[मनीषा सिंह]। इस दुनिया को यूं तो बदलना ही था। जैसी धरती हमें सदियों पहले मिली थी, उसका चेहरा हमेशा ठीक वैसा ही तो नहीं रह सकता था, क्योंकि विकास की कीमत हमारे इसी पर्यावरण को अदा करनी थी, लेकिन यह धरती और इसका पूरा माहौल औद्योगिक क्रांति के डेढ़ सौ बरस में ही इतना ज्यादा बदल गया है कि वैसा कुछ पृथ्वी पर जीवन के विकास के हजारों साल लंबे इतिहास में कभी नहीं हुआ।

इसकी एक गवाही 40 साल पहले जेनेवा में आयोजित हुए पहले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (क्लाइमेट कांफ्रेंस) से मिलती है, जिसमें जुटे विज्ञानियों ने प्रदूषण के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन पर चिंता जताई थी। इधर कुछ वैसी ही चिंता दुनिया भर के 11,258 वैज्ञानिकों ने यह कहते हुए प्रकट की है कि अगर जल्द ही जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोई ठोस कार्ययोजना नहीं बनाई गई तो इंसानों के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो सकता है, क्योंकि जलवायु आपातकाल (क्लाइमेट इमरजेंसी) का वक्त आ पहुंचा है।

क्लाइमेट इमरजेंसी लागू करने की पहल

हाल ही में जर्नल-बायोसाइंस द्वारा किए गए एक अध्ययन में भारत समेत दुनिया के 153 देशों के 11,258 वैज्ञानिकों ने एक स्वर में कहा है कि पिछले 40 वर्षों में ग्रीनहाउस गैसों के अबाध उत्सर्जन और आबादी बढ़ने के साथ-साथ पृथ्वी के संसाधनों के अतिशय दोहन, जंगलों के कटने की रफ्तार बढ़ने, ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने और मौसम के पैटर्न में बदलाव से हालात सच में क्लाइमेट इमरजेंसी वाले हो गए हैं। दुनिया के कुछ देशों ने तो क्लाइमेट इमरजेंसी लागू करने की पहल भी कर दी है, जैसे इसी साल मई में आयरलैंड की संसद ने जलवायु आपातकाल घोषित किया था।

पृथ्वी की स्थिति दिनोंदिन बिगड़ती जा रही

आयरलैंड से पहले यह कदम ब्रिटेन ने उठाया था, जो एक मई, 2019 को ऐसा आपातकाल लागू करने वाला विश्व का पहला देश है। वहां यह कदम लंदन में एक आंदोलन के बाद उठाया गया था। इस आंदोलन का मकसद 2025 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की सीमा शून्य पर लाने और जैवविविधता के नुकसान को पूरी तरह खत्म करना है। सवाल है कि आखिर इस किस्म के आपातकाल को लागू करने की जरूरत क्यों पड़ रही है? इसके पीछे कुछ कारण तो बिल्कुल साफ हैं। प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जैसी चीजें एक समस्या हैं, पर ये असल में इंसान की उस प्रवृत्ति की देन हैं, जिसमें उसने इस जीवनदायिनी धरती से सिर्फ लेना सीखा है, उसे लौटाना नहीं। यही वजह है कि पृथ्वी की स्थिति दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है। हम भले ही विश्व पर्यावरण दिवस और पृथ्वी दिवस जैसे आयोजन कर लें, पर सच्चाई यह है कि इसकी परवाह कोई नहीं कर रहा है कि पृथ्वी का इतने तरीकों से और इतनी अधिक बेदर्दी से दोहन हो रहा है कि धरती हर पल कराह रही है।

पृथ्वी के वायुमंडल में पहले से ज्यादा जहरीली गैसें और गर्मी घुल गई है। इस गर्मी के चलते गंगोत्री और अंटार्कटिका-आर्कटिक जैसे ग्लेशियर तेजी से पिछलने लगे हैं। इन वजहों से पृथ्वी के जीवन में रंग घोलने वाली तितलियों, मधुमक्खियों, मेंढक एवं मछलियों, चिड़ियों, दुर्लभ सरीसृपों और विभिन्न जीव-जंतुओं की सैकड़ों किस्में हमेशा के लिए विलुप्त हो गई हैं। जंगल खत्म हो रहे हैं, पानी का अकाल पड़ रहा है। मरुस्थलों के फैलाव की रफ्तार में तेजी आ रही है, कार्बन डाईऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा काफी ज्यादा बढ़ गई है जिससे सांस लेना दूभर हो गया है। अब तो नदियों के ही अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है।

मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का कर रहा दोहन 

हालांकि इसमें संदेह नहीं है कि बीते 40-50 वर्षों की अवधि में दुनिया में पृथ्वी की सेहत यानी पर्यावरण संबंधी मामलों को लेकर लोगों में जागरूकता आई है और उनकी जानकारी का स्तर बढ़ा है, लेकिन ऐसी जागरूकता किस काम की, जो पृथ्वी के संसाधनों के बुरी तरह से हो रहे दोहन पर कोई लगाम न लगाए। समस्या संसाधनों के दोहन को लेकर इंसान के बढ़ते लालच की है। असल में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन कर रहा है, लेकिन उसकी भरपाई का जरा सा प्रयास नहीं हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण इकाई (यूनेप) ने आकलन किया है कि धरती के संसाधनों के दोहन की रफ्तार प्राकृतिक रूप से होने वाली भरपाई के मुकाबले 40 प्रतिशत तक ज्यादा है। यानी मनुष्य एक साल में जितने प्राकृतिक संसाधनों-हवा, पानी, तेल, खनिज आदि का इस्तेमाल करता है, उतने संसाधनों की क्षतिपूर्ति में पृथ्वी को न्यूनतम डेढ़ साल लग जाता है। धीरे-धीरे भरपाई के मुकाबले दोहन का प्रतिशत बढ़ता भी जा रहा है।

दावा है कि इसकी भरपाई अब तभी हो सकती है जब इंसानों के रहने के लिए डेढ़ पृथ्वियां मिल जाएं। चूंकि हम अपने इस ग्रह का विस्तार नहीं कर सकते, इसलिए स्टीफन हॉकिंग जैसे वैज्ञानिक यह आह्वान करते रहे हैं कि अब इंसानों को अपने रहने के लिए किसी और ग्रह का इंतजाम कर लेना चाहिए। चूंकि दूसरे ग्रह पर जा बसना अभी की सूरतों में किसी भी तरह मुमकिन नहीं लगता, इसलिए कोशिश यही है कि इसी पृथ्वी को रहने लायक बनाया जाए, जिसका एक रास्ता जलवायु परिवर्तन थामने की कोशिशों के तहत की जाने वाली संधियां हैं, पर इसमें बड़ी बाधा यह है कि बड़े देश ही इन संधियों को बेजा बताकर इनमें शामिल नहीं होने या किसी बहाने इनसे बाहर निकलने का रास्ता खोज रहे हैं। जैसे इधर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने वर्ष 2015 के पेरिस समझौते से बाहर निकलने का एलान किया है।

ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 

उल्लेखनीय है कि दिसंबर 2015 में पेरिस में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के 21वें जलवायु सम्मेलन के तहत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती और पर्यावरण सुधार के वास्ते किए जाने वाले खर्च को लेकर 195 देशों ने एक समझौता किया था। सीरिया और निकारागुआ को छोड़कर अन्य सभी देशों ने ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करते हुए दुनिया में बढ़ रहे तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) को रोकने पर यह सहमति जताई थी कि 2020 में लागू किए जाने के बाद वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस घटाने का प्रयास किया जाएगा। साथ ही जलवायु परिवर्तन थामने के लिए विकासशील देशों को वित्तीय सहायता के रूप में 100 अरब डॉलर हर साल दिए जाएंगे और इस राशि को आने वाले वर्षों में बढ़ाया जाएगा।

इतना तय है कि ग्लोबल वार्मिंग और इस कारण जलवायु परिवर्तन की समस्या ने पृथ्वी पर निवास योग्य स्थितियों में बड़ा बदलाव कर दिया है। दिल्ली-एनसीआर से लेकर देश के बड़े शहरों में इधर जो वायु प्रदूषण छाया रहा है, उससे हालात की गंभीरता का अंदाजा हमें अपने देश में भी हो रहा है। इसलिए यह बात कोई भी कह सकता है कि दुनिया के हालात इस समय क्लाइमेट इमरजेंसी वाले ही हैं और इससे निपटने के उपायों को युद्धस्तर पर लागू नहीं किया गया तो हमारी सांसों और रग-रग में घुलते प्रदूषण के जहर को बाहर निकालना नामुमकिन हो जाएगा। इसी तरह पृथ्वी को खोखला करने वाली दोहन की नीतियों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो हवा-पानी से लेकर हर चीज का ऐसा अकाल पैदा हो जाएगा कि इंसान चाहकर भी जीवन के लिए जरूरी संसाधन नहीं जुटा सकेगा। ऐसी परिस्थितियां पैदा न हों, इसके लिए जरूरी है कि क्लाइमेट इमरजेंसी को एक वास्तविकता माना जाए और इससे बचने-निपटने के असरदार उपाय लागू किए जाएं।

गरीबी बढ़ा रहा जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन का एक सीधा असर देशों की अमीरी-गरीब पर भी पड़ता है। इसका शायद ही पहले कोई अंदाजा लगाता रहा हो, पर अब यह साबित हो रहा है कि असल में बढ़ती गर्मी और बदलते मौसम अमीरों को और धनी, जबकि गरीबों और ज्यादा मुफलिसी की हालत में पहुंचा रहे हैं। इस सिलसिले में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था को जलवायु परिवर्तन के कारण 31 फीसद का नुकसान हुआ है। यह अध्ययन कहता है कि ग्लोबल वार्मिंग का नकारात्मक असर नहीं होता तो भारतीय अर्थव्यवस्था और ज्यादा मजबूत होती। दूसरे कई देशों की अर्थव्यवस्था भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हुई है। जैसे कि इससे सूडान को 36 फीसद, नाइजीरिया को 29, इंडोनेशिया को 27 और ब्राजील को 25 प्रतिशत का नुकसान हुआ है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 1961 से 2010 के बीच विभिन्न देशों के बीच पैदा हुई कुल आर्थिक असमानता के एक चौथाई हिस्से की वजह मानव गतिविधियों से हो रही ग्लोबल वार्मिंग ही है।

अध्ययन में इस बात को पहला आधार बनाया गया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से किस देश का तापमान कितना बढ़ा? इसके पश्चात यह आकलन किया गया कि अगर ऐसा न होता तो उस देश का आर्थिक उत्पादन कितना होता? इस तरह पिछले 50 वर्षों में 165 देशों के बढ़ते तापमान और जीडीपी के रिश्तों का हिसाब लगाया गया। इस अध्ययन की सबसे रोचक बात यह रही है कि जिन विकसित ठंडे देशों का इस दौरान तापमान बढ़ा, उन्हें तो ग्लोबल वार्मिंग से लाभ ही हुआ है। जैसे कि नॉर्वे, जिसने इन 50 वर्षों में क्लाइमेट चेंज के विपरीत हालात में तेज विकास किया। जबकि भारत जैसे गर्म देश में न सिर्फ जैव विविधता इस दौरान खतरे में पड़ी, बल्कि साफ हवा-पानी का भी संकट बढ़ा, जिसकी चोट अंतत: अर्थव्यवस्था पर पड़ी।

नौकरियों पर भी लगा रहा ग्रहण

जलवायु में हो रहा बदलाव सिर्फ प्राकृतिक नुकसान की वजह नहीं बन रहा है, बल्कि जिन कई और तरीकों से वह किसी इलाके या देश को क्षति पहुंचा रहा है, उनमें एक नौकरियों का संकट पैदा करना भी है। नौकरियां किस तरह क्लाइमेट चेंज की भेंट चढ़ रही हैं, इसका एक खाका संयुक्त राष्ट्र ने इसी वर्ष यानी 2019 में खींचा है, जिसके मुताबिक भारत में बढ़ता तापमान 2030 तक करीब 3.4 करोड़ नौकरियां लील जाएगा। दुनिया भर में मजदूरों की जिंदगी पर क्लाइमेट चेंज का असर मापने के लिए किए गए सर्वेक्षण के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आने वाले वक्त में बढ़ती गर्मी के कारण मजदूरों के लिए दिन में काम करना मुश्किल होता जाएगा, जिससे उनके काम के घंटे कम हो जाएंगे। काम के घंटे कम होने का प्रत्यक्ष प्रभाव उनकी मजदूरी पर पड़ेगा, जिससे या तो उनकी आय बेहद कम हो जाएगी या फिर वे नौकरी छोड़कर जीवन-यापन के लिए आय के दूसरे स्नोतों पर निर्भर हो जाएंगे।

भारत जैसे देश में जहां 90 फीसद से ज्यादा मजदूर खेती और भवन निर्माण जैसे असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं, जलवायु परिवर्तन अंतत: उनकी नौकरियों पर ग्रहण लगाने वाला साबित हो सकता है। वैसे तो यह रिपोर्ट आशंका जताती है कि क्लाइमेट चेंज से तापमान बढ़ने पर पूरी दुनिया में काम करने के घंटों में 2.2 फीसद की कमी आएगी, पर इसका सबसे बुरा असर भारत जैसे देशों पर ही पड़ेगा।

रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1995 में भारत में काम के घंटों में 4.3 फीसद की कमी आई थी, जिसका असर मजदूरी कम होने के रूप में पड़ा, पर अब 2030 तक यह आंकड़ा 5.8 प्रतिशत तक बढ़ सकता है। इधर जिस प्रकार से दिल्ली-एनसीआर में 40 फीसद से ज्यादा लोगों ने यहां के गंभीर वायु प्रदूषण के मद्देनजर छोटे शहरों की ओर पलायन की बात कही है, इसका साफ संकेत है कि इससे ढांचा आदि क्षेत्रों की नौकरियों पर संकट आएगा।

[स्वतंत्र पत्रकार]