निंदा से बचें
साहित्यकार वैसे तो नौ रसों की बात करते हैं, लेकिन मजाक में ही सही निंदा को भी निंदारस कहा जाता है।
साहित्यकार वैसे तो नौ रसों की बात करते हैं, लेकिन मजाक में ही सही निंदा को भी निंदारस कहा जाता है। निंदा का सीधा-सा अर्थ है छिद्रान्वेषण या दूसरों में बुराई तलाशना। स्कंध पुराण में कहा गया गया है जिसका हिंदी में आशय है कि परनिंदा महापाप है, परनिंदा महाभय है, परनिंदा महादुख है। उससे बड़ा कोई पाप नहीं है, लेकिन अक्सर लोगों में परनिंदा में किसी स्वादिष्ट भोजन से भी ज्यादा आनंद मिलता है। माना जाता है कि निंदा तीन प्रकार की होती है। पहली निंदा तो स्वभाववश होती है। दूसरी निंदा ईर्ष्या के कारण होती है। कई लोगों का स्वभाव ही ऐसा बन जाता है कि वे किसी के बारे में सकारात्मक बात नहीं करते। वे कमियां ढूंढते रहते हैं और उसकी निंदा करते हैं। ईर्ष्यावश की गई निंदा किसी की सफलता को देखकर जन्म लेती है। इससे उस सफल व्यक्ति के प्रति हमारे मन में जलन पैदा हो जाती है और उसके अच्छे कामों का भी छिद्रान्वेषण करने लगते हैं। इसकी सबसे बुरी बात यह है कि यह व्यक्ति विशेष को ध्यान में रखकर उसे नुकसान पहुंचाने के लिए भी की जाती है। कई निंदा तीसरे प्रकार की होती है। जिसकी निंदा की जाती है उसके व्यवहार अथवा आचरण को लक्ष्य बनाया जाता है। हो सकता है कि कभी-कभी इस तरह की निंदा तथ्य परक हो, पर यह निंदा तो होती ही है इसलिए इसके दुष्परिणाम भी होते हैं।
यह तथ्य है कि हम जब किसी में कोई दोष तलाश रहे होते हैं तो एक अंगुली तो उसकी तरफ होती है, मगर चार अंगुलियां हमारी तरफ ही होती हैं। विद्वानों का कहना है कि ये चारों अंगुलियां हमारी तरफ ही इंगित होती हैं। जब आप में कमियां हैं तो आपको कोई हक नहीं होता कि आप किसी में दोष तलाशें या उसकी कमियों का जिक्र करें। यदि निंदा जैसी भयानक बुराई से बचना है तो हमें तत्काल यह आदत डाल लेनी चाहिए कि हम दूसरों में बुराइयों के बजाय अच्छाइयां तलाशें और उनका अनुसरण करें। संत कबीर ने कहा था कि जो व्यक्ति हमारी निंदा करता है कि वह हमारी कमजोरियों या बुराइयों को सीधे-सीधे और स्पष्ट तरीके से हमें बता देगा, जबकि हमारा मित्र या स्वजन शायद ऐसा न कर पाएं। इस उदाहरण से भले ही निंदा को एक अच्छी आदत माना जाए, लेकिन इसकी जो बुराइयां हैं उन्हें सामने रखें तो स्पष्ट होगा कि निंदा से बचना ही उचित है।
[ रेणु जैन ]
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