हर्ष वी. पंत। शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ की बैठक में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री सात साल बाद चीन गए। इस दौरान मेजबान चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के अलावा कई अन्य नेताओं के साथ उनकी वार्ता हुई। खासतौर से चिनफिंग के साथ लंबे अर्से बाद मेल-मुलाकात और पुतिन के साथ उनकी आत्मीयता खासी चर्चित रही। एक ऐसे दौर में जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियां विशेषकर टैरिफ नीति दुनिया में हलचल मचा रही है, तब मोदी-चिनफिंग-पुतिन की तिकड़ी पर दुनिया भर की नजरें टिकना स्वाभाविक ही था।

एससीओ के मंच पर प्रधानमंत्री ने भारत की प्राथमिकताओं को भी प्रमुखता से सामने रखा। पाकिस्तान द्वारा किए गए पहलगाम आतंकी हमले की एससीओ द्वारा निंदा करना भारत की बड़ी कूटनीतिक जीत रही। यह रुख जून में एससीओ रक्षा मंत्रियों की बैठक के उलट रहा, जिसमें पहलगाम आतंकी हमले की निंदा को लेकर दोहरा रवैया दिखाया गया था।

नई दिल्ली के लिए यह परिणाम न केवल आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में एससीओ चार्टर के केंद्रीय मिशन को फिर से स्थापित करता है, बल्कि सदस्य देशों और यूरेशिया के खिलाफ पाकिस्तानी आतंकवाद की ओर वैश्विक ध्यान भी आकर्षित करता है। शिखर सम्मेलन से पहले और बाद में प्रधानमंत्री ने म्यांमार, मालदीव, मध्य एशिया, बेलारूस, रूस, आर्मेनिया और मिस्र के नेताओं के साथ द्विपक्षीय बैठकें भी कीं, ताकि कूटनीतिक संबंधों को मजबूत किया जा सके।

कई मोर्चों पर प्रगति के बावजूद इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि एससीओ आंतरिक विरोधाभासों से भरा हुआ है। कई सदस्य इस मंच का उपयोग अपने संकीर्ण हितों की पूर्ति और भू-राजनीतिक लाभ के लिए करते हैं, जिससे परस्पर विश्वास का अभाव और मतभेद उत्पन्न होते हैं। इसका ही परिणाम है कि यह मंच आतंकवाद, कनेक्टिविटी की कमी और अफगानिस्तान की स्थिति जैसे प्रमुख क्षेत्रीय संकटों के प्रभावी ढंग से समाधान में असफल रहा है।

चीन की भूमिका भी समस्याओं से भरी है। भारत के खिलाफ आतंकवाद को एक रणनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते आ रहे पाकिस्तान का चीन हरसंभव तरीके से बचाव करता आया है। पाकिस्तान के 80 प्रतिशत से अधिक रक्षा उपकरण अब चीन से आने लगे हैं। आपरेशन सिंदूर के दौरान भी उसने पाकिस्तान को सहायता पहुंचाई। बीजिंग के संकीर्ण रणनीतिक हितों ने अफ-पाक क्षेत्र को आतंकवाद का गढ़ बना दिया है। इससे क्षेत्रीय संपर्क, सुरक्षा और आर्थिक विकास पर असर पड़ता है और एससीओ कमजोर पड़ता है।

वर्ष 2017 में पूर्ण सदस्य के रूप में एससीओ में शामिल होने के बाद से भारत ने इस संगठन को कनेक्टिविटी और ऐसे सहयोगात्मक प्रयासों की ओर मोड़ने का प्रयास किया है, जो संप्रभुता का सम्मान करते हों। नई दिल्ली की प्राथमिकताएं क्षेत्र के लिए साझा संस्कृति और साझा भविष्य पर केंद्रित रही हैं। उसने भरोसेमंद, लचीली और विविधीकृत आपूर्ति शृंखलाओं पर जोर दिया है। इसके लिए बेहतर कनेक्टिविटी की आवश्यकता के साथ ही सदस्य देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान भी अनिवार्य है।

नई दिल्ली ने एससीओ मंच का उपयोग अपने भू-राजनीतिक और रणनीतिक लक्ष्यों को मध्य एशिया में आगे बढ़ाने और चीन के आक्रामक प्रभाव को संतुलित करने के लिए भी किया है। भारत की सक्रियता के चलते ही मध्य एशियाई देशों ने 2018 में उसे अस्ताना समझौते में शामिल किया और चाबहार पोर्ट एवं अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे को लेकर पूर्वी मार्ग में रुचि दिखाई।

इसी वर्ष जून में भारत और मध्य एशिया ने नई दिल्ली में चौथे भारत-मध्य एशिया संवाद के दौरान रेयर अर्थ और महत्वपूर्ण खनिजों को लेकर बात आगे बढ़ाई। यह कदम बीजिंग द्वारा स्वच्छ ऊर्जा और रक्षा के लिए रेयर अर्थ के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के बाद उठाया गया। मध्य एशिया को बीजिंग के प्रभुत्व के संभावित प्रतिद्वंद्वी के रूप में भी देखा जा रहा है, क्योंकि वहां रेयर अर्थ तत्वों के समृद्ध भंडार हैं। अकेले कजाकिस्तान में ही 5,000 से अधिक रेयर अर्थ तत्व हैं, जिनका मूल्य 46 ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर से अधिक बताया जा रहा है।

एससीओ ने भारत और चीन को सीधे संवाद का एक मंच भी प्रदान किया और दोनों देशों ने मतभेदों के बावजूद द्विपक्षीय मुद्दों पर समाधान तलाशने की इच्छा भी जताई। इन मुद्दों में सीमा निर्धारण और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआइ के तहत गुलाम जम्मू-कश्मीर में चीनी निवेश जैसे मुद्दे भी शामिल हैं, जो भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को चुनौती देते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि वैश्विक दक्षिण द्वारा संचालित ब्रिक्स और एससीओ जैसे मंच द्विपक्षीय संबंधों में सुधार के माध्यम भी बने हैं।

युद्धों, संघर्षों, टैरिफ और बढ़ते भू-राजनीतिक तनावों वाले इस दौर में बीजिंग और नई दिल्ली को दीर्घकालिक रणनीतिक दृष्टिकोण के साथ सहयोग करना चाहिए। उनकी बढ़ती भूमिका और दायित्वों को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक भी है। इससे बहुपक्षीयता और बहु-ध्रुवीय विश्व बनाने की इनकी संकल्पना को भी बल मिलेगा। हालांकि संबंधों की सही दशा-दिशा के लिए चीन को भी यह तय करना होगा कि वह भारत के साथ संबंधों को कैसे आगे बढ़ाएगा। इसके लिए उसे ‍भारतीय वस्तुओं और आइटी सेवाओं के लिए अधिक बाजार पहुंच प्रदान करना और पाकिस्तान पर आतंकवाद को समाप्त करने के लिए दबाव डालना होगा।

आज जब युद्ध, टैरिफ और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धाएं वैश्विक व्यवस्था को अस्थिर कर रही हैं, तब भारत की एससीओ में वापसी बहुपक्षीयता के प्रति उसके मूल्य को दर्शाती है। मोदी की भागीदारी को कमजोरी के रूप में नहीं, बल्कि रणनीतिक व्यावहारिकता के रूप में देखा जाना चाहिए।

भारत के लिए एससीओ और ब्रिक्स जैसे मंच अपनी आवाज उठाने, सुरक्षा हितों की पूर्ति और यूरेशिया में अपनी आर्थिक पैठ को विस्तार देने वाले माध्यम की भूमिका निभाते हैं। हाल के सम्मेलन से जो सकारात्मक संकेत मिले हैं, उन्हें वास्तविकता के धरातल पर उतारने के लिए चीन को सुनिश्चित करना होगा कि उसकी कथनी एवं करनी में कोई भेद नहीं। तभी एससीओ प्रतीकात्मकता से आगे बढ़कर बहुध्रुवीय स्थिरता का एक विश्वसनीय स्तंभ बन सकता है।

(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)