विचार: रोका जाए धार्मिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग, यह अक्सर विवाद और टकराव का रूप ले लेता है
संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार इस प्रकार दिया गया है कि भारत का पंथनिरपेक्ष चरित्र मजबूत रहे और इन अधिकारों के किसी भी दुरुपयोग की स्थिति में राज्य सांप्रदायिक ताकतों को नियंत्रित कर सके। हमें यह देखना ही होगा कि मतांतरण में संलग्न ताकतें देश के पंथनिरपेक्ष चरित्र में छेड़छाड़ न करने पाएं।
सीबीपी श्रीवास्तव। उत्तराखंड सरकार ने विधानसभा के अगले सत्र में पेश किए जाने वाले धार्मिक स्वतंत्रता (संशोधन) विधेयक 2025 को मंजूरी दे दी है। इस विधेयक में प्रविधान है कि नौकरी, धन या अन्य उपहारों का लालच देकर किसी व्यक्ति का मतांतरण करने के प्रयास को जबरन पंथ परिवर्तन माना जाएगा। धार्मिक स्वतंत्रता व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग है, क्योंकि इसमें अंतःकरण की स्वतंत्रता भी शामिल है।
अंतःकरण व्यक्ति के ज्ञान, अंतर्ज्ञान और तर्कशक्ति का मिश्रण है, जो उसे किसी मत-मजहब के सिद्धांतों को समझने और उसके अनुसार कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। कई बार हम आस्था में परिवर्तन को भी एक अधिकार मान लेते हैं। इसलिए जब भी राज्य उपासना पद्धति की स्वतंत्रता के अधिकार की सीमा निर्धारित करने या मत परिवर्तन रोकने का प्रविधान करता है तो कुछ लोग इसे अपने मौलिक अधिकार का उल्लंघन करार देते हैं। यह अक्सर विवाद और टकराव का रूप ले लेता है।
मध्य प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और तमिलनाडु सहित करीब दस राज्यों में ऐसे कानून लागू हैं। उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश ने भी मत परिवर्तन निषेध कानून बनाए हैं। कई और राज्य भी इस दिशा में पहल कर रहे हैं। मतांतरण के विरुद्ध राजस्थान सरकार ने भी ऐसा एक विधेयक प्रस्तुत किया है। इन सभी कानूनों में एक बात समान है कि विवाह के लिए मतांतरण को संज्ञेय और दंडनीय अपराध घोषित किया गया है।
हालांकि आलोचकों का कहना है कि ऐसे कानून धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के विरुद्ध हैं। इसलिए इन अधिकारों के संवैधानिक पहलुओं को समझना जरूरी है। इसलिए और भी, क्योंकि छल-छद्म से मतांतरण के मामले सामने आते ही रहते हैं। उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में कथित छांगुर बाबा की ओर से कराए जाने वाले मतांतरण अभियान का षड्यंत्र आंखें खोलने वाला है।
संविधान में अनुच्छेद 25-28 के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है। एक ओर ये अधिकार समानता के सिद्धांत पर आधारित हैं, वहीं दूसरी ओर इनका सार धार्मिक सहिष्णुता है। यही भारत में पंथनिरपेक्षता का आधार भी है। इसीलिए संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा उद्देशिका में ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े जाने के बाद इसे परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं रही, क्योंकि धार्मिक सहिष्णुता इसे स्पष्ट कर देती है।
एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994 मामले में उच्चतम न्यायालय ने न केवल पंथनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे में शामिल किया, बल्कि यह भी कहा कि भारतीय संविधान लागू होने के समय से ही पंथनिरपेक्ष था। अनुच्छेद 25-28 के तहत मिले अधिकारों में अंतःकरण की स्वतंत्रता के साथ-साथ अपनी उपासना पद्धति को स्वतंत्र रूप से मानने, आचरण करने और उसके प्रचार-प्रसार करने का अधिकार भी शामिल है।
भारत में पंथनिरपेक्षता धार्मिक सहिष्णुता पर आधारित है। इसी कारण राज्य सामान्यतः धार्मिक गतिविधियों में हस्तक्षेप नहीं करता, पर सांप्रदायिकता भड़कने की आशंका की स्थिति में हस्तक्षेप कर सकता है। इसीलिए अनुच्छेद 25(2) में उल्लेख है कि राज्य पंथ से संबंधित राजनीतिक, वित्तीय या अन्य लौकिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए कानून बना सकता है।
इस आधार पर यह कहना उचित है कि भारत में पंथनिरपेक्षता संविधान में राज्य की नीति के रूप में शामिल है। यह न तो किसी मत के पक्ष में है, न उसके विरुद्ध और न ही यह किसी मत के प्रति तटस्थ है। यह मतविरोधी नहीं, बल्कि संप्रदायवाद विरोधी है। ये सभी प्रविधान दर्शाते हैं कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में मतांतरण का अधिकार शामिल नहीं है, लेकिन कुछ लोग और संस्थाएं इसे अधिकार की तरह इस्तेमाल करती हैं।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1948 में अपनाए गए मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणापत्र के अनुच्छेद 18 में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उपासना पद्धति को मानने, न मानने या उसे बदलने का अधिकार है। भारत संयुक्त राष्ट्र की नीतियों और अंतरराष्ट्रीय समझौतों का सम्मान करता है, लेकिन भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति और सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए यह उपबंध है कि कोई व्यक्ति अंतःकरण की स्वतंत्रता के आधार पर अपनी उपासना पद्धति बदल तो सकता है, लेकिन वह इस अधिकार का दावा नहीं कर सकता। मत परिवर्तन के इस अधिकार को न देने के पीछे मूल विचार सांप्रदायिक प्रवृत्तियों को रोकना है। अफसोस कि ये प्रवृत्तियां थम नहीं रहीं और इसीलिए राज्य सरकारें कानून बनाने के लिए विवश हैं।
यदि मत परिवर्तन के अधिकार को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के एक अभिन्न अंग के रूप में दिया जाएगा तो इसका दुरुपयोग बढ़ेगा और जबरन मतांतरण की घटनाओं में भी वृद्धि होगी। संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार इस प्रकार दिया गया है कि भारत का पंथनिरपेक्ष चरित्र मजबूत रहे और इन अधिकारों के किसी भी दुरुपयोग की स्थिति में राज्य सांप्रदायिक ताकतों को नियंत्रित कर सके। हमें यह देखना ही होगा कि मतांतरण में संलग्न ताकतें देश के पंथनिरपेक्ष चरित्र में छेड़छाड़ न करने पाएं।
(लेखक सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस के अध्यक्ष हैं)
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