डॉ. ए के वर्मा

गुजरात विधानसभा के चुनाव घोषित होते ही देश में उसके संभावित परिणामों को लेकर उत्सुकता बढ़ गई है। वैसे तो सभी चुनाव चुनौतीपूर्ण होते हैं, परंतु गुजरात चुनावों को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्सुकता है, क्योंकि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहराज्य है। गुजरात चुनाव को लेकर जनता में इतनी उत्सुकता पहले कभी नहीं दिखी। गुजरात को भाजपा का गढ़ माना जाता है। वर्ष 1998 में केशूभाई पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री बने तब से वहां भाजपा की सरकार है। जब से गुजरात के पूर्व-मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के प्रधानमंत्री पद की बागडोर संभाली है तब से वहां एक राजनीतिक शून्य सा बना है। पहले आनंदीबेन पटेल और फिर विजय रुपाणी गुजरात में उस शून्य को भरने में सफल नहीं हुए। कुछ दिनों पूर्व साबरमती आश्रम से गांधीजी के जन्मस्थान पोरबंदर और ग्रामीण गुजरात की यात्रा में एक खास बात यह देखने को मिली कि अभी भी वहां के जनमानस में मोदी एक सशक्त और लोकप्रिय नेता के रूप में व्याप्त हैं। बावजूद इसके कि हाल के स्थानीय चुनावों में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया, अधिकतर गुजराती मतदाता अभी भी मोदी के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखते हैं, लेकिन भाजपा के लिए गुजरात में सब कुछ ठीक नहीं है। लगभग दो वर्ष पूर्व दिसंबर 2015 में हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में गुजरात के शहरी मतदाताओं ने भाजपा तो ग्रामीण मतदाताओं ने कांग्रेस को वोट दिया था। भाजपा ने अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा, राजकोट, जामनगर और भावनगर की सभी नगर महापालिकाओं और 56 में 42 नगरपालिकाओं पर विजय दर्ज की तो कांग्रेस ने 31 में 21 जिला पंचायतों और 230 में 110 तालुका पंचायतों पर कब्जा जमाया, लेकिन यह दो वर्ष पूर्व की स्थिति है। तब से मोदी सरकार ने ग्रामीण भारत के लिए कृषि एवं कौशल विकास की अनेक योजनाएं लागू की हैं। हां, यह जरूर है कि करीब दो दशक तक लगातार सत्ता में रहने के स्वाभाविक नुकसान भी हैं।


लोकतंत्र में मतदाता को किसी एक पार्टी को चुनते-चुनते थकान सी हो जाती है और वह तब बदलाव चाहने लगता है जब लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली पार्टी और सरकार जनता के प्रति अत्यंत संवेदनशील और समर्पित न हो। गुजरात भ्रमण करने पर ऐसा लगा नहीं-खास तौर से छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में कुछ वैसा ही नजारा दिखा जो सामान्यत: अन्य राज्यों में दिखता है। गांधी जी के जन्मस्थान पोरबंदर और वहां के प्रतिष्ठित कृष्ण-सुदामा मंदिर और समुद्र में स्थित मशहूर बेत-द्वारिका मंदिर आदि की गंदगी और कुप्रबंधन आश्चर्य का विषय था। गुजरात एक व्यापारिक राज्य रहा है। पहले नोटबंदी और उसके पीछे-पीछे जीएसटी ने वहां के व्यापारियों का मनोविज्ञान बिगाड़ा है। मोदी सरकार इन मुद्दों को लेकर संवेदनशील है और छोटे व्यापारियों की व्यावहारिक समस्याओं को दूर करना चाहती है। मोदी के गुजरात से हटने पर संपन्न पाटीदार समाज आंदोलित रहा है और हार्दिक पटेल उस समाज के एक नेता के रूप में उभरे हैं। हालांकि पिछले दिनों उनकी राहुल गांधी से गुप्त मुलाकात और गुजरात की एक अदालत द्वारा उनको पाटीदार आंदोलन में हिंसा के लिए गैर-जमानती वारंट जारी करने से उनकी छवि धूमिल हुई है। हार्दिक पटेल के तमाम सुर्खियां बटोरने के बाद भी यह कहना उचित नहीं होगा कि वह अपने समाज के एकमात्र-एकछत्र नेता हैं, लेकिन भाजपा को पाटीदार वोटों का कुछ नुकसान हो सकता है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने गुजरात में कांग्रेस से दोस्ताने की बात की है और कुछ और सीटों के मिलने पर कांग्रेस के लिए प्रचार भी करने को कहा है। अखिलेश वहां कितने प्रभावशाली होंगे यह तो समय बताएगा, लेकिन उत्तर प्रदेश में 2017 का उनका अनुभव तो कुछ और ही संकेत करता है।
यक्ष प्रश्न यह है कि गुजरात के मतदाता के समक्ष राज्य सरकार चुनने के संबंध में क्या विकल्प हैं? कांग्रेस की क्या स्थिति है? जो पार्टी 22 वर्षों से सत्ता से बाहर हो, उसका संगठनात्मक ढांचा उदासीन और नाउम्मीद होकर बिखर जाता है। आज गुजरात में कांग्रेस के सामने नेतृत्व का संकट है। कोई सशक्त स्थानीय नेता नहीं है। चुनावों के कई माह पूर्व शंकरसिंह वाघेला के पार्टी छोड़ने से कांग्र्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं जो उसे वोट दिला सके। गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष भारत सिंह सोलंकी ऐसी कोई शख्सियत नहीं। पार्टी के पास राहुल गांधी पर भरोसा करने के अलावा कोई चारा नहीं, लेकिन राहुल को स्वयं पर ही भरोसा नहीं। अभी वह स्वयं ‘उत्तरों के प्रश्न’ में ही उलझे हुए हैं।
भाजपा ने पिछले कई वर्षों में अपने समर्थकों का विश्वास बनाए रखा है और कुल मतदाताओं के एक बड़े वर्ग का समर्थन पार्टी को मिलता रहा है। 2004 में यह 47.37 प्रतिशत, 2007 में 49.12 प्रतिशत, 2009 में 46.57 प्रतिशत और 2012 में 47 प्रतिशत रहा। इतना ही नहीं, नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान पार्टी ने जबरदस्त संगठनात्मक ढांचा बनाया। आज उसी का परिणाम है कि गुजरात में कुल मतदाताओं का लगभग एक चौथाई हिस्सा भाजपा कार्यकर्ता के रूप में पंजीकृत है। भाजपा ने अनेक रणनीतियां भी बनाई लगती हैं। एक तो कांग्रेसियों की निराशा और अपनी समावेशी राजनीति के चलते ऐसे बहुत से कांग्रेसी नेताओं को भाजपा अपने पाले में ले आई है जो अपने-अपने क्षेत्र में प्रभावशाली हैं। दूसरे, पार्टी के प्रति संभावित ‘सत्ता-विरोधी-रुझान’ से निपटने के लिए पार्टी ऐसे बहुत से विधायकों का टिकट काट सकती है जिनकी अपने क्षेत्र में छवि अच्छी नहीं है। कई बार मतदाता को सरकार से कम और अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि से ज्यादा शिकायत होती है। संभवत: अमित शाह इसे जानते ही होंगे कि पार्टी के लिए किसी विधायक का नहीं, विजय का महत्व है। इससे आगे भी सभी विधायकों के लिए एक स्पष्ट संदेश जाएगा कि ‘काम करो या रास्ता देखो।’ इससे चुनाव के समय कुछ खलबली मच सकती है, पर यह तो सभी पार्टियों में होता है जिससे चुनाव नतीजों पर इसका कोई खास असर भी नहीं पड़ता।
गुजरात में अभी भी विकास चुनाव का एक मुद्दा बना हुआ है। इसे भाजपा को गंभीरता से लेना चाहिए, क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में जनता ने विकास के गुजरात मॉडल को पूरे देश में लागू करने के लिए ही मोदी को वोट दिया था। चुनाव के बाद बहुतों ने इसीलिए गुजरात की यात्राएं कीं, क्योंकि वे उस मॉडल को देखना चाहते थे। अभी भी गुजरात का एक शहरी और विकसित पक्ष है, लेकिन उसका एक ग्रामीण और छोटे शहरों-कस्बों का पक्ष भी है जिसे अभी विकास की दरकार है। वैसे तो गुजरात में अभी भाजपा के पक्ष में ‘टीना’ (देयर इज नो अल्टरनेटिव) फैक्टर काम कर रहा है और अधिकतर सर्वेक्षणों ने भी कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को अच्छी बढ़त दिखाई है, पर लोकतंत्र में आज के टेक्नोलॉजी युग में दृष्टिकोण बदलते देर नहीं लगती। यदि गुजरात को लेकर भाजपा गंभीर नहीं होगी तो न केवल आगामी विधानसभा, बल्कि 2019 के लोकसभा चुनावों पर भी प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं ]