अशोक कुमार। सीमा पार से घुसपैठ भारत की सबसे गंभीर आंतरिक सुरक्षा चिंताओं में से एक बन गई है। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से इस खतरे को रेखांकित करते हुए कहा, ‘अवैध घुसपैठिए हमारे युवाओं की रोजी-रोटी छीन रहे हैं, हमारी बेटियों और बहनों को निशाना बना रहे हैं और निर्दोष आदिवासियों की वन भूमि पर कब्जा कर रहे हैं।’ उन्होंने सीमावर्ती क्षेत्रों में इन जनसांख्यिकीय बदलावों को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बताया।

इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने एक उच्चस्तरीय जनसांख्यिकीय सुरक्षा मिशन के गठन की घोषणा भी की है। यह इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए एक दृढ़ प्रयास का संकेत देता है। घुसपैठ अब केवल सीमा-विशेष के स्तर पर ही समस्या नहीं रह गई है। दिल्ली, हैदराबाद, गुरुग्राम और पुणे जैसे प्रमुख शहरों में घुसपैठियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इससे शहरी सेवाओं और व्यवस्था पर दबाव बढ़ रहा है। इसके दूरगामी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिणाम भी सामने आ रहे हैं।

घुसपैठ एक राष्ट्रीय चिंता बन गई है। बांग्लादेश और म्यांमार से आए घुसपैठियों ने असम, बंगाल, त्रिपुरा और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की जनसांख्यिकीय संरचना को बदल दिया है। इससे सामाजिक संतुलन बिगड़ा है। इसके चलते भूमि, भाषा और पहचान को लेकर टकराव पैदा हो रहा है। स्थानीय लोगों में धारणा बढ़ रही है कि घुसपैठिए कल्याणकारी योजनाओं और राजनीतिक तुष्टीकरण का लाभ उठा रहे हैं।

इस धारणा ने जातीय राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक तनाव को जन्म दिया है। कट्टरपंथी समूह ऐसी भावनाओं का फायदा उठाने में तत्पर रहते हैं, जिससे सामाजिक एकता को और खतरा पैदा होता है। इस समस्या को विकराल बनाने में राजनीतिक दल भी कम दोषी नहीं। अधिकांश दलों ने वोट-बैंक के लिए जाली दस्तावेजों के जरिये घुसपैठियों को सरकारी जमीनों खासकर नदियों के निकट और वन क्षेत्रों में बसाने में मदद की है।

अल्पकालिक चुनावी लाभ के लिए इससे राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ दीर्घकालिक समझौता हो जाता है। इससे नागरिकों और राज्य के बीच अविश्वास गहराता है। समय रहते अगर इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह भारी अशांति का कारण बन सकता है, विशेषकर उन संवेदनशील क्षेत्रों में जहां जनसांख्यिकीय दबाव बढ़ रहा है। इसके तब और विध्वंसक परिणाम सामने आते हैं जब घुसपैठिए कृषि, निर्माण और घरेलू मजदूरी से जुड़े काम में संलग्न हो जाते हैं। इससे बाजार सस्ते मजदूरों से भर जाता है और स्थानीय श्रमिकों के हितों पर चोट पहुंचती है। सुरक्षा के जोखिम अलग बढ़ जाते हैं।

कई घुसपैठिए अनौपचारिक या ग्रे इकोनमी में भी लिप्त होते हैं, जहां वे पशु तस्करी, मादक पदार्थों, जाली मुद्रा और अन्य अवैध गतिविधियों में लिप्त होते हैं। ये गतिविधियां न केवल औपचारिक अर्थव्यवस्था को कमजोर करती हैं, बल्कि संगठित अपराध सिंडिकेट को भी मजबूत बनाती हैं। इनमें से कुछ के आतंकवादियों से संबंध भी होते हैं। स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और कल्याणकारी योजनाओं पर भी घुसपैठिए बोझ बढ़ा रहे हैं। इस बोझ के चलते 2047 तक भारत के एक विकसित राष्ट्र बनने का सपना भी पटरी से उतर सकता है।

शत्रु पक्ष की रणनीतियों के कारण भारत की सीमाओं पर समस्याएं बढ़ रही हैं। पंजाब में ड्रोन के जरिये ड्रग्स और हथियार से जुड़े आतंकवाद ने जोर पकड़ लिया है। भारत-म्यांमार सीमा पर दुर्गम इलाके उग्रवादियों की आवाजाही और अवैध प्रवेश को बढ़ावा देते हैं। साइबर अपराधियों और मजदूरों के वेश में छिपे गुप्त एजेंट जांच को और जटिल बना देते हैं। बीते दिनों बांग्लादेश-मेघालय सीमा पर पाकिस्तानी आतंकियों की गिरफ्तारी पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ द्वारा एक रणनीतिक बदलाव का संकेत देती है, जो अब पूर्वी सीमा पर कमजोरियों का फायदा उठाने के फेर में है।

सुरक्षा बलों की भरसक कोशिशों के बावजूद व्यापक भौगोलिक परिस्थितियां भी प्रवर्तन संबंधी चुनौतियां उत्पन्न कर रही हैं। 2011 में मालदा जिले में पशु तस्करों ने एक हेड कांस्टेबल की हत्या कर दी थी। एक सर्वेक्षण के अनुसार 500 मीटर क्षेत्र पर अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों ने कब्जा किया हुआ था। इससे सुरक्षा अभियान के समक्ष चुनौतियां पैदा हो गईं। स्थानीय खुफिया नेटवर्क भी प्रभावित हो रहा है। ऐसी वास्तविकताएं यही संकेत करती हैं कि घुसपैठ केवल सीमा उल्लंघन तक ही सीमित नहीं है, यह आंतरिक समन्वय को भी कमजोर कर सकती है। संकट के समय दुश्मन देशों के साथ साठगांठ को बढ़ावा दे सकती है।

नवघोषित जनसांख्यिकीय सुरक्षा मिशन एक आवश्यक कदम है। इसे सफल बनाने के लिए इस राह में आने वाली चुनौतियों के प्रति शून्य-सहिष्णुता वाला दृष्टिकोण अपनाना होगा। नकली पहचान पत्र, दस्तावेज वालों पर कानूनी शिकंजा कसना होगा। उन्नत सीमा बाड़, निगरानी तकनीकें और नागरिक सत्यापन प्रणालियां भी जरूरी होंगी। कौटिल्य ने यथार्थ ही लिखा है, ‘सीमाओं पर स्थित प्रदेशों में विश्वसनीय लोगों और सैनिकों से आबाद किलेबंद नगर स्थापित करने चाहिए। विदेशियों को सीमावर्ती प्रदेशों में बसने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।’ यह सलाह आज भी प्रासंगिक है। राष्ट्र की संप्रभुता जनसांख्यिकीय अखंडता पर भी निर्भर करती है।

घुसपैठ एक क्षेत्रीय चुनौती ही नहीं, बल्कि भारत की राजनीतिक इच्छाशक्ति, नीतिगत संकल्प और सामाजिक एकता की एक बुनियादी परीक्षा भी है। इसके लिए एक एकीकृत राष्ट्रीय प्रतिक्रिया आवश्यक है, जो अल्पकालिक राजनीति से ऊपर उठे। यदि यह मुद्दा अनसुलझा रहा तो अस्थिरता की आशंका बढ़ेगी। घुसपैठिए देश की आंतरिक शांति को खतरे में डालने के साथ ही विकास को बाधित कर सकते हैं। एक दिन ऐसा आ सकता है जब अनियंत्रित घुसपैठ देश के लोकतांत्रिक तानेबाने और संप्रभुता के लिए गंभीर खतरा बन जाए। यह न भूला जाए कि जो राज्य अपनी सीमाओं की उपेक्षा करता है, वह अव्यवस्था को आमंत्रित करता है। अब समय आ गया है कि भारत अपने भविष्य की रक्षा के लिए निर्णायक कदम उठाए।

(बीएसएफ में भी रह चुके लेखक उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी हैं)