष्कर्मियों व हत्यारों को फांसी दी जाएगी। इसके लिए तिहाज जेल संख्या-3 में पूरी तैयारी भी की जा चुकी है। दंड प्रक्रिया संहिता- 1973 के तहत फॉर्म नंबर- 42 को डेथ वारंट या ब्लैक वारंट कहा जाता है। ये जारी होने के बाद ही किसी व्यक्ति को फांसी दी जाती है। हालांकि डेथ वारंट के बाद कम से कम 14 दिन का वक्त दिया जाता है। 

क्रिमिनल मामलों में फैसले में विलंब

यह संतोष का विषय है कि देर से ही सही निर्भया के दोषियों को फांसी की तारीख तय हो गई है। लेकिन देश में क्रिमिनल मामलों में फैसले में विलंब एक बहुत बड़ी समस्या है, जहां क्राइम का मामला दर्ज किए जाने से लेकर अंतिम रूप से दोषी ठहराए जाने तक पूरी प्रक्रिया में करीब 15 से 16 वर्ष लग जाते हैं। कई बार तो छोटे-छोटे जमीन के टुकड़े को लेकर दशकों तक मुकदमे चलते हैं। फौजदारी के मामलों में तो स्थिति और भी गंभीर है। हम अक्सर समाचारों में सुनते और पढ़ते हैं कि अपराध में मिलने वाली सजा से ज्यादा तो लोग फैसला आने के पहले ही सजा काट लेते हैं। यह सब केवल इसलिए होता है कि मुकदमों की सुनवाई और फैसले की गति बहुत धीमी है। हालत इतनी खराब है कि आपराधिक मामलों में आरोपी अपनी संभावित सजा से अधिक की मियाद जेल में ही पूरी कर लेता है और तब जाकर कहीं उनके मामले की सुनवाई हो पाती है। पीड़ितों के मामले में कुछ ऐसे संदर्भ भी रहे हैं जब आरोपी को दोषी ठहराए जाने में 30 वर्ष तक का समय लगा, हालांकि तब तक आरोपी की मृत्यु हो चुकी थी। न्याय-व्यवस्था की यह गति परेशान करने वाली है।

जिला अदालतों में तीन करोड़ मामले लंबित 

हाल में लोकसभा में सरकार ने बताया कि देश की निचली और जिला अदालतों में तीन करोड़ चौदह लाख मामले लंबित हैं। इनमें लगभग 18 लाख मामले दस साल से ज्यादा व 40 लाख मामले पांच साल से ज्यादा पुराने हैं। यदि केवल दुष्कर्म संबंधी मामलों की बात करें तो एनसीआरबी के वर्ष 2017 के आंकड़े बताते हैं कि देश में दुष्कर्म के कुल 1.27 लाख मामले अदालतों में विभिन्न चरणों में लंबित हैं। इससे जाहिर होता है कि भारत में न्यायिक विलंब की समस्या उत्तरोतर गंभीर होती जा रही है। वाकई यह बहुत चिंता की बात है। न्याय में विलंब के कारण लोगों का न्याय से विश्वास उठने लगा है। अदालती प्रक्रिया तेज कर ही आम आदमी को यह विश्वास दिलाया जा सकता है कि संविधान में उसे न्याय का जो अधिकार मिला है, उसकी हिफाजत हर कीमत पर की जाएगी। न्याय में विलंब से अपराध करने वालों के हौसले बुलंद रहते हैं कि न्याय प्रक्रिया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती या जब तक फैसला आएगा, स्थितियां बहुत बदल चुकी होंगी। कोर्ट में मामलों के पेंडिंग रहने से समाज में असंतोष बढ़ता है और न्याय के प्रति लोगों में आस्था कम होती है।

न्याय पाना हर नागरिक का अधिकार

बढ़ते अपराध और सामाजिक तनाव का एक बड़ा कारण यह भी है। अत्यधिक देरी की वजह से कई बार आम जनता से बड़ी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। एक प्रचलित कहावत है कि देर से मिला न्याय असल में न्याय देने से इन्कार के समान है, जबकि समय पर न्याय पाना हर नागरिक का अधिकार है। ऐसे में न्याय मिलने में देरी और सुनवाई की मंथर गति के बारे में गहन सोच-विचार करने की आवश्यकता है। न्याय पर लोगों का भरोसा रखने के लिए समय पर न्याय देने के प्रयास तेज करने होंगे। इसके लिए लंबित तमाम न्यायिक सुधारों को आगे बढ़ाना होगा।

भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर 17 न्यायाधीश

अदालतों में आधारभूत ढांचे की कमी है। विभिन्न श्रेणियों में फास्ट ट्रैक सुनवाई से क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में सुधार नहीं हो रहा है, क्योंकि अदालतों में कर्मचारियों और सुविधाओं की कमी है। ऐसे में पर्याप्त बजट आवंटन के साथ न्याय तंत्र की गति बढ़ाने के लिए इसे आधुनिक सुविधाओं से लैस करने की जरूरत है। भारत में भी सिंगापुर की तरह अदालतों में केस का समयबद्ध तरीके से निस्तारण की व्यवस्था की जानी चाहिए। सिंगापुर में कोर्ट में लगने वाले दिनों के हिसाब से वादी या प्रतिवादी से ‘टैक्स’ लिया जाता है जिससे कम दिनों में ही मुकदमा निपट सके। आज भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर 17 न्यायाधीश हैं, जबकि विधि आयोग ने 30 वर्ष पहले इस अनुपात को बढ़ाकर प्रति 10 लाख लोगों पर 50 न्यायाधीश करने की सिफारिश की थी। इस अंतराल को भरने के लिए मौजूदा खाली पदों को भरने के साथ साथ जरूरत के मुताबिक न्यायाधीशों के नए पद सृजित करने की भी है।

हमारी न्यायिक व्यवस्था प्रतिभाशाली छात्रों को आकर्षित करने में बुरी तरह विफल रही है। ऐसे में भारतीय प्रशासनिक सेवा की तर्ज पर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना मददगार सिद्ध हो सकती है। दुनिया के कई देशों जैसे इजराइल, कनाडा, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन में उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु 68 से 75 वर्ष के बीच है, जबकि अमेरिका में इसके लिए कोई आयु सीमा तय नहीं है। भारत में ही उच्च न्यायालयों के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा 62 वर्ष तथा सर्वोच्च न्यायालय में 65 वर्ष है। जजों की भारी कमी से जूझ रही भारत की न्यायपालिका में जजों की सेवानिवृत्ति की आयु भी बढ़ानी चाहिए ताकि मुकदमों के निस्तारण में तेजी आ सके।

[अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय]

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